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मर्यादा पुरुषोत्तम होना...!

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:7 Oct 2019 12:11 PM GMT

मर्यादा पुरुषोत्तम होना...!

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र दौर अपने कुछ लोकपिय मूल्य गढ़ता है और कोशिश करता है कि उनसे शाश्वत मूल्यों को विस्थापित कर दे। मगर ऐसा कभी नहीं होता, कभी नहीं होगा। शाश्वत मूल्यों की चमक कभी भी किसी उपयोगी या लोकपिय चलन से फीकी नहीं पड़ेगी। यह सोशल मीडिया का दौर है और इस दौर का सबसे बड़ा मूल्य है, स्मार्ट होना। हर कोई चाहता है वह दूसरों की नजर में स्मार्ट दिखे, स्मार्ट समझा जाए। शायद इसीलिए ज्यादातर संदर्भों में बातचीत के दौरान बार बार `स्मार्ट' शब्द की दुहाई दी जाती है। स्मार्टनेस की उम्मीद और कामना की जाती है। लेकिन इस दौर में भी जब किसी के चारित्रिक गुणों की पशंसा की जाती है, इस दौर में भी जब किसी को शिष्ट, सभ्य और सुसंस्कृत माना जाता है तो कहा जाता है कि वह हमेशा मर्यादाओं का पालन करता है। अयोध्या के राजा राम इसी मर्यादा की शिखर पताका थे। इसीलिए उनका सबसे लोकपिय नाम है मर्यादा पुरुषोत्तम राम। राम को सबसे पहले इसी नाम से संबोधित किया जाता है। उनका नाम लेते ही दिलोदिमाग में जो पहली छवि निर्मित होती है, वह शाश्वत मर्यादा के परायण पुरुष की ही छवि होती है। राम सनातन धर्म की परंपरा में अभी तक जितने महान लोग हुए हैं, उन सबमें श्रेष्" हैं तो अपने इसी चरित्र की वजह से। उन्होंने अपने समूचे जीवन चरित्र में मर्यादा को कभी डिगने नहीं दिया।

आज कुछ लोग मर्यादा का मतलब समझने के लिए इस शब्द के अंग्रेजी अनुवाद का सहारा लेते हैं और सोचते हैं कि मर्यादा का मतलब सीमा में रहना है। नहीं, मर्यादा का मतलब लिमिट में या सीमा रहना या होना नहीं है। मर्यादा एक ऐसा जीवनमूल्य है, एक ऐसा अनुशासन है जिसे कोई भौतिक लिमिट या सीमा परिभाषित नहीं कर सकती। यूं तो भारत में शायद ही कोई ऐसा विद्वान हुआ हो, जो राम से पभावित न रहा हो और जिसने राम की अपने शब्दों और संदर्भों में व्याख्या न की हो। लेकिन राम की सबसे शाश्वत और सबसे भौतिक व्याख्या विद्वान और राजनेता राममनोहर लोहिया ने की है। उन्होंने राम को दैवीय आईने में नहीं देखा। उन्होंने राम को एक आम मनुष्य की जीवन कसौटियों से कसा है और पाया है कि राम जितना जनंतात्रिक और जनवादी चरित्र का कोई व्यक्ति किसी भी संस्कृति और विचारधारा में नहीं हुआ।

अयोध्या के राजा, अयोध्या के राजकुमार और एक महान परामी, वीर, धनुर्धर राम अपने अवतारी जीवन के कदम कदम पर मर्यादाओं के मानदंड को हमेशा महत्व देते रहे हैं। राम एक ऐसे चरित्र हैं कि उनके जैसा या उनसे बेहतर कोई दूसरा आदर्श हो ही नहीं सकता। राम जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादा की एक ऐसी कसौटी छोड़ते हैं, जो न सिर्फ आज बल्कि धरती में जब तक जीवन है, महत्वपूर्ण रहेगी। राम शक्ति-सामर्थ्य की मर्यादा हैं। वह बेहद शक्तिशाली हैं और हर कदम पर उन्होंने अपनी शक्ति का परिचय दिया है, लेकिन विनम्रता और मर्यादा उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। किशोरावस्था में उन्हें गाधितनय राजर्षि विश्वामित्र अपने साथ ले जाते हैं और ऐसे ऐसे असुरों से किशोर राम और लक्ष्मण को मुकाबला करना होता है, जिन असुरों से कई कई सेनाएं पराजित हो चुकी होती हैं। लेकिन राम और लक्ष्मण इन सभी असुरों का बिना किसी भय या संकट के आये सहजता में खत्म कर देते हैं। फिर भी उनमें एक सामान्य शिष्य की तरह ही नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा गुरु में श्रद्धा और आस्था होती है।

