देह से खेलती कहानियां...!
पिछले दिनों एक कहानी पढ़ी `देह का गणित'। पढ़कर मन खराब हो गया। मन में सवाल उ"ा कि जब लिखने के लिए इतने विषय मौजूद हैं तो फिर देह को ही क्यों फोकस किया गया? वंदना गुप्ता की इस कहानी को लेकर विषयगत मतभेद नहीं है। विषय के चयन का अधिकार पूरी तरह से लेखक का होता है। लेकिन मतभेद है तो विषय के साथ बरती गई नीयत को लेकर है। कहानी में लेखिका ने, एक मां के अपने जवान बेटे के साथ सेक्स संबंधों का जुगुप्सापूर्ण वर्णन किया है। यह वर्णन बिना किसी परिवेश, भावनात्मक संवाद और आत्मीयता के दर्ज किया गया है। बिना किसी इंटीमेसी के दोनों पात्र बेड पर मिलते हैं। दोनों के बीच रिश्ता बनता है और बनता रहता है। कहीं किसी में किसी किस्म का कोई अपराधबोध दिखाई नहीं देता। यह योजनाबद्ध तरीके से बनाया बनवाया गया रिश्ता स्त्राr (विधवा) की सोई हुई देह को जागृत कर देता है। स्त्राr पागलपन की हद तक पहुंच जाती है। इस कहानी को लेकर काफी हंगामा बरपा हुआ है। माना जा रहा है कि जिस पत्रिका पाखी में यह कहानी छपी है, उसकी पी का आंकड़ा कुछ ऊपर जा सकता है। तमाम वरिष्" साहित्यकार इस कहानी को शानदार बता रहे हैं और लेखिका को बधाइयां दे रहे हैं। सवाल है इस तरह की निचले दर्जे की कहानियों को फ्रमोट करने के पीछे की राजनीति आखिर क्या खेल है?
वंदना ने कहानी के शुरू में कहा है कि 14-15 साल पहले वह एक पत्रिका में महिलाओं की व्यक्तिगत समस्याओं के जवाब दिया करती थी। तभी उनके पास यह पत्र आया था, जिसे आज उन्होंने कहानी की शक्ल में पा"कों के सामने रख दिया है। लेकिन यहां यह गौरतलब है कि उन वर्षों में बहुत सी पत्रिकाओं में इस तरह की समस्याएं और उनके हल फ्रकाशित होते थे। इनमें से अधिकांश फेक होते थे। इनका मूल सुर यह होता था कि पा"कों को उत्तेजित किया जा सके। समस्याओं में नयापन लाने के लिए रिश्तों की मर्यादाओं को तोड़ा जाता था। अगर आज भी फैंटेसी या डेबेनॉयर जैसी पत्रिकाओं के उस दौर में छपी समस्याओं को पढ़ा जाए तो यह बात समझ आ जाएगी कि इन निजी समस्याओं का मकसद उनका निदान करना नहीं होता था बल्कि उनकी सोच को दूषित करना होता था।
दिलचस्प बात है कि आज भी कुछ अपराध या सेक्स पत्रिकाओं में इस तरह के स्तंभ छपते हैं। गंभीर बात यह है कि पा"क इन समस्याओं के समाधान नहीं पढ़ते सिर्फ समस्याएं पढ़ते हैं। क्योंकि उन्हें समस्याओं में ही रस मिलता है। लगभग पंद्रह साल पहले भारतीय समाज पांमण काल से गुजर रहा था। यही वह समय था जब इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाओं में लड़कियां खुलेआम कह रही थीं कि उन्हें अपने देह का फ्रदर्शन करने या इस्तेमाल करने की पूरी छूट होनी चाहिए। बाद के वर्षों में समाज ने ऐसा होते देखा, देख रहा है। दरअसल यह पुरुषों का ही हिडन एजेंडा था। वह स्त्रियों को इसी रूप में देखना चाहता था। साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। साहित्य में भी कुछ हद तक नग्नता, सेक्स, भौंडापन इसी वजह से आया है। कुछ लेखिकाएं इस जाल में आसानी से फंस जाती हैं। "नो मीन्स नो' का झंडा उ"ाने वाली ये लेखिकाएं पता नहीं क्यों इस तरह के लेखन को नो नहीं कह पातीं। वरिष्" लेखक भी इस तरह की कहानियों की तारीफों के पुल बांधते रहते हैं।
ऐसा नहीं है कि भारत में या विदेशों में सेक्स संबंधों के खुलेपन को लेकर लिखा न गया हो। कृष्णा सोबती (सूरजमुखी अंधेरे के) से लेकर राजकमल चौधरी (मरी हुई मछली), रमणिका गुप्ता(ओह ये नीली आंखें), जयश्री रॉय (औरत जो नदी है) सेक्स संबंधों का भरपूर चित्रण कर चुके हैं। और भी बहुत से लेखक-लेखिकाएं हैं जिन्होंने सेक्स संबंधों पर साहस के साथ लिखा है। विदेशी साहित्य में तो इसकी भरमार है ही। ब्लादीमीर नाबाकोफ (लौलिता), स्टीफन ज्विग (एक अनजान औरत का खत), डीएच लारेंस (लेडी चटर्लीज लवर)...असंख्य लेखक और रचनाएं हैं जिन्होंने अश्लीलता के आरोप झेले हैं। मंटों तक पर अश्लील होने के आरोप लगे हैं। यौन संबंधों को चित्रित करने में भला किसी को कैसे ऐतराज हो सकता है। स्त्राr पुरुष संबंध साहित्य के मूल में हमेशा से रहे हैं।