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जॉन लॉकवुड किपलिंग

👤 manish kumar | Updated on:23 Dec 2019 11:57 AM GMT

जॉन लॉकवुड किपलिंग

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गल बुक वाले रुडयार्ड किपलिंग से तो आप भलीभांति परिचित होंगे, अगर ज्यादा नहीं तो इतना तो जानते होंगे ही कि मोगली जैसे पात्र के रचयिता वही किपलिंग हैं। यह अलग बात है कि कुछ इसी तरह की पुस्तकों व कहानियों का परिणाम रहा कि बहुत से यूरोपियनों की नजर में भारत सिर्फ संपेरों, जादूगरों व गरीबों का देश बनकर रह गया। वैसे देखा जाए तो इसमें कुछ योगदान उनके पिता के कुछ रेखांकनों का भी है। जिसे उन्होंने रुडयार्ड की पुस्तकों के लिए तैयार किया था। लेकिन यहां जिस तथ्य को हम नजरअंदाज कर जाते हैं वह यह कि इनमें से अधिकांश चित्रांकन जो हमें दिखता है, वह कथा- कहानियों से जुड़ा है अतः इसके अंकन में कल्पनाशीलता का सहारा लिया गया है। जबकि लॉकवुड के बारे में विस्तृत जानकारी आम लोगों तक तो "ाrक से नहीं ही पहुंच पायी है, यहां तक कि कलाजगत में भी उनके बारे में अपेक्षित जानकारी का अभाव सा दिखता है। इन स्थितियों में कलागुरु लॉकवुड के योगदान की चर्चा आवश्यक हो जाती है। वैसे जॉन लॉकवुड किपलिंग (1837-1911) द्वारा पुस्तकों के लिए किए गए रेखांकनों के माध्यम से हमें उस दौर के भारत और भारतीय समाज को जानने समझने में भरपूर मदद भी मिलती है। कलाकार व कलागुरु लॉकवुड किपलिंग का जन्म नॉर्थ-यॉर्कशायर इंग्लैंड में हुआ था।

साल 1865 में अपनी पत्नी एलिस के साथ लॉकवुड किपलिंग का भारत आगमन हुआ। जहां तत्कालीन बंबई के सर जे.जे स्कूल ऑफ आर्ट एंड इंडस्ट्री में उन्हें फ्राध्यापक नियुक्त किया गया। हालांकि देश में अंग्रेजी पद्धति से शुरू हुए अन्य कला विद्यालयों की तरह इस कला विद्यालय का मुख्य उद्देश्य भी भारतीय छात्रों को विशुद्ध पश्चिमी शैली की कला में शिक्षित व दीक्षित कराना था। किन्तु हुआ कुछ ऐसा कि किपलिंग स्वयं भारतीय कला एवं शिल्प से अत्यंत फ्रभावित होते चले गए। आगे चलकर इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने पा"dपाम में स्थानीय फ्रभाव व कला शैलियों तथा शिल्पों को शामिल करने की पैरोकारी करनी शुरू कर दी या यूं कहें कि वे कला शिक्षा में स्थानीय कला एवं शिल्प पद्धतियों के समावेश के पक्षधर बन गए। शुरू में तो इनकी इस पेशकश को गंभीरता से नहीं लिया गया। किन्तु बाद में वर्ष 1870 में उनके इस अनुरोध को मानते हुए, उन्हें तत्कालीन पंजाब, उत्तर पश्चिमी भारत और कश्मीर की यात्रा की अनुमति दी गयी। इस शर्त के साथ कि वे वहां की स्थानीय कला एवं शिल्प पद्धतियों का गहन अध्ययन व दस्तावेजीकरण करके, उसके व्यावसायिक उपयोग की संभावनाओं की खोज करें। वस्तुतः ब्रितानी हुकुमत द्वारा भारत में कला विद्यालयों की शुरूआत का एक मुख्य उद्देश्य कहीं ना कहीं व्यापार की संभावना को बढ़ाने में सहायक हो सकने वाले फ्रयास ही थे। ऐसे विवरण मिलते हैं कि तब इन कला विद्यालयों में स्थानीय बढ़ई, लुहार व बुनकर जैसे पेशे से जुड़े लोगों को ब्रितानी ग्राहकों की पसंद की चीजों को तैयार करने की ट्रेनिंग दी जाती थी यानी भारतीय हुनरमंदों के हुनर का उपयोग कर यूरोपीय बाजारों के लिए उत्पाद तैयार कराने के केंद्र के रूप में इन तथाकथित कला विद्यालयों की स्थापना की गयी। यह वह दौर था जब यूरोपीय समाज भारतीय शैली व भारत से परिचित होने को काफी उत्सुक रहा करता था। ऐसे में किपलिंग द्वारा भारतीय विषयों यथा बढ़ई, सुनार, बुनकर व लुहार तथा अन्य पेशे से जुड़े लोगों के ब्योरेवार विवरण वाले चित्रों की यूरोप में मांग बढ़ती गयी। यहां तक कि 1880 में साउथ केंसिंगटन म्यूजियम जो अब विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम के नाम से जाना जाता है के स्थायी संग्रह में इन चित्रों को रखे जाने से पहले दुनिया भर की अनेक फ्रदर्शनियों में इसे फ्रदर्शित किया गया।

