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गरीबों के लिए कारगर दवा नहीं है राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:4 March 2018 4:14 PM GMT

गरीबों के लिए कारगर दवा नहीं है   राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना

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विजय कपूर

जब जन स्वास्थ इंफ्रास्ट्रक्चर जर्जर स्थिति में हो तो क्या हेल्थकेयर फाइनेंस की मांग की तरफ फोकस होना चाहिए? यह महत्वपूर्ण फ्रश्न है जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (एनएचपीएस) के संदर्भ में उ" रहा है, जिसे विश्व के सबसे बड़े स्वास्थ्य बीमा कार्पाम के रूप में फ्रचारित किया जा रहा है और जिसके बारे में यह यकीन दिलाने का फ्रयास किया जा रहा है कि इससे पूरा देश स्वास्थ्य सुरक्षा की `नेक्स्ट जनरेशन' (अगली पीढ़ी) में आ गया है। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने एनएचपीएस को बहुत जल्दी में `झू" का पुलिंदा' घोषित कर दिया है। सरकार के दावे और विपक्ष की आलोचना विभिन्न चुनावों को मद्देनजर रखते हुए है, जिनमें से कुछ विधानसभाओं के लिए चुनाव इस साल होने हैं और आम चुनाव अगले वर्ष हैं। इसलिए इस दावे व आलोचना की राजनीति से एकदम अलग हटकर एनएचपीएस की निष्पक्ष समीक्षा करते हैं, जिसका एकमात्र तरीका यही है कि वर्तमान में जो सार्वजनिक फण्ड से स्वास्थ्य बीमा योजनाएं चल रही हैं- जैसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई), आंध्र फ्रदेश में राजीव आरोग्यसरी आदि- उनके डाटा की समीक्षा की जाये।
आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि 2016 में आरएसबीवाई का नाम बदलकर ही एनएचपीएस रखा गया था। बहरहाल, दोनों आरएसबीवाई व राजीव आरोग्यसरी के अनुभव से मालूम होता है कि मांग की तरफ से हस्तक्षेप करने से लक्ष्य की फ्राप्ति नहीं होती। आरएसबीवाई व राजीव आरोग्यसरी ने हेल्थकेयर पहुंच को तो थोड़ा बेहतर बनाया, लेकिन वह सबसे कमजोर वर्गों तक पहुंचने में नाकाम रहीं। अक्सर इनसे यह भी हुआ कि गरीब रोगियों को अनावश्यक मेडिकल फ्रािढयाओं से गुजारना पड़ा व उन्हें अपनी जेब से खर्च करना पड़ा। ये दोनों ही गैरजरूरी नतीजे थे। इससे मालूम होता है कि ऐसी बीमा योजनाओं के फंड्स का फ्रयोग करने में जब तक जन स्वास्थ्य व्यवस्था फ्राइवेट से स्पर्धा नहीं करेगी तब तक जिनको मेडिकल केयर की अति आवश्यकता है उनसे वह वंचित ही रहेगी। इसलिए जो एनएचपीएस, जिसपर पहले वर्ष में 5000 करोड़ रूपये खर्च होंगे, के नीति निर्माता हैं वह इस बात को संज्ञान में रखें।
दोनों आरएसबीवाई व राजीव आरोग्यसरी अस्पताल में भर्ती होने पर कैशलेस योजनाएं हैं। दोनों से ही गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले व्यक्तियों को कुछ लाभ मिला, लेकिन फ्राइवेट अस्पतालों पर अति निर्भरता व खराब निगरानी ने इनके फ्रभाव को न के बराबर कर दिया। गुजरात आधारित एक अध्ययन के अनुसार आरएसबीवाई के तहत बीमा होने पर भी अधिकतर रोगियों को अपनी वार्षिक आय का लगभग 10 फ्रतिशत अस्पताल में भर्ती के दौरान खर्च करना पड़ा क्योंकि अस्पतालों को यकीन नहीं था कि उन्हें सरकार से अपना पैसा कब मिलेगा, इसलिए उन्होंने रोगियों के ही बिल बना दिए। आंध्र फ्रदेश के अध्ययन से मालूम हुआ कि रोगियों को आरोग्यसरी के तहत अपनी जेब से अधिक खर्च करना पड़ा। सबसे बड़ी समस्या 2008 व 2010 के बीच खड़ी हुई जब फ्राइवेट अस्पतालों ने जल्दी पैसा कमाने के चक्कर में बड़े पैमाने पर महिलाओं की बच्चेदानी निकाली, जबकि कोई जरूरत नहीं थी। फ्राइवेट सेक्टर अपने लालच में योजनाओं को बर्बाद कर देता है, खासकर जब उनका सही से फ्रबंधन न किया जाये।