जब तक विश्वामित्र सो नहीं जाते, राम और लक्ष्मण गुरु के पैर दबाते रहते हैं। गुरु के सो जाने के बाद पूरी रात आश्रम की रखवाली करते हैं। इन तमाम स्थितियों से कभी भी उनमें परेशानी की कोई शिकन नहीं देखी जाती। जब गुरु विश्वामित्र उन्हें राजा जनक के दरबार में ले जाते हैं, जहां सीता स्वयंवर चल रहा होता है और बड़े बड़े पतापी, महान वीर समझे जाने वाले राजा एक धनुष को टस से मस नहीं कर पाते, उस धनुष को राम किसी सामान्य से धनुष की तरह उ"ा लेते हैं और पत्यंचा चढ़ाने की कोशिश करते हैं तो वह टूट जाता है। लेकिन जब तक गुरु इशारा नहीं करते, आदेश नहीं देते, तब तक राम एक बार भी ऐसा कोई संकेत नहीं देते कि वे धनुष को उ"ा भी सकते हैं तोड़ना तो बहुत दूर की बात है। यहां तक कि वो धनुष की तरफ एक बार भी देखते तक नहीं हैं। यह होती है बल और शक्ति की मर्यादा। यह होती है शिष्यता की मर्यादा। यह होता है अपने गुरु के पति आस्था की अदम्यता। राम अपने अवतारी जीवन के कदम कदम पर आदर्श और मर्यादा जीते हैं। अभी वह विवाह के बाद अयोध्या लौटे ही हैं कि महारानी कैकेयी उन्हें 14 सालों के लिए वनवास भेजने की साजिश रच देती हैं। वह भी `तापस वेश विशेष उदासी/चौदह बरस राम वनवासी' की वेशभूषा में। राम चाहते तो इंकार कर सकते थे। वह महान वीर और धनुर्धर तो थे ही, पूरी अयोध्या उनके साथ थी, तर्क भी उनके पक्ष में था। क्योंकि वे राजा दशरथ के घोषित युवराज थे। वह राज्य की रक्षा और सुरक्षा की आड़ में दिये गये वचन या पतिज्ञा की अनदेखी कर सकते थे। इसके लिए शास्त्राrय विधान मौजूद था। शास्त्र कहते हैं राज्य के लिए आपदा के काल में कोई भी नियम मान्य नहीं होता, सिर्फ राज की सुरक्षा का नियम ही सर्वोपरि होता है। राम चाहते तो यह कहकर वनवास जाने से मना कर देते कि उनके वनवास जाने से अयोध्या की सुरक्षा को खतरा है।

लेकिन राम ने ऐसा सोचा तक नहीं। उन्होंने अपने पिता के वचनों का और सौतेली मां कैकेयी की इच्छा की मर्यादा रखी। वह वनवास के लिए रवाना हो गये। वनवास जाते हुए भी उन्होंने हर कदम पर अपने मर्यादा पुरुष होने का परिचय दिया। केवट ने उन्हें नाव में चढ़ाने से मना कर दिया, उनके वजूद पर मायावी होने के आरोप मढ़े और उन्हें परीक्षा देने के लिए बाध्य किया। कोई और महाबली होता तो एक मामूली से केवट की शक-शुबहों और परीक्षाओं को दरकिनार करता और धमकी देता कि एक मिनट में वह बिना कोई पतिवाद किये, उन्हें गंगा से पार कराए वर्ना...। लेकिन राम तो राम है। उन्होंने केवट को वही सम्मान दिया, जो एक सभ्य और शिष्ट व्यक्ति दूसरे को देता है। राम में अद्भुत शक्ति थी। वह चाहते तो अपने पुरुषार्थ की बदौलत जंगल में भव्य आवास बनाकर रह सकते थे। लेकिन उन्होंने जंगल के नियमों को, जंगल की मर्यादाओं को नहीं तोड़ा। दूसरे वनवासी लोगों की तरह ही अपनी घासफूस की झोपड़ी बनाकर रहे। वह जानते थे कि सोने का मृग मायावी है। लेकिन उन्होंने सीता से गैरजरूरी पतिवाद नहीं किया। उनकी इच्छा पूरी करने के लिए सोने के मृग के शिकार के लिए चल दिए।

