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हम क्या जवाब दें

👤 manish kumar | Updated on:18 Dec 2019 11:53 AM GMT

हम क्या जवाब दें

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श के तमाम नगरों में बनते जा रहे हैं नर वानर युद्ध के आसार, जनता बेजार, सरकार लाचार, किसी की समझ नहीं आ रहा कि इससे निबटने का क्या रास्ता करें अख्तियार।

मथुरा की गलियों में एक बंदर मुझ पर अनायास ही खों खों किये जा रहा था। मैं भारतीय संसद द्वारा जारी एडवाइजरी का अक्षरशः पालन कर रहा था लेकिन बंदर था कि मानता नहीं। बंदर किसी को भी इज्जत नहीं देते। कोई किसी भी जात का हो कितना ताकतवर राजनेता हो अथवा धनपति। वो वैंकैया नायडू हों या राज्यसभा के सांसद राम कुमार कश्यप, दिल्ली के मेयर रह चुके एसएस बाजवा हों या फिर ताकतवर केंद्रीय मंत्री मनोहर पार्रीकर। जिन्हें साउथ ब्लॉक में आवाजाही के लिये दो सशस्त्र जवानों का सहारा लेना पड़ा था। अचानक मुझे बंदर से बचाव के लिये योगी आदित्यनाथ का यहीं बगल के वृंदावन में दिया रामबाण फार्मूला याद आ गया कि बंदर के आतंक से बचना है तो हनुमान चालीसा पढो। मुझे उससे लाभ हुआ मैं डरते, दुबकते, सरकते बढ़ चला था कि इसी दौरान अचानक एक बंदर ने पीछे से आकर कंधे पर हाथ रखा, मेरे मुड़ने से पहले वह मेरा चश्मा निकालकर पेड़ पर था। लोगों ने शोर मचाया और सलाह दी कि कुछ खाने को दीजिये, वापस दे देगा। सुझाव सफल रहा। मेरा चश्मा लौट आया। पर यहीं बगल में आगरा के रुनकता कस्बे की नेहा का बेटा कभी नहीं लौटा। वो घर के भीतर अपने 12 दिन के नवजात को दूध पिला रही थी कि अचानक एक बंदर घुसा और बच्चे को गोद से छीनकर भागा, लोगों का शोर सुनकर बहुत ऊंचाई से उसे फेंक दिया, बच्चा नहीं बचा। धर्मपाल की हत्या का आरोपी चश्मदीदों की गवाही के बावजूद आज तक फरार है। आरोपी ने खासी उंचाई से बीसियों ईंटे फेंककर धर्मपाल को मारे जिससे पहले तो उसकी टांग टूटी फिर मौत हो गई। दोघाट थाने के स्टेशन ऑफिसर तो किसी भी बंदर के खिलाफ केस भी रजिस्टर नहीं कर पाये। सन 2007 में दिल्ली के डिप्टी मेयर एसएस बाजवा बंदर की वजह से ही बॉलकनी से गिरकर मारे गये थे।

