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बेड़िया जनजाति, पुरुष बेटियों से कराते हैं जिस्मफरोशी

👤 Admin 1 | Updated on:9 April 2017 4:49 PM GMT

बेड़िया जनजाति, पुरुष बेटियों से कराते हैं जिस्मफरोशी

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एन.के.अरोड़ा

राजस्थान के भरतपुर जिले के अंतर्गत आने वाले गांव पंछी कानंगला में उस समय हाहाकार मच गया जब 11 और 13 साल की दो लड़कियां जो वहां के एक स्थानीय स्कूल में पढ़ती थीं, की तालाब में डूबने से मौत हो गई। पुलिस सूत्रों की मानें तो इन लड़कियां से जबरन वैश्यावृत्ति करायी जा रही थी, पुलिस को जब इनके बारे में सूचना मिली तो उसने छापा मारा, यह दोनो लड़कियां पुलिस की गिरफ्त से खुद को बचाने के लिए पास के ही एक तालाब में जाकर छुप गई। उन्होंने पानी में जब डुबकी लगायी तो आसपास बहुत भीड़ जमा थी, डर के मारे वह पानी के भीतर ही अपने को छुपाये रखने के लिए वह काफी समय तक पानी में डूबी रहीं और उनकी मौत हो गई। यह लड़कियां बेडिया जनजाति की थीं, जिनके बारे में कहा जाता है कि बेडिया जनजाति की लड़कियां अपने घर और परिवार के लोगों का पेट पालने के लिए वेश्यावृत्ति करती हैं और इनसे वेश्याववृत्ति कराने का काम इनके भाई और पिता करते हैं, जो इनके लिए ग्राहक ढूंढ़कर लाते हैं।

हाल फिलहाल तक हाईकोर्ट द्वारा मामले की जांच का आदेश दिया गया है, लेकिन इतना तय है कि वेश्यावृत्ति के इस जाल से निकलने, पढ़ लिखकर किसी सम्मानित पेशे को अपनाने का उनका यह सपना हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गया।

बेडिया जनजाति मध्यप्रदेश की एक ऐसी जरायमपेशा जाति है, जो लड़कियों से सदियों से वेश्यावृत्ति कराते हैं। बेडिया की तरह ही बचड़ा, कंजर, सासी और नट तमाम ऐसी जनजातियां हैं जो इस पेशे को अपनाये हुए हैं और राजगढ़, शाहजहांपुर, गुना, सागर, शिवपुर, मुरैना, शिवपुरी सागर और विदिशा में इनका अच्छा खासा नेटवर्क फैला हुआ है, यहां से लड़कियां देश के अलग-अलग हिस्सों में खासतौर पर उत्तर प्रदेश के मेर", आगरा और राजस्थान वेश्यावृत्ति के बाजारों में भेजी जाती हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश के लगभग 16 जिलों में लगभग 18,000 बेडिया जनजाति के लोग फैले हुए हैं। मूलरूप से यह नृत्य और संगीत, काला जादू के काम से जुड़ी ऐसी जनजाति है, जो घर की बड़ी बेटी से वेश्यावृत्ति कराकर अपना गुजारा चलाते हैं। लेकिन उनका यह धंधा अब इस कदर फल फूल रहा है कि आजकल बेडिया लड़कियां दिल्ली और मुंबई और दूसरे बड़े शहरों के रेट लाइट एरिया में इस धंधे को करती हैं।

बेडिया समाज सुधार संघ के अध्यक्ष डॉ. अशोक सिंह बेडिया के शब्दों में `बेडिया जनजाति की लड़कियां आज पढ़ लिखकर बड़ी-बड़ी नौकरियां कर रही हैं, लेकिन उनकी स्थिति संतोषप्रद नहीं है; क्योंकि अगर बेडिया पुरुष इस काम को छोड़कर कुछ दूसरे काम करना चाहें तो सरकारी सहयोग न के बराबर है। सरकार केवल उनकी मदद करने का ढकोसला भर करती है। हां, इतना जरूर है कि प्राइवेट स्कूलों में लड़कियां पढ़ लिख रही हैं और सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों की संख्या इनकी संख्या के हिसाब से बहुत कम है। स्थिति में काफी फर्क आया है। स्वयं सेवी संस्थाएं भी अपने स्तर पर काम कर रही हैं लेकिन वे सिर्फ रिसर्च वर्क करके इस जनजाति से संबंधित सर्वे ही करते हैं।' बेडिया जनजाति के उत्थान में मुरैना के राम स्नेही का अदभुत योगदान है, `उन्होंने अपनी जनजाति की लड़कियों के लिए बहुत कुछ किया है। उन्हें इस धंधे से बाहर निकाला है और उन्हें पढ़ लिखकर दूसरे काम करने के लिए कई प्रयास किये हैं।'