राम ने लंका के रास्ते में कदम कदम पर अपनी शिष्टता और लोकतांत्रिकता के सबूत पेश किये हैं। वह चाहते तो बाली का वध करने के बाद पम्पापुर का विशाल राज्य अपने कब्जे में ले लेते और सीता की खोज एक व्यवस्थित सेना के जरिये करवाते। लेकिन उन्होंने सिर्फ बाली को उसके दुष्कर्मों का दंड दिया और आगे बढ़ गये। उन्होंने एक बार भी रावण से अमर्यादित भाषा में बात नहीं की। उन्होंने हमेशा रावण को महाराजा, महाज्ञानी, महाविद्वान जैसी उपाधियों से ही संबोधित किया। यहां तक कि रावण का वध करने के बाद भी उन्होंने लक्ष्मण को रावण के पास भेजा कि वह जाकर महाराजा, महाज्ञानी रावण से ज्ञान लें। राम में कूट-कूटकर लोकतांत्रिकता भरी हुई थी। वह एक महान पावर्ती राजा थे, जिनका व्यापक आभामंडल था। अपने इसी आभा की बदौलत उन्होंने समाज के सबसे कमजोर तबकों- बानर, भालू, कोल, भील जैसी आदिम और वनवासी जातियों को साथ लेकर दुनिया की सबसे ताकतवर और संग"ित सेना को मात दिया। लंका के महान राज्य पर भी विजय हासिल करने के बाद, उन्होंने उसकी सत्ता नहीं हड़पी। यहां तक कि वह लंका के राजदरबार तक नहीं गये। बाकी सबको विभीषण के राजतिलक के बाद गद्दी पर आसीन होने की पािढया पूरी कराने के लिए भेज दिया, लेकिन वह खुद लंका के बाहर युद्ध भूमि के अपने पड़ाव में ही रहे।

अंतिम दिनों में ही जब वह अयोध्या के पावर्ती सम्राट थे, तब महज इसलिए अपनी पिय पत्नी को जंगल भेज दिया; क्योंकि राज्य का एक अदना सा नागरिक यह कहकर तंज कस रहा था कि वह राम नहीं हैं कि घर से बाहर रही स्त्राr को अपना लें। हालांकि मर्यादा पुरुषोत्तम के जीवनचरित्र में यह घटना एक कलंक के माफिक है, लेकिन अगर इसे पजा के पति निष्"ा और राजा के सर्वोच्च आदर्शों के आईने में देखें तो राजा राम ने एक बहुत ही आम पजा को बराबरी और सम्मान देने के ाढम में ही सीता को जंगल भेजा। हालांकि राम अपने पूरे जीवन में कभी भी और कहीं पर भी मर्यादाओं की बात नहीं करते। किसी भी तरह का कोई उपदेश नहीं देते। वह अपने जीवन जीने के ढंग से खुद को मर्यादा पुरुषोत्तम साबित करते हैं। अगर इतिहास पर आलोचकीय दृष्टि से नजर दौड़ायी जाए तो राम के सिर्फ एक भक्त ही आजतक उनके जैसा मर्यादा पुरुष होने की कोशिश की है, भले इंसान की सीमाएं हों। यह व्यक्ति है मोहनदास करमचंद गांधी, जिनके रग रग में जीवन मूल्यों के पति जबरदस्त आस्था और मर्यादा थी। राम का चरित्र इसीलिए इतना चुंबकीय है; क्योंकि उनका पूरा जीवनकाल एक ऐसी साधना, एक ऐसी तपस्या का सतत ाढम है, जिसकी किसी और से तुलना ही नहीं हो सकती।

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