जब बराक ओबामा आये थे बहुत से लोग उनके काफिले के रास्ते में गुलेल, ड़डे, झाड़ू लिये खड़े थे ताकि बंदर काफिले में न घुस जायें। होम मिनिस्ट्री से 1100 अति महत्वपूर्ण फाइल बंदर ले गये जो उन्होंने कभी नहीं लौटाईं। राज्यसभा के सांसद महोदय पर बंदरों ने हमला किया, बेटे को काट खाया, उन्होंने उपराष्ट्रपति से गुहार लगाई, उपराष्ट्रपति ने माना कि वे भी इस समस्या से परेशान हैं। बंदरों पर काबू पाना फ्रचंड बहुमत वाली सरकार के लिये भी क"िन साबित हो रहा है, ऐसे में संसद ने एक एडवाइजरी जारी की। जो, बंदरों के लिये नहीं, सासंदों और दूसरे लोगों के लिये है। कुल मिलाकर बंदरों की पकड़-धकड़ और नसबंदी से लेकर तमाम उपाय फेल रहे हैं। सांसद तो बंदरों से बच भी जायें पर आम आदमी क्या करे। बंदर कपड़े फाड़ देते हैं, खाने का सामान उ"ा ले जाते हैं, बंदर अब लोगों से छीनकर खाने लगे हैं। पेड़-पौधे नोचकर गमले तोड़ देते हैं। टीवी का डिश हिला देते हैं जो महंगा पड़ता है। बंदरों के काटने से बहुतों को रेबीज हो रहा है। बंदर अस्पताल में घुसकर मरीज तो क्या नर्स और डॉक्टर को काट रहे हैं। 2028 में दिल्ली में मंकी बाइट के 950 केस रिकॉर्ड किये गये। आगरा, गोरखपुर, बेगूसराय, हापुड़ हर कहीं बंदरों का आतंक है। शिमला में एक दिन में 400 मामले बंदर काटने के आये। हिमाचल में तो बंदर चुनावी मुद्दा होता है। हिमाचल सरकार ने दशक पहले बंदरों को मारने का आदेश दिया। हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी अब यहां बंदरों को मारना फिर कानूनन मान्य है। बंदरों की नसबंदी केंद्र बनाने और अब तक इनकी मद में 50 करोड़ फूंकने के बाद यहां समस्या जस की तस है। दिल्ली में भी अगर बंदरों का बधियाकरण अभियान चलाना है तो तकरीबन इतना ही खर्चना होगा।

देश बंदरों से परेशान है। जब भी वायु फ्रदूषण या बंदरों की बात होती है दिल्ली लपककर आगे हो जाती है पर सच तो यह है कि कमोबेश समूचा देश इनके उत्पात से ग्रस्त है। नागपुर, मेर", लखनऊ, आगरा, लुधियाना, जयपुर सभी हलकान हैं। देश में शहरों में मानव आबादी के आसपास 5 करोड़ से ज्यादा बंदर मौजूद हैं। जंगलों में थोड़े ही बचे हैं। गांवों वालों से ज्यादा तेज तो बंदरों का जंगल से पलायन है। देश में 5 करोड़ बंदरों की आबादी एक देश की आबादी के बराबर है। ये बहुसंख्यक बंदर अब हमारे आर्थिक स्रोतों, कानून व्यवस्था, पशु कल्याण कार्पामों, रहन सहन, खेती किसानी और सामाजिक, राजनीतिक मामलों में भी असर डालने लगे हैं। बंदरों की वजह से खेती, किसानी, फसलों को सालाना 225 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हैं। हर रोज करीब 2,500 किलोग्राम सब्जी और फल जैसे केला, अमरूद, खीरा, टमाटर और भुट्टा असोला के बंदर अभयारण्य में खप जाता है। पर इस आतिथ्य के बावजूद बंदर यहां से निकलकर रिहाइशी इलाके में पहुंच जाते हैं। इस तरह की परिस्थितियों से नगरों में नर वानर युद्ध जैसी नौबत आने वाली है। अभी इन्हें धार्मिक कारणों से कोई नहीं मारता पर जब बात अस्तित्व की आ जायेगी तो लोग मजबूर हो जायेंगे। हालांकि हिंसा का किसी भी स्तर पर हिंसा कोई इलाज नहीं है फिर, आखिर चूहे भी मारते ही हैं लोग।

