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खुद को अबला कहने वाली सबला नहीं बन सकती

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:17 Sep 2018 3:53 PM GMT

खुद को अबला कहने वाली सबला नहीं बन सकती

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सुश्री इन्द वैद्या

संसार रूपी रंगमंच की नायिका `नारी' सबसे पभावशाली व शक्पिशाली पात्र है। कहीं वह बेटी और बहन बनकर तो कहीं पत्नी और पेयसी बनकर आई है। इसीलिये नारी के किसी एक रूप को अच्छा कहना असंभव सा पतीत होता है। यही कारण है कि विद्वानों ने नारी की व्याख्या न करते हुए केवल `पहेली' कहकर छोड़ दिया। इसका मुख्य कारण यही है कि जब हम किसी वस्तु को अपने दृष्टिकोण से देखने लगते हैं और वह वस्तु हमारे दृष्टिकोण से सर्वथा भिन्न होती है, जो कि उसका स्वाभाविक भाव है, फिर हमारे लिये पहेली बन जाती है। इसी कारण नारी `पहेली' बनी रही। जबकि दार्शनिकों ने पुरुष और पकृति की जो व्याख्या की है, वह इतनी पूर्ण है कि उसमें पूर्ण पुरुष एवं पूर्ण नारी का समावेश है।

माना जाता है कि जब परमात्मा ने सृष्टि का आरंभ किया तो उसने अपने आपको दो रूपों में विभक्प कर दिया, जिसके तहत बायें भाग से स्त्राr और दायें भाग से पुरुष हुए। नारी के बिना पुरुष पंगु है। यहां तक कि शक्पि के बिना शिव भी शव समान हैं।

भारतीय समाज में नारी एक विशिष्ट गौरवपूर्ण स्थान पर पतिष्ठित है। यहां तक कि व्यवहार में पुरुष मर्यादा से नारी मर्यादा सदा ही उत्कृष्ट मानी गई है। तभी तो भारतीय संस्कृति ने नारी को माता के रूप में उपस्थित कर इस रहस्य का उद्घाटन किया है कि वह मानव की कामोपयोग सामग्री मात्र न होकर उसकी वन्दनीय एवं पूजनीय भी है। इसी नाते मानव धर्म शास्त्र में जननी का गौरव उपाध्याय से दस लाख गुना, आचार्य से एक लाख गुना और पिता से हजार गुना बढ़कर बताया गया है। क्योंकि `नारी' जब गर्भ धारण करती है, उस समय से लेकर गुरुकुल भेजने के समय तक पुत्र का पालन-पोषण करते हुए जो परिचय देती है उससे यही पमाणित होता है कि नारी का स्त्राrत्व ही मातृत्व है। वैसे भी नारी को ये मातृत्व पुरुष के साथ समानता के सिद्धान्तानुसार किये गये किसी भी बंटवारे में नहीं मिला। यदि ऐसा होता तो नारी कभी भी वंदनीय न हो पाती।

एक पसिद्ध कहानी है जिसके तहत एक डाकू ने खुद को सुधारने के लिये साधु-महात्मा की शरण ली। तब महात्मा ने उसको एक काला झंडा थमाकर कहा कि यदि तुम्हारा ये झंडा धर्मस्थलों में स्नान करके सफेद हो जाये तो समझना तुम्हें पापों से मुक्पि मिल गई। डाकू ने भी महात्मा के कहे अनुसार तीर्थ स्थलों में स्नान किया, लेकिन झंडे का रंग काला का काला ही रहा। परन्तु जब उसने एक अबला नारी के सतीत्व की रक्षा की तो झंडे का रंग अपने आप ही सफेद हो गया। यह देखते हुए डाकू की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा और दौड़कर साधु की शरण ली। डाकू ने झंडे के सफेद होने की कहानी सुनाई। जिसे सुनने के बाद महात्मा ने कहा कि तुमने शुद्ध भाव रखते हुए एक दुखी स्त्राr की रक्षा की है, इसलिये तुम्हारे समस्त पापों का नाश हो गया। जिस समाज ने स्त्रियों पर अत्याचार किये, उस समाज का नाश निश्चय हुआ है। सारांश इतना ही है कि जहां `नारी' का शोषण किया जाता है, उसे अन्त में जाकर दुख उठाना पड़ता है।

