चुनाव आयोग की विश्वसनीयता कसौटी पर
गणेश शंकर भगवती
चु नावों में सुधार के मामले को लेकर गत दिवस दिल्ली में देश के राजनीतिक दलों की जो बैठक हुई और उसमें जिस तरह के विचार सामने आए उससे यह तो स्पष्ट है कि चुनाव कराने की पकिया के बारे में आज देश के राजनीतिक दलों में कहीं कोई सहमति नहीं है और दूसरे स्वयं चुनाव आयोग भी अभी तक नहीं तय कर पाया है कि अंततोगत्वा कौन सी पद्धति अपनाई जानी चाहिए जिजसे चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी रूप से हो सपें। बैठक में देश के पमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के साथ क्षेत्रीय दलों के पतिनिधियों ने जो विचार विमर्श किया उससे यह बात तो सामने आ ही गई है कि आज कोई भी राजनीतिक दल अथवा चुनाव आयोग उन सुधारों की दिशा में झांक तक नहीं रहा जिनके न होने से भारत की चुनावी व्यवस्था संसार की सबसे भ्रष्ट चुनाव पणालियों में शुमार है। किसी भी लोकतंत्र में निष्पक्ष चुनाव की सबसे पहली शर्त यह हुआ करती है कि उसमें सत्ता की आसंदी पर बैठ राजनीतिक दल सत्ता के संसाधनों का दुरुपयोग न करने पाए। वह चुनाव के पहले ऐसी घोषणाएं न करने पाएं जो स्पष्ट रूप से खुली रिश्वत की परिसीमा में आती हैं। चुनावों को निष्पक्ष बनाने के लिए अभी तक किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि इस पर जो खर्च होता है उसकी सीमाएं क्या हैं। यदि जनता के कोष से कोई राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करता है तो उसे चुनावी खर्च में जोड़ने का कोई कानूनी पावधान अभी तक क्यों नहीं किया। आयोग ने इस पर झांका तक नहीं कि आज सत्ताधारी राजनीतिक दलों से लेकर विपक्ष में बैठने वाले राजनीतिक दल मतदाताओं को आकर्षित करने से लेकर किसानों से लेकर अन्य वर्गों के कर्जों को माफ करने, मुफ्त में मकान देने, मुफ्त में बिजली और पानी देने के साथ लगभग मुफ्त में गल्ला देने की जो घोषणाएं करते हैं उनके कारण चुनाव कहां निष्पक्ष रह पाता है।
सरकारी ऋण से लेकर मुफ्त के मकान और बिजली आदि अपने राज में पदान करने वाले ये राजनीतिक दल जनता की खून पसीने की कमाई का दुरुपयोग नहीं करते तो फिर क्या है। आखिर इस देश में ऐसा नियम कब आएगा जब किसी पत्याशी को यह सुविधा नहीं होगी कि वह सरकारी संसाधनों का उपयोग कर अपनी चुनावी जमीन को मजबूत करे। उदाहरण के लिए पिछले दिनों मध्यपदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अगले चुनाव में अपने को पुनः सत्तासीन करने के लिए राज्य की एक करोड़ से अधिक महिलाओं को जो चिट्ठी लिखी और जिस पर लगभग चार करोड़ का खर्चा आया वह किस खाते में जाएगा। इस बैठक में बहस का सबसे बड़ा मुद्दा चुनाव को मशीन से अथवा मतपत्रों से कराने का था। कांग्रेस सहित अनेक विरोधी दलें की मांग थी कि चुनाव मतपत्रों से कराया जाए जबकि चुनाव आयोग की मंशा का तब पता चल गया जब मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि मतपत्रों से चुनाव कराना बूथ कैपचरिंग के जमाने में लौटने के समान होगा। बूथ कैपचरिंग अथवा मतदाता पेंद पर जबरन कब्जा करने का वोट डालने की पकिया से कोई स्पष्ट संबंध नहीं है। दूसरे जब चुनाव आयोग इतनी व्यवस्था नहीं कर सकता कि मतदाता पेंदों और मतदाताओं की पूरी सुरक्षा कर सके तो चुनाव कराने का मतलब ही क्या है। जहां तक ईवीएम का सवाल है तो आज जब यह हालत है कि गूगल से लेकर एटीएम तक में हैकिंग से लेकर सेंधमारी हो जाती है तो यह मशीनें तो फिर बहुत मामूली किस्म की होती हैं। आखिर चुनाव आयोग को मतपत्रों या बैलट पेपर से चुनाव कराने में परेशानी क्या है। सच तो यह है कि चुनाव सुधार के नाम पर यह बैठक केवल लीपापोती के सिवा कुछ नहीं थी क्योंकि जिन मौलिक चुनाव सुधारों की आवश्यकता है उनकी तरफ तो आज कोई देख तक नहीं रहा है। चुनाव को लेकर देश में आज सबसे बड़ा सवाल विश्वसनीयता का है और यह एक बड़ा सच है कि विश्वसनीयता की परिसीमा में राजनीतिक दलों की बात तो दरकिनार, स्वयं चुनाव आयोग तक नहीं आ रहा। चुनाव आयोग ने अभी अपना कोई निर्णय नहीं दिया है और कहा कि वह विचार करने के बाद अपना फैसला देगा। सच तो यह है कि आज देश में जिस तरह की चुनाव पद्धति चल रही है उसमें न तो कोई पारदर्शिता है और न ही निष्पक्षता। दावे कुछ भी किए जाएं परंतु आम धारणा यही है कि आज चुनाव में सत्ताधारी दल का, फिर चाहे वह कोई भी हो पलड़ा हमेशा भारी रहता है। देखना यही है कि इस बाद चुनाव आयोग क्या फैसला करता है परंतु यक्ष पश्न यही है कि चुनाव की आड़ में आज जिस तरह हर तरह के अपराधी हमारे विधानमंडलों में पहुंच जाते हैं और राजनीतिक दल वंशवाद से लेकर व्यक्ति तंत्र को पाल रहे हैं उस पर रोक लगने के कोई आसार आज भी नजर नहीं आ रहे हैं।