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अब तक क्यों जारी है देवदासी प्रथा?

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:15 Oct 2017 5:24 PM GMT

अब तक क्यों जारी है देवदासी प्रथा?

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विजय कपूर

उन कम उम्र लड़कियों को दुल्हन की तरह सजा दिया जाता है। इसके बाद कुछ धार्मिक क्रियाएं होती हैं। पांच लड़के उन लड़कियों के कपड़े उतारते हैं, उन्हें पूर्णतः निर्वस्त्र कर देते हैं। फिर उन लड़कियों को देवी मथाम्मा को समा।पत कर दिया जाता है। वह जीवनभर के लिए मथाम्मा मन्दिरों में रहने के लिए मजबूर हो जाती हैं। उनके निकलने का हर रास्ता बंद कर दिया जाता है। वह अब सार्वजनिक संपत्ति हैं और यौन शोषण उनकी दिनचर्या का हिस्सा।
यह किसी फिल्म की पटकथा नहीं है बल्कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की उस रिपोर्ट का अंश है, जिसके ज़रिए उसने आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु की राज्य सरकारों से रिपोर्ट मांगी है कि लगभग तीन दशक पहले जिस देवदासी प्रथा (कुप्रथा सही शब्द है) पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया गया था, वह अभी तक जारी क्यों है? देवदासी प्रथा का अर्थ है कि युवा लड़कियों को देवी मथाम्मा को 'आ।पत' कर दिया जाता है, फिर वह जीवनभर बिना ब्याह किये देवी की 'दासी' बनी रहती हैं, और यौन शोषण की शिकार होती रहती हैं। इस देवदासी प्रथा को दक्षिण के जिलों में अलग अलग नामों से पुकारा जाता है, जैसे चित्तूर में मथाम्मा व्यवस्था, कुरनूल व अनंतपुर ज़िलों में 'बसिवी', कृष्णा और पूर्वी व पश्चिमी गोदावरी ज़िलों में 'सानी', और विजयानगरम व श्रीकाकुलम ज़िलों में 'पार्वती'।
लेकिन नाम चाहे जो हो, है यह यौन शोषण व्यवस्था ही जिसे महिलाएं सामाजिक दबाव के कारण छोड़ नहीं पाती हैं। अगर वह प्रयास भी करें तो उसे भी जबरन असफल कर दिया जाता है। देवदासियों के यौन शोषण का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनमें से अधिकतर अपने को लाल बत्ती क्षेत्र में पाती हैं। 2011 से अब तक अकेले चित्तूर ज़िले में 7 देवदासी एड्स से मर चुकी हैं। इस समय दक्षिण के ज़िलों में कितनी देवदासियां हैं, इसका कोई सरकारी आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन चित्तूर की एक समाज सेवी संगठन 'मदर्स एजुकेशनल सोसाइटी फॉर रूरल ओरफंस', जो पिछले ढाई दशक से देवदासी प्रथा पर विराम लगाने का प्रयास कर रही है, के निजी सर्वे से मालूम होता है कि चित्तूर ज़िले में लगभग 1000 मथाम्मा हैं, जिनमें से 363 तो चार से पंद्रह वर्ष आयु वर्ग की बच्चियां हैं।
अन्य समाज सेवी संगठनों का अनुमान है कि चित्तूर ज़िले के मडिगा गांवों में लगभग 2000 मथाम्मा हैं, जिनमें से 19 से 30 वर्ष की लगभग 400 हैं और 15 वर्ष से कम की बच्चियां लगभग 350 हैं। गौरतलब है कि मडिगा वह शोषित समाज है जिसकी लड़कियों को शताब्दियों से मथाम्मा व्यवस्था में झोंका जा रहा है। देवदासी प्रथा पर कानूनी विराम लगाने के लिए 1988 में महिला अर्पण (रोकथाम) कानून का गठन किया गया था। इसलिए यह प्रश्न प्रासंगिक है कि लगभग तीन दशक गुज़र जाने के बावजूद भी यह कुप्रथा जारी क्यों है? सबसे पहली बात तो यह है कि कानून तो बना दिया गया, लेकिन उसे लागू करने का हौसला नहीं दिखाया गया।
