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लोकगीतों से होती है सांझी की आरती

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:28 Sep 2018 5:28 PM GMT

लोकगीतों से होती है सांझी की आरती

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श्री गोपाल नारसन-विनायक फीचर्स

लिल्ली धोडक्वी रे कौन फिरे सवार, मैं था दुलीचंद बोबो हे, सांझी का लेवणहार। बोबो थोडक्वा पिला दे हे तेरा बीर प्यासा जाए। यह पार्थना रूपी एवं कथा रूपी लोकगीत इन दिनों पायः हर घर में मां सांझी की आरती करते समय सुबह-शाम गाया जा रहा है। श्राद्ध के दिनों में श्राद्ध के अंतिम दिन अमावस्या को देवी रूप में मिट्टी से बनी मां सांझी की पूजा-अर्चना की जाती है। दो दशक पहले तक गांव हो या शहर हर लडक्वकियां कच्ची मिट्टी से नई-नई डिजाइन व नये-नये साज-श्रृंगार के साथ सांझी तैयार करती थी और सांझी के साथ चांद-तारे से लेकर कई आकृतियां सजाई जाती थीं।

श्राद्ध लगते ही सांझी बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता था और नवरात्र से एक दिन पहले गोबर से चिपकाकर दीवारों पर सांझी लगाई जाती थी, लेकिन वक्त बदलने के साथ सांझी भी हाईटेक हो गई है। अब सांझी घरों में बनाने के बजाय बाजारों से खरीदकर लगाई जाती है। एक सांझी 20 रुपये से 100 रुपये के मध्य आसानी से मिल जाती है। ऐसे में सांझी को घर में बनाने की परम्परा भी खत्म हो गई है, लेकिन इससे घर की लडक्वकियां सांझी बनाने की कल्पना से वंचित हो गई हैं। धार्मिक मान्यता है कि सांझी एक गरीब परिवार में जन्मी, पली और बडक्वी हुई एक ऐसी लडक्वकी थी जिसे ससुराल भी गरीब ही मिली।

ससुराल में सांझी को कई झूठे इल्जाम और ताने सहन करने पडक्वते थे। यानी सांझी को ससुराल में पताडिक्वत किया गया। सांझी को मायके लिवाने जब उसका भाई दुलीचंद उसकी ससुराल आया तो उससे सांझी की पीडक्वा देखी नहीं गई। हद तो तब हो गई, जब ससुराल वालों ने सांझी को उसके भाई के साथ भेजने से इंकार कर दिया। सांझी जिद पर अडक्व गई और भाई दुलीचंद के साथ मायके चली गई। जहां पहुंचने पर सांझी की आरती उतारकर पूरे गांव ने स्वागत किया। सांझी के मायके में स्वागत के दौरान चने जिसे चाब कहा जाता है रूपी पसाद बांटा गया था। तभी से पर्व मनाने और पर्व पर चाब के रूप में भीगे हुए चने बांटने की परम्परा है।

राधा वल्लभ संपदाय के अनुयायी सांझी को राधा-कृष्ण की पेमभक्ति के रूप में व्याख्यायित करते हैं तो कहीं-कहीं सांझी पूजा 16 दिनों तक किए जाने की भी परम्परा है। लोक कथाओं के साथ-साथ लोक गीतों में कालजयी सांझी की कथा सहज ही समझ में आ जाती है। सांझी की आरती सुबह शाम करते समय पार्थना के रूप में जो लोकगीत गाए जाते हैं उन लोकगीतों की एक बानगी देखिए, चाद दे री चाब दे सांझी की मां चाब दे, तेरी सांझी जीवे चाब दे। इसी तरह आरता री आरता सांझी मां आरता। गाकर सांझी मां की पूजा की जाती है।

इसी सांझी मां की पतिमा के सामने सांझी स्थापना के अगले दिन कच्ची मिट्टी में जौ बोये जाते हैं। पतिदिन सुबह-शाम सांझी को स्नान कराते समय व भोग लगाते समय इन बोये गए जौ में नियमित पानी छिडक्वकने से जौ अपुंरित होकर पौधा बनने लगता है, जिसे नोरते कहते हैं। चूंकि दशहरे तक ये नोरते काफी बडक्वे हो जाते हैं इसलिए इन्हीं नोरतों से दशहरे की पूजाकर बहनें अपने भाइयों के कानों पर नोरते रखकर उनकी दीर्घायु की कामना करती हैं और बदले में भाई अपनी बहन को सौगात देता है। हालांकि सांझी पतिमा को दशहरे से एक दिन पूर्व ही श्रद्धाभाव से उतारकर किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। घर की लडक्वकियां सांझी पतिमा को विसर्जित करते समय उदास भी होती हैं, क्योंकि उन्होंने सांझी की पतिमा को बडक्वे परिश्रम व उत्साह से बनाया था परंतु उन्हें यह ढांढस बांधकर कि अगले साल फिर सांझी मां आएंगी और उन्हें फिर से सांझी की एक अच्छी सी पतिमा बनाने का अवसर मिलेगा, लडक्वकियें को मना लिया जाता है।

सचमुच लडक्वकियों में सांझी बनाने के नाम पर उनकी शिल्पकला पदर्शित करने का एक अच्छा अवसर है, जिसमें कन्या की पूजा के साथ ही स्त्राr भक्ति सम्मान के रूप में मां दुर्गा का भावपूर्ण स्मरण किया जाता है और श्रद्धालु पूरे नवरात्र उपवास रखकर मां सांझी व मां दुर्गा की पूजा अर्चना करते हैं। साथ ही नन्ही-मुन्नी बच्चियों को भोजन कराकर उनका आशीर्वाद पाप्त किया जाता है। यह है भारतीय संस्कृति की अनूठी परम्परा, जहां आधी दुनिया यानी स्त्राr जाति के सम्मान का एक बडक्वा अवसर है। शास्त्राsं में भी उल्लेख मिलता है कि जहां नारी का सम्मान होता है, वहां ईश्वर वास करते हैं।

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