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दशकों में बनी अपनी साख से क्यों खिलवाड़ कर रहा है चुनाव आयोग ?

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:22 Oct 2017 5:25 PM GMT

दशकों में बनी अपनी साख से   क्यों खिलवाड़ कर रहा है चुनाव आयोग ?

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नौशाबा परवीन

चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा के लिए तो मतदान तिथि (9 नवम्बर) घोषित कर दी है, लेकिन गुजरात विधानसभा के लिए ऐसा नहीं किया है, हालांकि दोनों विधानसभाओं का कार्यकाल एक दूसरे से दो सप्ताह के भीतर ही समाप्त हो रहा है। चुनाव आयोग ने कहा है कि हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे 18 दिसम्बर को घोषित किये जायेंगे और गुजरात में उससे पहले ही चुनाव करा लिए जायेंगे। इससे हिमाचल प्रदेश में तो मॉडल कोड ऑ़फ कंडक्ट लागू हो गया है कि उसकी सरकार नई योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती, अधिकारियों के तबादले आदि भी नहीं कर सकती, लेकिन ]िफलहाल ऐसी कोई पाबंदी गुजरात सरकार पर नहीं है।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि चुनाव आयोग ने स्थापित परम्परा को तोड़ा है। लेकिन ऐसा करके उसने रूटीन निर्णय को विवादित बना दिया है और अपने साथ अन्याय करते हुए अपनी विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा लिए है। जिसे उसने बड़ी कर्तव्यनिष्ठ से वर्षों की मेहनत के साथ विकसित किया था। अनेक दशकों से चुनाव आयोग बिना किसी राजनीतिक व अन्य दबाव के निष्पक्ष चुनाव कराता आ रहा है, जिससे वह भारत की सबसे अच्छी व विश्वसनीय संस्था बन गया है, जबकि अन्य संस्थाएं धुरीकरण के दबाव में आकर चरमरा रही हैं। लेकिन इस एक गलत व निराशाजनक फैसले से चुनाव आयोग ने अपनी सारी साख दांव पर लगा दी है। उसपर यह आरोप स्वाभाविक है कि वह बीजेपी का पक्ष ले रहा है कि उसकी गुजरात सरकार को जन लुभावनी योजनाएं घोषित करने और पसंदीदा अधिकारियों को 'सहीजगह तैनात' करने का अधिक समय दे रहा है।
इस विवाद के अन्य विशेष संदर्भ भी हैं। पिछले तीन साल से बीजेपी सरकार अपने ज़बरदस्त बहुमत के बल पर लगभग सभी संस्थाओं को पंगु बना रही है, या ऐसा प्रयास कर रही है; उच्च न्यायिक नियुक्तियों को लेकर जो सरकार व न्यायपालिका में तनाव है वह इसका एक उदहारण है। सूचना अधिकार आयोग, मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग आदि नाम मात्र के कि रह गये हैं। लोकपाल का कहीं पता नहीं है। संविधान में सभी संस्थाओं में संतुलन स्थापित करने का प्रावधान है और यह भी कि वह एक दूसरे अपनी सीमा से बाहर न निकलने दें। लोकतंत्र के लिए शक्ति संतुलन अति आवश्यक है,वर्ना तानाशाही आ जाती है। लगभग तीन दशक के बाद केंद्र में जो एक पार्टी बहुमत से आयी है वह अन्य संस्थाओं को निपिय करने के प्रयास में प्रतीत हो रही है। इस पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग के लिए यह अधिक महत्वपूर्ण था कि वह अपनी निष्पक्ष व स्वतंत्र ख्याति को बनाये रखे या कम से कम ऐसा करता हुआ प्रतीत हो।