आपको सुनकर हैरत होगी कि इस कानून से संबंधित नियम 2016 में ही बनाये गये हैं और अब तक केवल दो ही मामले (एक पुत्तूर में व दूसरा थोत्ताम्बेदु में) इसके तहत दर्ज हुए हैं और वह भी 2016 में। दरअसल, केवल कानून गठित करने से कुछ नहीं होता, उसे लागू करने और सामाजिक जागरूकता व परिवर्तन की भी आवश्यकता होती है। मसलन, तिरुपति के एमआर पल्ली में एक 14 वर्ष की मथाम्मा है, जिसके दैनिक मजदूर पिता मत्हिया का कहना है, "मेरी बेटी को दिल की बीमारी थी, जब वह तीन वर्ष की थी तो हमने उसे देवी मथाम्मा को आ।पत कर दिया, उसकी जिंदगी बच गई। अब वह बिना विवाह के जीवनभर रहेगी। यह दुखद है, लेकिन हमें दैविक शक्तियों का भी तो सम्मान करना है।"
आंध्रप्रदेश के विभाजन के बाद से उक्त कानून को लागू करने के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं। चूंकि यह मामला एक समुदाय की भावनाओं से जुड़ा है, इसलिए सरकारी मशीनरी व राजनीतिक पा।टयां इस कुप्रथा पर विराम लगाने से बचती हैं। इसके अलावा पीड़ित समुदाय को एक अल्पसंख्यक समूह के रूप में देखा जाता है, जिसका वोट बैंक राजनीति पर कोई प्रभाव नहीं है। मथाम्मा व्यवस्था का जारी रहना मडिगा समुदाय का शताब्दियों से हो रहे शोषण का जीता जागता सबूत है। जब तक इस समुदाय का आा।थक व शैक्षिक विकास नहीं होगा, महिलाओं को श्रम बल में शामिल नहीं किया जायेगा तब तक मथाम्मा कुप्रथा जारी रहेगी। पूर्व केन्द्राrय मंत्री चिंतामोहन का कहना है, "(देवदासियों के) पुनर्वास के नाम पर सरकारें सिर्फ खानापा।त करती हैं, जो दुर्भाग्यशाली महिलाओं के साथ धोखाधड़ी है, और यह इतना ही खराब है जितना कि मथाम्मा व्यवस्था।"
मथाम्मा व उनकी जीने की स्थितियों के बारे में सही आंकड़ों का अभाव भी पुनर्वास के मार्ग में बाधक है। 2000 व 2010 के बीच गिनती की मथाम्मा को मामूली आा।थक लाभ प्रदान किये गये । बहरहाल, सबसे बड़ी समस्या यह है कि सरकार से लेकर ग्राम स्तर की अधिकारिक मशीनरी तक इंकार की मुद्रा में है कि देवदासी प्रथा पुरानी बात है और अब इसका कोई वजूद नहीं है, जबकि ज़मीनी सच्चाई यह है कि आज भी विभिन्न धा।मक व सामाजिक आयोजनों से मथाम्मा बनाने के लिए 'प्रेरित' (पढ़ें उकसाया) किया जाता है। मसलन, तिरुवल्लुर (तमिलनाडु) के गांव कुर्माविलासपुरम में 2 से 6 अगस्त तक मथाम्मा उत्सव का आयोजन किया गया, जिसके पांचवे दिन नाटक के ज़रिए नई पीढ़ी को मथाम्मा के जीवन का 'महत्व' समझाया गया। नाटक में एक छोटी सी लड़की रेणुका देवी (मथाम्मा) की भूमिका निभाते हुए ऋषि जमदग्नि के पास भोजन लेकर जाती है। पांच लड़के विभन्न तरीकों से उसे ऐसा करने से रोकने का प्रयास करते हैं, जिनमें से एक प्रयास उसे निवस्त्र करने का भी है, जिसमें वह सफल हो जाते हैं और लड़की अपने को देवता को समा।पत कर देती है और अपनी 'बीमारी' से मुक्ति पा लेती है। अरुन्धतियर विदुथलाई मुन्नानी के अध्यक्ष ए एस धन्दापानी इसे अपनी धा।मक परम्परा का हिस्सा मानते हैं; लेकिन तिरुवल्लुर के जिलाधिकारी का कहना है कि इस आयोजन की विस्तृत जांच की जा रही है।
दूसरी ओर समाज सेवी संगठनों का कहना है कि 'बेटी बचाओ, बेटी पढाओ' का नारा देने वाले इस तरफ भी देखें कि धर्म व परम्परा के नाम पर लडकियों का शोषण किया जा रहा है, उन्हें सेक्स वर्कर बनाया जा रहा है और बूढी, बीमार व अकेली देवदासियां मथाम्मा मन्दिरों के बाहर सोने व भीख मांगने के लिए मजबूर हैं।

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