Home » रविवारीय » मर्द को भी दर्द होता है...!

मर्द को भी दर्द होता है...!

👤 manish kumar | Updated on:24 Nov 2019 5:09 PM GMT

मर्द को भी दर्द होता है...!

Share Post

र्द बेदर्द नहीं है कम से कम अपने देश में पांच दशक पहले बात कुछ और रही होगी इस दौर के मर्द तो तमाम दर्द एक साथ झेल रहे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के बारे में आपको पता है? सही जवाब। आखिर पता भी कैसे न हो। ढेरों विज्ञापन, टीवी पर और उससे बाहर भी सैकडों कार्यकम। तमाम तैयारियां, फ्रतियोगिता, पुरस्कार, भाषण सम्मान, जाने क्या क्या। तो आखिर अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस कब मनाया जाता है...। "ाrक से नहीं पता... याद नहीं...। पता ही नहीं। कोई बात नहीं। न तो यह करोड़पति बनाने वाला सवाल है और न ही किसी आईएएस जैसी परीक्षा का। कुछ बरस पहले अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ही यह चर्चा उ"ाr कि अंतर्राष्ट्रीय मर्द दिवस कब है?

पता चला कि एक कॉमेडियन हेरिंग की शुरुआत पर 19 नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जाता है। पुरुष अधिकारों की रक्षा के लिए मनाये जाने वाला यह दिवस शायद इसलिये बहुत मकबूल न हुआ हो कि पुरुष अधिकारों की रक्षा क्या करना, सारे अधिकार तो उन्हीं के पास हैं और रक्षा करने की स्वयंभू जिम्मेदारी भी। फिर पुरुष नहीं जताना चाहते कि उन पर कोई हावी है, वे भी फ्रताड़ित हो सकते हैं, वे भी सहानुभूति के पात्र हैं, उन्हें भी कानून, समाज, सत्ता, व्यवस्था, से मदद चाहिये। मर्द को दर्द कहां होता है। संभवतः पांच दशक पहले देश में मर्दों की वह फ्रजाति बहुतायत में रही हो जो दर्द देती हो जिसे दर्द नहीं होता हो लेकिन मौजूदा दौर के मर्द दर्द से लबालब हैं। पहले घर का मुखिया मर्द होता था, कमोवेश अब भी वही है,पर अब वो बू बाश कहां। अधिकतर मुखिया को मुंह की खानी पड़ती है, वो पिटता भी है। `सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन` के एक सर्वेक्षण ने बताया कि देश के 98 फीसदी पति अपने तीन साल के वैवाहिक जीवन में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं। मतलब पिता हो या पति सब पिटते हैं, अपना दर्द पीते हैं, किसी से नहीं कहते। इंफोसिस में साफ्ट्वेयर इंजीनियर रही दीपिका नारायण दहेज फ्रताड़ना कानून के तहत फंसाए गए पुरुषों को कानूनी मदद दिलाती हैं। औरतों के लिए लड़ने वाले तो बहुत हैं लेकिन पुरुषों के लिए कोई आवाज नहीं उ"ाता। फ्रताड़ित पुरुष अपने पुरुषत्व पर अपना दर्द बयां करने में उसी तरह शर्माते हैं जिस तरह महिलायें अपने निजी जीवन के उजागर होने अथवा स्त्राrत्वहरण में। पुरुष अपने दर्द अपने भीतर समोए हुये घुट रहे हैं। पुरुष बेरोजगारी, बीमारी, आर्थिक तंगी, कर्ज, जमीनी विवाद से तो मर ही रहे हैं, फ्रेम में असफल हुये तो आत्महत्या और सफल हुये तो शादीशुदा जीवन में कलह की वजह से खुदकुशी कर रहे हैं। ब्रिटेन में महिलाओं की तुलना में पांच गुना ज्यादा पुरुष आत्महत्या करते हैं,ऑस्ट्रेलिया में यह आंकड़ा साढे तीन गुना, अर्जेंटीना और रूस में चार गुना है। विश्व स्वास्थ्य संग"न ने 42 देशों यह पाया कि पुरुष आत्महत्या के लिये महिलाओं से ज्यादा मजबूर हैं। मंदी हो या बेरोजगारी हर तरफ से मर्द की ही मौत है। बेशक देश में पशुओं तक की सुरक्षा के विशेष कानून हैं,उनके फ्रति अत्याचार अनैतिक ही नहीं अनाधिकृत, दंडनीय है। लेकिन पुरुषों के लिए कोई विशिष्ट कानून नहीं है। महिलाओं पर अत्याचार के खिलाफ धरने में बहुत बार पुरुष भी शामिल होते हैं। पर सबके लिये आवाज उ"ाने वाले मर्द अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार को अव्वल तो फ्रदर्शित नहीं करते, शर्माते हैं और जब फ्रदर्शन भी करते हैं तो पुरुष ही उनके साथ नहीं खड़े होते। उनको झिझक होती है,शर्म होती है, लोकलाज होता है अथवा घर का भय अथवा यह सब कुछ। इस मामले में पुरुषों के साथ जब पुरुष ही नहीं खड़ा होता तो कंधे से कंधा मिलाकर साथ देने वाली महिलाओं का तो कहना ही क्या। कुछ समय पहले सेव इंडिया फैमिली फाउंडेशन ने कानून या किसी भी तौरपर फ्रताडित पुरुषों की मदद के लिये `सिफ' नाम का एक ऐप बनाया और एक हेल्पलाइन नंबर जारी किया, संस्था ने दावा किया कि हेल्पलाइन जारी होने के 50 दिन के भीतर उन्हें 16,000 से ज्यादा कॉल मिलीं। जाहिर है पुरुष फ्रजाति परेशानी में तो है पर सार्वजनिक तौरपर अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के विरोध में आवाज उ"ाने से कतराने वाले पुरुषों पर होने वाले अत्याचार ऐसे में कैसे रोके जा सकते हैं, जब तक वे स्वयं अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उ"ायेंगे या एक साथ नहीं आयेंगे। अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस जैसे आयोजन से कतरायेंगे। पिछली साल राष्ट्रीय पुरुष आयोग की मांग उ"ाr, मांगकर्ता भाजपा के सांसद थे।