फ्राइवेट सेक्टर पर अति निर्भरता की दूसरी समस्या यह है कि वह योजना की पहुंच सीमित कर देता है। दोनों आरएसबीवाई व राजीव आरोग्यसरी के साक्ष्यों से मालूम होता है कि आंध्र फ्रदेश व गुजरात में जब पैनल वाले अस्पतालों और रोगियों के निवास स्थान के बीच फासला अधिक होता है तो योजनाओं से कम लोग लाभान्वित होते हैं, जो अस्पताल पैनल पर हैं उनमें से अधिकतर फ्राइवेट व शहरों में हैं। इससे अनुसूचित जनजातियों व ग्रामीण घरों को कोई लाभ नहीं मिला, जबकि शहर की रईस जनता को फायदा हुआ। एनएचपीएस के तहत लगभग 50 करोड़ गरीबों को बीमा कवरेज देने की योजना है। इस दावे में दो समस्याएं हैं। एक यह कि 2008 में लांच की गई आरएसबीवाई के तहत पहले केवल गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे वाले घरों को ही टारगेट करना था, लेकिन सरकारी डाटा के अनुसार आज नौ वर्ष बाद भी सिर्फ आधे बीपीएल परिवारों को ही कवर किया जा सका है। दूसरा यह कि सरकारी डाटा में कवरेज आंकड़े और सर्वेक्षणों के अनुमानों में बहुत अधिक अंतर है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे (एनएसएस) के 71 वें पा के अनुसार 2014 में आरएसबीवाई व राज्यों की स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के तहत 11.1 फ्रतिशत जनसंख्या को कवर किया गया था, लेकिन बीमा नियमन व विकास फ्राधिकरण के अनुसार इन योजनाओं में कवरेज 16.4 फ्रतिशत था।
इस अंतर का मुख्य कारण यह है कि सरकार से फ्रीमियम सब्सिडी हासिल करने के लिए बीमा कम्पनियों ने लाभान्वित होने वाले बोगस व्यक्ति खड़े किये। दूसरा यह कि बीमाकर्ताओं ने योग्य जनसंख्या के मामूली हिस्से से ही सम्पर्क किया। मसलन, 2016 में महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबा फुले जन आरोग्य योजना के तहत सिर्फ 2,45 फ्रतिशत योग्य परिवारों को ही पंजीकृत किया गया। एनएसएस डाटा के अनुसार अन्य राज्यों में भी यही हाल था। एक अन्य समस्या गरीब घरों की पहचान करने में है। 2014 के एनएसएस डाटा के अनुसार 12.7 फ्रतिशत गरीब घरों को आरएसबीवाई कवरेज मिला, लेकिन इसके विपरीत 36.52 फ्रतिशत रईस घरों को कवरेज मिला। आरएसबीवाई की टारगेट फ्रािढया में जानबूझकर बहुत से घरों को छोड़ा गया। यह जानना भी जरूरी है कि बीमा कवरेज अपने आप ही इस्तेमाल में नहीं बदल जाता है। मसलन, आरएसबीवाई के तहत बीमा फ्राप्त रोगियों की अस्पताल में भर्ती होने की दर 2014 में मात्र 1 फ्रतिशत थी, जबकि सामान्य जनता का राष्ट्रीय औसत 2.6 फ्रतिशत था। अन्य योजनाओं का भी यही हाल है। फुले योजना की उपयोगिता दर 2013-14 में सिर्फ 0.12 फ्रतिशत थी जो 2014-15 में बढ़कर 0.18 फ्रतिशत हो गई।
ऐसे कोई साक्ष्य नहीं हैं कि आरएसबीवाई/एनएचपीएस ने जरूरतमंद रोगियों द्वारा अपनी जेब से किये जा रहे खर्च में कटौती की है। इसलिए वर्तमान में एनएचपीएस उन गरीब लोगों के लिए दवा नहीं है, जिनका वह इलाज करना चाहती है। एनएचपीएस से लाभ हो सकता है अगर सरकार इसे यूनिवर्सल हेल्थकेयर की दिशा में पहले कदम के रूप में देखे, बजाय इसके कि यह भारत की तमाम स्वास्थ्य केयर समस्याओं का रामबाण है। दूसरा कदम जनस्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारना होना चाहिए, जिसका लम्बे समय से इंतजार है। बिना इसके, बीमा योजना, चाहे कितनी ही महत्वाकांक्षी क्यों न हो, सिर दर्द की गोली से अधिक कुछ नहीं है।

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