Home » खेल खिलाड़ी » राष्ट्रकुल खेलों को त्यागना

राष्ट्रकुल खेलों को त्यागना

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:12 Oct 2019 11:26 AM GMT

राष्ट्रकुल खेलों को त्यागना

Share Post

राष्ट्रकुल खेलों में भारतीय महिला हॉकी टीम ने सेमी फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को पराजित किया और फिर फाइनल में इंग्लैंड को हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया। यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी,लेकिन इसे कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया। इसके पांच साल बाद शाहरुख खान की फिल्म `चक दे इंडिया' (2007) आयी और उसकी सफलता के कारण ही सूरज लता देवी व ममता खरब पर फोकस बन सका, उन्हें 2002 का `हीरो' माना गया।

लेकिन अब भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) के फ्रमुख नरिंदर बत्रा राष्ट्रकुल खेलों को `समय की बर्बादी' मानते हैं क्योंकि `फ्रतिस्पर्धा का स्तर ऊंचा नहीं है'। उनकी शिकायत यह है कि भारत राष्ट्रकुल खेलों में 70 से 100 पदकों के बीच में जीतता है,लेकिन ओलंपिक में मात्र दो- इसलिए परिवर्तन दर दयनीय है। राष्ट्रकुल खेलों में हिस्सेदारी पर विराम लगाने का अगर यही तर्क है तो एशियन गेम्स पर भी यही बात लागू होती है। साल 2016 के रिओ ओलंपिक से पहले हुए एशियन गेम्स में भारत ने 57 पदक जीते थे, जबकि रिओ में उसे मात्र दो पदक (बैडमिंटन में पीवी सिंधु को रजत व कुश्ती में साक्षी मलिक को कांस्य) मिले थे। ध्यान रहे कि ओलंपिक में भारत का सर्वश्रेष्" फ्रदर्शन कुल छह पदक फ्राप्त करने का रहा है,जो उसे 2012 लंदन में मिले थे। यह सब मिशन पोडियम आदि योजनाओं के चलते हुआ।

यही नहीं भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने आजतक राष्ट्रकुल खेलों का स्वर्ण पदक नहीं जीता है, क्योंकि ऑस्ट्रेलिया का स्तर बहुत ऊंचा रहता है। इस तरह देखें तो लगता है कि यह बात तो केवल बहस करने के लिए अधिक कही गई है, कि राष्ट्रकुल खेलों में हिस्सेदारी `समय की बर्बादी' है। भारत के कुछ बेहतरीन सितारों को चमकने का पहला अवसर, इन्हीं खेलों ने फ्रदान किया है। जिमनास्टिक्स में आशीष कुमार व दीपा करमाकर, बैडमिंटन में साईना नेहवाल, ज्वाला गुट्टा व अश्विनी पोनप्पा, ने अपनी पहली सफलता का स्वाद राष्ट्रकुल खेलों में ही चखा था उसके बाद ही वह विश्व चौंपियनशिप व ओलंपिक में अपनी पहचान स्थापित कर सकीं। गोल्ड कोस्ट के राष्ट्रकुल खेलों में जब मनिका बत्रा ने दो स्वर्ण पदक जीते, तब ही भारत टेबल टेनिस में मुकाबला करने योग्य शक्ति बना। जाहिर है, अगर राष्ट्रकुल खेलों में अर्जित होने वाले लाभ को (अगर बर्बाद न होने दिया जाये तो) ओलंपिक सफलता में परिवर्तित किया जा सकता है। हर संबंधित व्यक्ति का फोकस में रहना भी आवश्यक है।