तर्क था कि किसी ऐसे कमजोर समुदाय के हितों की रक्षा के लिए जो सदियों से उपेक्षित रहा हो और वर्तमान रूप में उनकी रक्षा नहीं हो पा रही है, आयोग बनाया जाता है। भले पुरुष सदियों से उपेक्षित और शोषित न रहा हो परंतु पिछले कुछ दशकों से तो फ्रत्यक्षतः वह शोषित है। जब से महिला सशक्तीकरण का दौर चला है है वह काफी कमजोर हो गया है, जब से औरतों के अधिकारों के लिए कानून बने हैं वह बुरी तरह फ्रताड़ित हुआ है। बेशक महिला सशक्तीकरण आवश्यक है और उनके लिये किये कानून भी पर इसका जमकर दुरुपयोग पुरुष के पक्ष में हो रहा है यह दुखद है।

दहेज फ्रताड़ना के मामलों में पूरे परिवार एवं रिश्तेदारों की गिरफ्तारी हो जाना आम है,तब जबकि 94 फीसदी लोग मुकदमे की सुनवाई के किसी भी दौर में दोषी नहीं पाए गए। यही नहीं, सुनवाई समाप्त होने के बाद 85 फीसदी आरोपी निर्दोष मिले। यह अन्याय नहीं तो क्या है ? दहेज फ्रताड़ना की धारा 498-ए को अमेरिका के जिस कानून से फ्रेरित बनाया गया,वह अमेरिका में जेंडर न्यूट्रल है पुरुषों की फ्रताड़ना के मामले भी बराबर की नजरिये से देखे जाते हैं। तलाक के बाद पत्नी द्वारा भत्ता न दिया जाना, घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों की आत्महत्याएं, पुरुषों पर लगे झू"s रेप केस पुरुष फ्रताड़ना के चंद नमूने हैं। खैर, महिला समर्थक कानून एकमात्र दर्द नहीं है मर्द के लिये।