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हाल के दिनों में चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्षता का भरपूर परिचय दिया है। मसलन, गुजरात के राज्य सभा चुनाव के दौरान जब बीजेपी व कांग्रेस के बीच घिनौना नाटक खेला जा रहा था, विधायक कानून की परवाह किये बग़ैर दल बदल रहे थे और संदिग्ध आयकर छापे मारे जा रहे थे, तो चुनाव आयोग ही संविधान व कानून की भाषा बोल रहा था, भले ही वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ जा रही थी। इस चुनाव के कुछ दिन बाद चुनाव आयुक्त ओम प्रकाश रावत ने एक दम सही कहा था कि नई राजनीतिक नैतिकता विकसित हो रही है, जिसमें किसी नियम की परवाह किये बग़ैर बस जीतने का प्रयास है और विधायकों की खरीद फरोख्त को स्मार्ट राजनीतिक प्रबंधन कहा जा रहा है। अपने वर्तमान विवादित निर्णय के संदर्भ में चुनाव आयोग को अधिक प्रभावी उत्तर देना चाहिए क्योंकि उसे अपनी शानदार साख को सुरक्षित रखना है।
दो प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हैं - गुजरात चुनाव की तिथि साथ ही घोषित क्यों नहीं की गई? हिमाचल प्रदेश में मतदान व गिनती में 39 दिन का अंतर क्यों रखा गया है? यह दोनों ही सवाल आपस में जुड़े हुए हैं। चुनाव आयोग ने खुद कहा है कि गुजरात में चुनाव हिमाचल में काउंटिंग (19 दिसम्बर) से पहले ही हो जायेंगे, ताकि पहाड़ी राज्य के नतीजे गुजरात में मतदान को प्रभावित न करें। यह रूटीन कारण है उन चुनावों को साथ कराने का जो 6 माह की अवधि के भीतर होने होते हैं। चूंकि गुजरात चुनाव की तिथि भी कुछ दिन में घोषित कर दी जायेगी, इसलिए दोनों राज्यों के चुनावों को अलग करने का कोई उचित कारण नहीं है। इस 'कुछदिनों के गैप' ने ही विवाद व सवाल खड़े कर दिए हैं।
यह तो स्पष्ट है कि हिमाचल में चुनाव तिथि को घोषित किये जाने में एक दिन का भी विलम्ब नहीं किया जा सकता था। हर साल नवम्बर 15 को रोहतांग पास जाड़ों के लिए बंद कर दिया जाता है, जिससे हिमाचल के कुछ हिस्से बाकी राज्य से कट जाते हैं और वहां चुनाव कराना असंभव हो जाता है। इससे विशेषरूप से किन्नौर व लाहौल-स्पीती के तीन चुनाव क्षेत्र प्रभावित होते हैं। 2007 में हिमाचल हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि दो चरणों (फरवरी व जून) में चुनाव कराने के बजाये एक ही चरण में चुनाव हों ताकि सभी चुनाव क्षेत्रों की सरकार गठन में बराबर की हिस्सेदारी हो। 2007 में उक्त तीन चुनाव क्षेत्रों में जून में चुनाव हुए थे, जबकि बाकी राज्य में फरवरी में चुनाव हुए थे। इसलिए अगर इस साल 9 नवम्बर की चुनाव तिथि घोषित न की जाती तो यह तीनों चुनाव क्षेत्र फिर छूट जाते और यह हाई कोर्ट के आदेश की अवमानना होती।
लेकिन सवाल यह है कि गुजरात चुनाव की तिथि साथ घोषित क्यों नहीं की गई? ज़ाहिर है बीजेपी सरकार को मॉडल कोड के संदर्भ में अतरिक्त समय देने के लिए। चुनाव तिथि घोषित होने के बाद हर राजनीतिक रैली पर मॉडल कोड लागू होता है, भले ही उसमें प्रधानमंत्री शामिल हों। अब अगर बीजेपी की तरफ से गुजरात के मतदाताओं के लिए लुभावनी योजनाओं की घोषणा होती है तो चुनाव आयोग व मुख्य चुनाव आयुक्त, जिनका संबंध गुजरात कैडर से है, को बहुत शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा और उनकी साख पर गहरा बट्टा लगेगा।

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