यह वह दौर था जब बंबई शहर तेजी से आर्थिक फ्रगति कर रहा था। सूती वस्त्र उद्योग यहां फल फूल रहा था और इस आर्थिक समृद्धि की देन के फलस्वरूप शहर में जगह जगह नव गोथिक शैली के बड़े-बड़े भवनों व रेलवे स्टेशनों का निर्माण हो रहा था। किपलिंग ने अपने शिष्यों के साथ मिलकर इन भवनों को अलंकृत टाइलों आदि की मदद से साज सज्जा में अभूतपूर्व योगदान दिया। बंबई में इनके इस फ्रवास के ाढम में 1865 में ही रुडयार्ड किपलिंग का जन्म हुआ। 1875 में लॉकवुड किपलिंग तत्कालीन पंजाब की राजधानी लाहौर जा पहुंचे, मेयो स्कूल ऑफ इंडस्ट्रियल आर्ट (वर्तमान में नेशनल कॉलेज ऑफ आर्ट) के फ्राचार्य के तौर पर। साथ ही वे लाहौर संग्रहालय में बतौर क्यूरेटर अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते रहे।

मेयो कॉलेज में रहने के दौरान उन्होंने जर्नल ऑफ इंडियन आर्ट एंड इंडस्ट्री नामक पत्रिका का संपादन भी किया। इस पत्रिका की छपाई में उस समय उपलब्ध रंगीन फ्रिंटिंग की नवीनतम तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। जिसमें मेयो कॉलेज के छात्रों के रेखाचित्र व चित्र भी फ्रकाशित किए जाते रहे। इतना ही नहीं लाहौर आकर किपलिंग अपने छात्रों को वहां की सिख एवं मुगल वास्तुशिल्प और कला के अध्ययन को फ्रेरित करने लगे। इसी ाढम में एक घटना ऐसी हुई जिसके बाद उन्होंने एंटीक वस्तुओं के संरक्षण पर अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू किया। हुआ यह था कि किसी स्थानीय व्यापारी की पुरानी हवेली को तोड़कर नया बनाया जा रहा था। जिसमें लगी एक अलंकृत खिड़की को किपलिंग ने लंदन के संग्रहालय के लिए भेज दिया। उसके बाद उनके पास इस तरह की एंटीक वस्तुओं की फरमाइशें आने लगीं, ऐसे में उन्होंने अपने छात्रों की मदद से इस तरह की वस्तुओं की फ्रतिकृतियां और छायाचित्र (फोटोग्राफ) बनवानी शुरू कर दीं। दरअसल इसके पीछे उनका मुख्य उद्देश्य यह था कि मूल कृतियां अपने मूल स्थान पर ही रहें।

दरअसल भारतीय वस्तुओं के फ्रति ब्रितानियों व यूरोपियनों के दीवनगी की शुरूआत 1851 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा वहां आयोजित की गयी उस फ्रदर्शनी से हो गयी थी। जिसमें भारतीय वस्त्राsं, आभूषणों, फर्नीचरों, गलीचों व अन्य शिल्प उत्पादों को फ्रदर्शित किया गया था। विदित हो कि ईस्ट इंडिया कंपनी का ग"न यूरोपीय व्यापारियों के द्वारा भारत जैसे मुल्कों के साथ व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ही किया गया था। ऐसे में उनका मुख्य उद्देश्य कहीं ना कहीं यहां की वस्तुओं के लिए यूरोप में बाजार ढूंढना ही था। बहरहाल अपने स्कूली दिनों में किपलिंग को यॉर्कशायर में इस तरह की फ्रदर्शनी को देखने का अवसर मिला था। समझा जाता है कि किशोरावस्था में देखी गई उन कृतियों का गहरा फ्रभाव कलाकार किपलिंग पर आजीवन बना रहा। संभवतः इन्हीं कारणों से उन्होंने लगभग 28 इस तरह की फ्रदर्शनियों का आयोजन कलकत्ता से लेकर यूरोप के अनेक शहरों में किया। भारतीय विषयों पर उनकी गहरी पकड़ और शैली की समझ का एक फायदा किपलिंग को यह मिला कि उन्हें महारानी विक्टोरिया के लिए दरबार हॉल तैयार करने जैसे कई महत्वपूर्ण कार्य भी सौंपे गये। जिसे 1891 में अपने एक पूर्ववर्ती शिष्य भाई राम सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंजाम दिया। भारत से अपने अगाध फ्रेम और लगाव के बावजूद स्वास्थ्य में लगातार आ रही गिरावट ने किपलिंग को इंग्लैंड वापसी के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया। अंततः 1893 में अपनी उम्र के 56 वें साल में सेवानिवृति लेकर किपलिंग वापस इंग्लैंड चले गए जहां 1911 में उनका निधन हो गया। किन्तु अपने अनेकों निर्माणों व चित्रों के अलावा कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के लिए बनाए गए आवरण व रेखांकनों के माध्यम से उन्होंने भारत की छवि को दुनिया भर में पहुंचाया। यह अलग बात है कि अक्सर उनके महत्वपूर्ण योगदान को समझे बिना हम अपने जेहन में उनसे जुड़ी कोई नकारात्मक छवि बना लेते हैं।

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