वर्तमान युग में `नारी' से जुड़ीं समस्याएं या उनके अधिकारों, स्वतंत्रता के विषय में बातें होती रहती हैं। यहां तक कई रचनाकारों ने इन विषयों को लेकर अपनी कलम चलाई है, लेकिन देखा अक्सर यही जाता है कि पुरुष पधान समाज `नारी' को सीता-सावित्री के रूप में देखना चाहता है। वह उन देवियों के उदाहरण देने से भी नहीं चूकता जो पति के साथ सती होती रही हैं। लेकिन वह शायद भूल गया है कि जिस समाज में हम रहते आये हैं, वहां सीता-सावित्री जैसी नारी के लिये राम या सत्यवान बनना पड़ता है, जबकि देखा यही जाता है कि नारी को सीता के रूप में देखना तो सभी चाहेंगे, लेकिन कभी किसी पुरुष ने `सीता के राम' बनने की कोशिश नहीं की। यहां तक कि राम के आदर्श तक को माना नहीं। पश्न अब यह उठता है कि यदि पुरुष राम नहीं तो स्त्राr सीता कैसे बन सकती है, वह भी ऐसे युग में जहां सीता का शोषण करने वाला कोई रावण नहीं खुद राम है, वहां सीता की कल्पना करना तर्पसंगत है क्या?

भारतीय संस्कृति में महान आदर्शों, रूंचे सिद्धांतों की बातें तो होती रहती हैं। यहां तक कि नारी को आदिशक्ति के नाम से पुकारा जाता है और कुमारी कन्या की पूजा की जाती है, लेकिन कितना विरोधाभास, कितनी विडम्बना है कि माँ के गर्भ में पल रहे कन्या मूल की निर्मम हत्या कर दी जाती है और दहेज न मिलने पर बहू को जला दिया जाता है। यहां तक कि नारी को निर्वस्त्र किया जाता है। यदि इस सारे परिपेक्ष्य पर चिंतन करें तो यह सत्य स्वतः उभरेगा कि युगों-युगों के रूढ़िगत, धार्मिक, सामाजिक परिवेश ने समाज में नारी शोषण के बीज बो दिये हैं। यहां तक कि नारी ही नारी का शोषण करने में लगी है। कहीं सास, ननद-बहू का शोषण कर रही है तो कहीं बहू ही सास, ननद का शोषण करने में लगी है। मां, बेटी का शोषण करने में भी नहीं चूकती। बेटे को जो सुख-सुविधा दी जाती है, वह मध्यमवर्गीय परिवार में बेटी को नहीं मिलती। खान-पान, लालन-पालन सभी कुछ बेटे को ध्यान में रखकर किया जाता है, जबकि आज की नारी हर क्षेत्र में अपनी सफलता का डंका बजा चुकी है। इसलिये यदि महिला समाज कृत संकल्प हो जाए तो वह समाज के चिंतन की धारा को बदल सकती है। क्योंकि नारी स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है, स्त्राr-पुरुष का समानता पर ध्यान केन्दित करना। स्त्रियों को तभी समान अधिकार मिल सकते हैं। जब समाज में उन्हें अवसर दिये जाते हैं, ताकि आगे बढ़कर वे अपने अधिकारों के लिये लड़ें। यदि नारी अपने को अबला कहती रहेगी तो वह कभी भी सबला नहीं बन सकती।

नारी को सबला बनने के लिये पुरुष के सहयोग की भी आवश्यकता है। क्योंकि पुरुष और नारी जीवनरूपी गाड़ी के दो पहिये हैं, जो एक-दूसरे का समान आदर करने समान अधिकार, समान सुविधा देने से ही चल सकते हैं, इसलिये यदि पुरुष अपना अहम छोड़ नारी या पत्नी की सहायता करता है तो वह गुलाम नहीं बन जाता। बल्कि सच्चा साथी कहा जायेगा। तब शायद हमें नर-नारी को अलग-अलग दृष्टिकोण से नहीं देखना पड़ेगा। न ही नारी स्वतंत्रता का कहीं पश्न उठेगा।

समाज में आज ऐसे कांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है, जहां दोनें ही एक-दूसरे को भलीभांति समझ सपें। कंधे से कंधा मिलाकर चल सपें। तभी एक स्वस्थ व पगतिशील समाज की कल्पना साकार हो सकती है।

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