अपनी चमक क्यों खो रही है ड्रैग-फ्लिक?
धुनिक हॉकी को ड्रैग-फ्लिक से अधिक किसी अन्य चीज ने फ्रभावित नहीं किया है। पेनल्टी कार्नर से इस तेज रफ्तार गोल करने के तरीके की शुरुआत ऑस्ट्रेलिया के जे स्टेसी ने 1980 के दशक के अंत में की थी और यह बहुत तेजी से गोल करने का सबसे सफल तरीका बन गया। हद तो यह है कि 1998 के पुरुष विश्व कप में तकरीबन आधे गोल ड्रैग-फ्लिक से किये गये थे। उस समय तक दुनियाभर में हर टीम कम से कम एक समर्पित ड्रैग-फ्लिकर को अपना सदस्य बनाने लगी थी । ड्रैग-फ्लिकर हॉकी के नये हीरो बन गये (भारत के पूर्व कप्तान संदीप सिंह ने तो अपने ट्विटर हैंडल का नाम ही/फ्लिकरसिंह रख लिया)। यही वजह है कि हॉकी में सभी टॉप स्कोरर पेनल्टी कार्नर विशेषज्ञ हैं और पाकिस्तान के सोहेल अब्बास 348 गोलों के साथ टॉप पर हैं।
लेकिन भारत में पिछले साल हुए पुरुष विश्व कप ने आंकड़ों की एक अलग ही तस्वीर पेश की । 24 ग्रुप स्टेज मैचों में 167 पेनल्टी कार्नर अवार्ड किये गये थे, जिनमें से सिर्फ 40 गोल में बदले यानी परिवर्तन दर मात्र 23.9 फ्रतिशत रहा। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि ड्रैग-फ्लिक अपनी चमक खोती जा रही है। दरअसल, यह ट्रेंड सबसे पहले रिओ ओलंपिक 2016 में देखने को मिला। विशेषज्ञों का कहना है कि पेनल्टी कार्नर पर स्कोर करना निरंतर क"िन होता जा रहा है। हालांकि परिवर्तन दर पर कोई तुलनात्मक डाटा उपलब्ध नहीं है लेकिन दुनियाभर के कोच व टीम फ्रबंधकों ने इस बदलते ट्रेंड को नोटिस किया है। भारत के मुख्य कोच ग्राहम रीड का कहना है कि पेनल्टी कार्नर का परिवर्तन दर पहले तीन में से एक था, जो अब पांच में से एक या छह में से एक हो गया है। सवाल यह है कि ड्रैग-फ्लिकर पहले की तरह गोल क्यों नहीं कर पा रहे हैं?
इसकी एक वजह तो यह है कि रशर (पेनल्टी कार्नर लिए जाते समय रक्षा पंक्ति के जो खिलाड़ी गेंद को ब्लाक करने के लिए तेजी से भागते हैं) का सुरक्षात्मक उपकरण बहुत एडवांस हो गया है। क्लेअट्स, शिन व नी गार्ड, माउथ गार्ड, ग्लव्स, ग्रोइन कप्स और मास्क ने रशर को निडर बना दिया है। हो यह रहा है कि रशर बड़े दस्तानों के साथ दौड़ते हैं, कुछ तो आइस हॉकी के दस्ताने फ्रयोग करते हैं जो पक्स के लिए इस्तेमाल होते हैं। 200 किमी फ्रति घंटा की रफ्तार से मूव करते हैं और उनकी तेज धार होती है। इससे रशर को अधिक बहादुरी का एहसास होता है। कुछ तो मोटे शिन पैड पहनकर मास्क के साथ दौड़ते हैं। साथ ही गोलकीपिंग का उपकरण भी बदल गया है। कहने का अर्थ यह है कि बेहतर सुरक्षा से रशर में फ्लिकर को तेजी से अटैक करने का साहस आ गया है और वह इतने आाढामक हो गये हैं कि गोल बचाने के लिए लाइन ऑफ अटैक में अपना शरीर बीच में ले आते हैं। इस स्किल और साहस की आज बहुत मांग है।
अब पेनल्टी कार्नर डिफेंस पर विशेषरूप से कड़ी मेहनत की जा रही है। खिलाड़ी समझने लगे हैं कि उन्हें इस कारण से टीम में शामिल किया जा रहा है। अमित रोहिदास को ही लें,वह विश्व में सबसे अच्छे रशर में से एक हैं और उनका टीम में चयन विशेषरूप से इसी स्किल के लिए किया जाता है,हालांकि उनमें और भी गुण हैं। रशर होना अन्य स्किल की तरह ही महत्वपूर्ण हो गया है। इसमें सीमा पर लड़ रहे सैनिक जैसा ही साहस चाहिए। टीम में उसके लिए जगह नहीं जो इस जिम्मेदारी से पीछे हट जाये। यह टीम के लिए कमिट होना है। वीडियो समीक्षा से भी रशर को लाभ हुआ है। हर टीम अपने फ्रतिद्वंदी के खेल को पढ़कर मैदान में उतरती है। वह जानती है कि सबसे अच्छे ड्रैग-फ्लिकर कौन हैं,उनकी विविधता क्या है और उन्हें किस तरह से काउंटर किया जाये कि गोल न हो। रशर को बता दिया जाता है कि वह किस फ्लिकर को अटैक करेंगे।
हॉकी स्टिक में भी जरूरत के हिसाब से परिवर्तन किये गये हैं। ड्रैग-फ्लिकर अपनी पसंद की स्टिक तैयार कराने लगे हैं, जिनमें शाफ्ट के बो की डिग्री अधिक होने लगी, जिससे बहुत तेज स्पीड उत्पन्न होती है। बो जब लगभग 80 एमएम तक होने लगा तो खेल फ्रबंधकों ने हस्तक्षेप किया और अब इसे 25 एमएम निर्धारित कर दिया गया है,जिससे जिस कोण से गेंद को अपने पीछे से पिक किया जाता है वह अधिक नहीं है। अब स्पीड जनरेट करने के लिए शरीर पर अधिक दबाव डालना पड़ता है। हालांकि परिवर्तन दर में कमी आने के बावजूद पेनल्टी कार्नर का अब भी महत्व है और 18 के दल में कम से कम तीन ड्रैग-फ्लिक विशेषज्ञ होते हैं। इनमें से जो अच्छे हैं वह अब भी अपने अधिकतर अवसरों को गोल में बदल देते हैं।
मसलन, आज 27 वर्षीय गोंजालो पिल्लट सबसे अच्छे ड्रैग-फ्लिकर माने जाते हैं,वह 2014 विश्व कप में टॉप स्कोरर (दस गोल) थे जिससे अर्जेंटीना ने पहली बार कांस्य पदक जीता,इसके दो वर्ष बाद वह फिर टॉप स्कोरर (11 गोल) थे और अर्जेंटीना को रिओ ओलिंपिक में स्वर्ण पदक दिलाया। लेकिन इस ड्रैग-फ्लिकर पर अत्याधिक निर्भरता के कारण अर्जेंटीना 2018 के विश्व कप में क्वार्टर फाइनल में ही बाहर हो गई थी।
लेकिन अगर आप पिछले 20-30 साल के इतिहास को देखें तो विश्व कप व ओलंपिक के सेमी-फाइनल व फाइनल अधिकतर पेनल्टी कार्नर के आधार पर ही तय हुए हैं। इसलिए आज भी हर टीम चाहती है कि उनकी टीम में कम से कम एक गोंजालो पिल्लट हो जो उन गैप्स को तलाश कर ले जिन्हें कोई दूसरा तलाश नहीं कर पाता है।