दिल्ली में बंदरों से निपटने की कोशिश 90 के दशक से ही चल रही है। पांच बरस पहले करीब 40 लोगों को लंगूर जैसा बनकर संसद भवन परिसर में बंदर भगाने को तैनात किया गया था। ये मानव लंगूर की आवाज निकालकर बंदर भगाते, पर कामयाबी न मिली। मानव लंगूर की जगह असली लंगूर लाये गये, पर बात बहुत नहीं बनी। पिंजरे लगाये गये। बंदर नहीं फंसा। बंदर पकड़ने वाले पेशेवरों ने भी तौबा कर लिया। इमारतों के जंगल में कहीं भी चढ़ जाने वाले बंदर पकड़ना किसी डकैत को पकड़ने से ज्यादा मुश्किल है। बंदर पकड़ने वाले पुलिस और एनीमल राइट वालों से भी खौफ खाते हैं, जिनका कहना होता है कि पकड़ रहे हो तो पूरे परिवार को पकड़ो। बच्चा पकड़ लिया तो वह बिन मां कैसे रहेगा। पकड़ लिये जाये तो बंदर कहां भेजे जायें। रबर बुलेट से यहां तक कि बंदरों को गुलेल से मारने पर भी रोक है। लंगूर के जरिये से बंदर भगाने को पहले ही मना किया जा चुका है।

जंगलों का मानवीय अपामण ही बंदरों के आाढमण की वजह है। वन विभाग फलविहीन `मोनोकल्चर फॉरेस्ट' लगाता है। इससे वन विभाग को टिम्बर मिलता है लेकिन शाकाहारी जीवों को कुछ नहीं। इसलिये बंदर शहरों में आ गये। बंदरों को इंसानी बस्ती से निकलने के लिये उसको उनका फ्राकृतिक घर वापस देना होगा। यहां उनको उचित वातावरण, पर्याप्त सुविधा देनी होगी वरना खाना मिलने के बावजूद वे दोबारा इंसानी बस्ती में चले आएंगे। एक और महत्वपूर्ण बात यह कि बंदरों को वाइल्डलाइफ फ्रोटेक्शन एक्ट 1972 से बाहर निकालना होगा। बंदर इस एक्ट के तहत एक संरक्षित वन्य फ्राणी है। यह बंदर समस्या के निबटान में बड़ी बाधा है। देश के ज्यादातर बंदर शहरी हो गये फिर उन्हें जंगली होने का लाभ देने से क्या फायदा। फिलहाल एक गर्भनिरोधक इजेक्शन विकसित हो रहा इससे बंदर संख्या पर रोक लगेगी। एक विशेषज्ञ का कहना है कि हर बंदर समूह का एक फ्रधान होता है।

फ्रधान हमेशा पूंछ उ"ाकर चलता है। अगर फ्रधान बंदर की पहचान करके उसे हटा दें तो पूरा समूह खुद-ब-खुद हट जाएगा।

बॉक्स-केला "ाrक नहीं बंदरों के लिये

बंदरों को केला पसंद होता है, साबित हो चुका है। लेकिन यह बंदर का फ्राकृतिक भोजन नहीं है, उसको बहुत नुकसान पहुंचाता है। यह उसके लिये कुछ ज्यादा ही मी"ा होता है। सोचिये, जंगल में इन्हें केला कहां से मिलेगा। न कोई दुकान न ही केले का कोई जंगल। केला तो आबादी में उपजता है। केले तो शहरी बंदर खाते हैं, जंगली बंदर इन्हें पसंद नहीं करते। इंग्लैंड के चिड़ियाघर ने बंदर को केले खिलाने पर फ्रतिबंध लगा दिया है। इसके खाने से उनके दांत खराब हो रहे थे और उनमें डायबिटीज जैसे लक्षण दिखने लगे थे। बंदर को मूंगफली खिलाना तो समझ में आता है पर केला खिलाना उसके फ्रति अपराध है। बंदर सबकुछ खा जाते हैं फल, फूल, पत्ते बीज, कीड़े, अंडे और मांस भी। जो बंदर फ्राकृतिक तौरपर फल और पत्ते खाता है, वो आज पका और फ्रोस्सेस्ड खाना खा रहा है। हमारे शहरों में कचरा फ्रबंधन इतना खराब है कि बंदरों को आसानी से खूब बचा-खुचा खाना मिल रहा है। वे अपनी सीमा से ज्यादा ही खा रहे हैं, इन्हें अपनी तरफ से केले, ब्रेड या दूसरी चीजें खिलाकर इनका हौसला मत बढ़ाइये।

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