घर बाहर हर जगह परेशान है पुरुष, घर और काम के बीच फंसकर रह गया है वह। हां, कामकाजी महिलायें भी फंसी हैं। इसी तरह पर पुरुष से उनकी क्या तुलना। पुरुष परिवार का मुखिया और कुनबे के दूसरे परिवारों के बीच संतुलनकारी सूत्र होता था जैसा उसके पिता या ताऊ करते आये थे, अब ऐसा नहीं हो पा रहा। पुरुष अपने वृहत्तर परिवार में जा ही नहीं पा रहा यहां तक कि वह माता पिता से दूर है। माता पिता पास हैं तो वह घर में पर्याप्त फ्रभाव और समयाभाव के चलते उनकी बेहतर देखभाल नहीं कर पा रहा, अगली पीढी में बेटों को भी ऐसा माहौल नहीं मिल पायेगा।

पुरुष अपने परिवार का रोल मॉडल नहीं बन पा रहा है,कुनबे का तो कहना ही क्या। पुरुष, बच्चों और परिवार के बुजुर्गों के बीच सैंडविच बन गया है। मां बाप बोझ और बच्चे भारी जिम्मेदारी,इनके बीच वह अपना जीवन होम किये दे रहा है। पुरुष को अपनी संतति खासतौर से बेटों से बहुत उम्मीदें हुआ करती थीं, अब हद से हद ग्रेज्युशन तक बेटे उसके साथ हैं फिर उच्च शिक्षा और नौकरी के लिये बाहर, शादी हुयी और जीवन से बाहर। पति पत्नी का रिश्ता बुरी तरह बदला है। वह जमाना भी बुरा था जब पत्नियां डरी सहमी फ्रत्यक्षतः दासी हुआ करती थीं और आज भी यह "ाrक नहीं कि पुरुष अफ्रत्यक्षतः इस भूमिका में हों।

कामकाजी महिलाएं बढी हैं उसी अनुपात में पुरुषों और पतियों के फ्रति लापरवाही भी। सबसे बड़ी बात मर्दों की यारबाशी मर गयी। कॉलेज से लेकर कामकाजी तक मर्दों की दोस्ती का वो जमाना अब न जाने कहां चला गया। मुहल्लों में मिलते हंसी, "ठ्ठा, गहरे अर्थों वाले मजाक और मर्दानगी वाले किस्से,शौक, शगल, महफिलें सब बिला गईं। भयभीत, वक्त के मारे मर्द घर घुसरू हो गए हैं। अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाने कौन निकले। सच तो यह है कि पुरुष दिवस वाकई संसार भर के 43 देशों में मनाये जाने के बावजूद बहुत मशहूर नहीं है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस का यह बस दसवां साल है इतने बरसों में उसे पर्याप्त लोकफ्रिय हो जाना चाहिये था, पर न हुआ, तब जबकि यह माना जाता है कि संसार में अभी भी पुरुषों का ही वर्चस्व है और सारा निजाम उनके ही हाथों में है। कोई डे या दिवस सेलीब्रेशन के अलावा इसलिये भी मनाये जाते हैं कि उसके बारे में जागरूकता फैले, उससे जुड़ी समस्याओं पर नजर जाये, उनके समाधानों पर बात हो, बेहतरी हो, विकास हो। इस आधार पर माना जा सकता है कि पुरुषत्व अब भी किसी सेलीब्रेशन की भी वजह नहीं,अमूमन आज भी पुरुष खल और कामी ही दर्शाये जाते हैं। पुरुषों के पास कोई खास समस्या नहीं है, इसको किसी समाधान की आवश्यकता नहीं है। पुरुष दिवस मनाने का कोई अर्थ नहीं क्योंकि मर्द बेदर्द है, मर्द को कोई दर्द नहीं है पर दरअसल है इसका उलटा। आज यह तथ्य अगर समझ में नहीं आता तो कुछ दशक बाद पुरुष अपनी अहमान्यता भुलाकर बहुत धूम धाम से अपना दर्द सुनाता हुआ पुरुष दिवस मनाता मिलेगा,तब उसके पास अपने दर्द की वजह बताने, उसकी वजहों को दूसरे के सिर डालने का तर्क और बहाना दोनों मौजूद होगा।

Share it
Top