अब सवाल यह है कि नरिंदर बत्रा ने उक्त बयान क्यों दिया ? दरअसल, शूटिंग, कुश्ती, वेटलिफ्टिंग और काफी हद तक बैडमिंटन व टेबल टेनिस राष्ट्रकुल खेलों में लीचे लटके हुए फल हैं। इन्हीं खेलों से भारत को अधिकतर पदक हासिल होते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खिलाड़ियों को फल तोड़ने के लिए फिर भी फ्रयास करने पड़ते हैं। बत्रा को यह बात समझनी चाहिए। उन्हें इस कड़वे सच का भी सामना करना चाहिए कि ओलंपिक के जो तीन बड़े स्पोर्ट्स माने जाते हैं- ट्रैक एंड फील्ड, तैराकी व जिमनास्टिक्स- उनमें भारत को नाममात्र की ही सफलता मिलती है। उच्च फ्रतिस्पर्धा के मुकाबले में भारतीय हॉकी की कमजोरी निरंतर उजागर हो रही है। मुक्केबाजी का पदक मिलना आसान नहीं है। नेटबॉल, बास्केटबाल, बीच वॉलीबॉल व रग्बी सेवेंस जैसे टीम स्पोर्ट्स में भारत की दिलचस्पी नहीं है।

ये तमाम सच ओलंपिक में असफलता के संकेत हैं, न कि राष्ट्रकुल खेलों में उपलब्ध फ्रतिस्पर्धा का स्तर। एशियन गेम्स में फ्रतिस्पर्धा का स्तर कमजोर होने के कारण भारत एथलेटिक्स में दर्जनों पदक फ्राप्त करता है और फिर ओलंपिक में जीरो हो जाता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम मुकाबला करना ही छोड़ दें, विशेषकर जब बैडमिंटन व टेनिस को छोड़कर भारतीय एथलीट पूरे वर्ष मुकाबलों से दूर रहते हैं और मौका मिले तो ट्रायल्स को भी छोड़ दें। कबजाr में भारत के मुकाबले पर कोई नहीं आता था, लेकिन पिछले साल एशियन गेम्स में ईरान ने इस भ्रम को भी तोड़ दिया, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम एशियन गेम्स में भी जाना छोड़ दें ।

दरअसल, राष्ट्रकुल खेलों को पूर्णतरू त्यागने के विचार के केंद्र में यह तथ्य है कि 2022 के बर्मिंघम राष्ट्रकुल खेलों के लिए शूटिंग को ड्राप कर दिया गया है,जो भारत के लिए दुधारू गाय थी इन खेलों में। इस वजह से भारत की पदक संख्या गिर जायेगी।

शूटिंग को हटाये जाने का यह कारण बताया जा रहा है कि राष्ट्रकुल खेलों की 13 समितियों में एक भी भारतीय नहीं है, जबकि तथ्य यह है कि शूटिंग महंगा व कुलीन खेल है और टीवी के लायक खेल नहीं है,जबकि आजकल खेलों में अधिकतर पैसा टीवी से ही आता है। ध्यान रहे कि ग्लासगो, जहां एंडी मर्रे का जन्म हुआ, ने अपने 2014 के राष्ट्रकुल खेलों में टेनिस को ड्राप कर दिया था, जबकि मेजबान देशों को अपने खेल शामिल करने का अधिकार है।

इस पृष्"भूमि में शूटिंग को ड्राप करने पर बेतुकी फ्रतिािढया व नस्लवाद आदि के आरोप लगाना उचित फ्रतीत नहीं होता।

नवम्बर में राष्ट्रकुल खेल संघ के फ्रमुख को भारत आना है, उससे शायद निर्णय में कोई परिवर्तन आये,लेकिन ऐसा फ्रतीत होता है कि योजना अफसोस व्यक्त करते हुए घर बै"ने की है। ऐसा हुआ तो बहुत नकारात्मक होगा। महान खेल देश अफसोस व्यक्त नहीं करते।

वह खेल के नये नियमों को पैक करते हैं और अपनी बात मैदान में साबित करते हैं। यह अच्छा अवसर है कि तैराकी, जिमनास्टिक्स व एथलेटिक्स में पिछड़ेपन को दूर किया जाये, जिनमें राष्ट्रकुल खेलों में भी स्तर है। कहने का अर्थ यह है कि मुख्यधारा व पॉपुलर स्पोर्ट्स में टीमें विकसित की जायें बजाय इसके कि उन पदकों पर रोया जाये जो इस बार शूटिंग से नहीं आने वाले हैं।

Share it
Top