बेडिया जनजाति के बारे में यह कहा जाता है कि साल 1631 में मुमताज महल की मौत के अगले साल से ताजमहल बनना शुरु हो गया। इसके लिए ताजमहल के मुख्य आर्किटेक्ट उस्ताद अहमद लाहौरी समेत हजारों मजदूरों को दूर-दूर से बुलाया गया। बेडिया जाति के लोग दावा करते हैं कि ताजमहल को बनाने में जुटे राज मिस्त्रियों का दिल बहलाने के लिए बादशाह ने बेडिया जाति की वेश्याओं के छह गांव बसाये थे और करीब 21 साल तक ताजमहल बनता रहा और बेडिया जाति के ये गांव जिस्म फरोशी करके राज मिस्त्रियों का दिल बहलाते रहे। 21 साल के इस अरसे में एक पीढ़ी गुजर गई थी। आगरा के इतिहासविद वीरेश्वर नाथ त्रिपा"ाr के मुताबिक `बेडिया जाति के लोग इन 21 सालों में पूरी तरह जिस्म फरोश बनकर रह गये हैं। इसके पहले नाच गाना गाकर अपना पेट भरते थे, लेकिन आगरा में बेडिया जाति के लोगों को सिर्फ और सिर्फ जिस्म फरोशी के लिए जाना जाता रहा है।'

भारतीय पतिता उद्धार सभा के अध्यक्ष खैराती लाल भोला की अध्यक्षता में हुए एक सर्वेक्षण में यह बताया गया है कि बेडिया लड़कियां बाहरी लोगों का मनोरंजन करती हैं, वह अपनी जाति के पुरुषों के साथ धंधा नहीं करती। उनके अनुसार `बेडिया जनजाति में लड़की का जन्म शुभ माना जाता है और जैसे ही यहां लड़की के जन्म की सूचना मिलती है, चारो ओर इसका जश्न मनाया जाता है, पुरुषों को एक जिम्मेदारी माना जाता है। आगरा पुलिस द्वारा भी इस बात का खुलासा किया गया है कि पूरे देश में जहां कन्याओं को कोख में मार दिया जाता है, उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी समझकर उनकी भ्रूण हत्या कर दी जाती है, वहीं बेडिया जाति की महिलाएं पुरुषों के भ्रूण गिरवा देती है; क्योंकि यहां पुरुष कोई काम नहीं करते, सिर्फ बेटियों और बहनों की दलाली भर करते हैं।

डॉ. अशोक सिंह बेडिया का कथन है कि `बेडिया जनजाति के उत्थान में चंपा बेन ने बहुत काम किया है। पुरुष अगर यहां अपनी बेटियों से वेश्यावृत्ति छुडवाना चाहें तो भी वह उनकी कमायी खाने का मोह नहीं त्याग पाते। क्योंकि उनके लिए सरकार के पास रोजगार की कोई "sस योजना नहीं है। यदि वह इस पेशे को छोड़ना चाहें तो भी यहां के पुरुष एक दूसरे को ही बरगलाते रहते हैं और वह खुद नहीं चाहते कि वे इस नरक से बाहर आयें। अगर सरकार इन्हें रोजगार दे और इनकी पहचान बेटियों से धंधा कराने वाले या बेटियों की कमायी खाने वालों की न हो चूंकि यह जो "प्पा इन पर लगा हुआ है, यही इन्हें वापस इस धंधे की ओर ले जाता है। अगर वह इससे बाहर आ जाएं तो काफी सुधार हो सकता है। बेडिया समाज के ऊपर लगा सदियों से यह धब्बा अगर मिट जाए तो उन्हें भी मुख्य धारा में लाया जा सकता है।

बेडिया जनजाति की इस दूर्दशा को देखा जाए तो सवाल पैदा होता है, क्या सचमुच मोदी का नारा कि भारत बदल रहा है, सच और सार्थक हो सकता है? परंपरागत पेशे की आड में सदियों से बेडिया नट, और अन्य पिछड़ी जनजाति द्वारा किये जाने वाले देहव्यापार के धंधे ने एक नया रूप अख्तियार कर लिया है। विभिन्न सूत्र बताते हैं कि जो बेडिया पहले अपनी बेटियों से वेश्यावृत्ति कराते थे, वह राज्य के दूसरे हिस्सों से छोटी-छोटी बच्चियों को पकड़कर लाते हैं या इन्हें देहव्यापार की मंडियों से खरीदकर इन्हें देहव्यापार के लिए तैयार करते हैं। अब बेडिया अपनी बेटियों को पढ़ाकर उन्हें शिक्षा दिलाकर उनकी शादियां करके उनके घर बसाने की ख्वाहिश रखते हैं, लेकिन यही बेडिया पुरुष अपनी आरामतलबी, काहिली और मक्कारी के चलते दूसरों की बेटियों को इधर-उधर से अगुवा करके उनसे देहव्यापार कराते हैं, सच है अनादि काल से देहव्यापार का यह धंधा चला आ रहा है, पीढ़ियां बदल गई, देश बदलें, सरकारें बदली लेकिन यह धंधा नहीं बदला।

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