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टूटते अंधविश्वास और बिखरता पर्यावरण

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:23 Oct 2018 2:29 PM GMT

टूटते अंधविश्वास और बिखरता पर्यावरण

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आभा पूर्वे

अं ंधविश्वासों का संबंध कहीं न कहीं धार्मिक विश्वासों के साथ होता ही है और आज वैज्ञानिकता के नाम पर जिस तरह अंधविश्वासों के साथ-साथ धार्मिक विश्वासों पर कुठाराघात हो रहा है उससे धर्म से कहीं ज्यादा लहू-लुहान हमारा पर्यावरण हुआ है, इसे कहने या स्वीकारने में कोई हिचकिचाहट नहीं हो सकती। हजारों हजार साल से हिन्दुओं ने नदियों की उपासना की है, पर्वतों की पूजा की है, वृक्षों को जल चढ़ाया है और नक्षत्रों को पूजा है।

लेकिन ज्यों-ज्यों नयी सभ्यता और विज्ञान के पांव हिन्दुस्तान में भी गहरे तौर पर जमते गये, त्यों-त्यों पकृति के पति हमारी आस्थायें भी डोलती गयीं। हम स्वयं नहीं डिग रहे थे बल्कि यह सब किया जा रहा था पाश्चात्य शिक्षा एवं विचारों के लगातार आकमण से। धीरे-धीरे हमें भी यह बोध होने लगा कि पकृति की इस तरह से उपासना हमारी मूर्खता है, हमारी जड़ता है, क्योंकि पकृति तो जड़ है, वह व्यक्ति से श्रेष्ठ नहीं। मनुष्य सोच सकता है, आकाश की रूंचाइयों को पल में नाप सकता है, ये नदी, पर्वत, जंगल तो मात्र उसकी उपयोगिता के लिये हैं, उसके जीवन की रक्षा के लिये है। पाश्चात्य विचारकों का यह विश्वास जब अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से हिन्दुस्तान में धीरे-धीरे अटल होने लगा तो हम भी पकृति तत्वों के विरोधी हो गये। अब तक हिन्दू स्त्रियां पीपल, बड़ पूजा करती रहीं, उनमें यही विश्वास था कि इन वृक्षों की पूजा से उसके पति अजर-अमर रहेंगे। पीपल वृक्ष के अंग-अंग में तैंतीस करोड़ देवता का निवास है और वैज्ञानिक आकमण के कारण जब हमारी यह आस्था डगमगायी तो हम पीपल को काटने लगे, बरगद के पेड़ों को काटने लगे। जंगल के जंगल साफ करते चले गये, क्योंकि हम भी यह मानने लगे कि इन वृक्षों पर देवताओं का वास नहीं होता। जो ईश्वर मुझमें रहता है वह वृक्षों में नहीं रहता। पाश्चात्य विचारकों का यह सिद्घांत हमारे समक्ष ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगा है कि पकृति में वही बचेगा जो शक्तिशाली है, और इस वैज्ञानिक सोच का दुष्पभाव सबसे ज्यादा हमारे पर्यावरण को ही भुगतना पड़ा है। पीपल के विशाल वृक्ष जो हमें कल तक घनी छांव और चिड़ियों का संगीत दिया करते थे और चौबीसों घंटे आक्सीजन की पाण वायु पदान करते थे, आज वही पीपल के वृक्ष दिखाई नहीं पड़ते। हमारा यह धार्मिक विश्वास जो खत्म हो गया है कि इसके पत्ते-पत्ते में देवता निवास करते हैं।

पकृति के पति इसी विश्वास के डिग जाने के कारण हम जल के पति उदासीन हो गये कल हमारा यह धार्मिक विश्वास था कि गंगा-यमुना कावेरी गोदावरी हमें मोक्ष पदान करती नदियां हैं। बकौल विद्यापति के -

की करब हम जप-तप योग ध्याने

जनम कृतारथ एक ही स्नाने।

एक ही स्नान से जन्म कृतार्थ करने वाली गंगा नदी भी पदूषित हो गई है अब इसमें हम कल कारखाने की सारी गंदगियों को उड़ेल रहे हैं क्योंकि वैज्ञानिक ज्ञान के कारण हम यह मान ही नहीं सकते कि गंगा मां हो सकती है।

हमारी इस धार्मिक आस्था के मरने के साथ-साथ आज भारत की नदियां भी मर रही है। नदियां ही नहीं मर रही हैं, हमारी जमीन, हमारी धरती रूग्ण हुई जा रही है। कल तक हमारे लिये धरती माता थी। हिन्दू ऋषियों ने इसे माता कहकर पुकारा और आधुनिक विचारों से पभावित होने के पूर्व हमारे लिये भी धरती मां ही थी। लेकिन वैज्ञानिक सोच और फिर राजनीतिक समझौतों के कारण धरती के मां होने पर हमने शंका जाहिर की। जब धरती मां नहीं हो सकती तो इस धरती के सीने में अणु परीक्षणों का विस्फोट भी संभव है और धरती की छाती खोद-खोदकर सारे रत्नों को निकाला जा सकता है। धरती खोखली हुई जा रही है और हमारा पर्यावरण खत्म होता आ रहा है। कल तक जिन धार्मिक विश्वासों के साथ-साथ जल-जमीन-जंगल के पति हम श्रद्घा भाव से भरे हुए थे, आज हम आधुनिक होने के फैशन में न केवल पकृति से दूर हुए जा रहे हैं बल्कि पकृति के विरूद्घ आकमण करते-करते अब हम अपने ही संहार के लिए एक महापलय की तैयारी कर चुके हैं।

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