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आखिरी सांसें गिन रही 'जात्रा' नाट्यशैली

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:4 March 2018 4:18 PM GMT

आखिरी सांसें गिन रही जात्रा नाट्यशैली

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लोकमित्र

इस समय देश में ओलम्पिक थियेटर चल रहा है जो अफ्रैल 2018 के पहले पखवाड़े तक चलेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इस दौरान देश के तमाम शहरों को दुनिया भर से आये सैकड़ों नाट्यकर्मियों, नाट्यशास्त्रियों, नाट्यचिंतकों और नाट्यफ्रेमियों का सानिध्य हासिल होगा। वे थियेटर की फ्रासंगिकता और संवेदना के नए-नए आयामों से रूबरू होंगे। मगर काश इसी सबके बीच हिन्दुस्तान की उन तमाम नाट्यशैलियों पर भी चर्चा-परिचर्चा होती जो आज के तेज रफ्तार मनोरंजन माध्यमों के सामने लुप्त होने को विवश आखिरी सांसें गिन रही हैं। इनमें से ही एक है पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम का पारंपरिक थिएटर, जात्रा। जात्रा नाट्यशैली वास्तव में सदियों पुरानी है। इसके तहत नाट्यकर्मी घूम-घूमकर लोगों को नाटक दिखाते हैं। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि इस शैली में एक थियेटर जात्रा या यात्रा में होता है और रास्ते में रुक-रूककर लोगों को नाटक दिखाता है। टेलीविजन और मोबाइल फोन पर आसानी से मिलते मनोरंजन के कारण हाल के सालों में जात्रा कलाकारों को अपनी कला को जीवित रखने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ रही है।
यह नाट्यशैली थोड़े बहुत फेरबदल के साथ पूरे देश में अलग-अलग नामों और रूपों में मौजूद रही है। महाराष्ट्र और गुजरात में तो यह जात्रा नाम से ही अस्तित्व में रही है। लेकिन एक सशक्त नाट्यविधा के रूप में इसने सबसे ज्यादा इज्जत उत्तरी बंगाल और उड़ीसा में ही नाम कमाया है। इस नाट्यशैली की शुरुआत कब हुई ? इसको लेकर तो विद्वानों के बीच बहुत विवाद है। लेकिन आधुनिक बंगाली जात्रा की शुरुआत करने वाले चैतन्य महाफ्रभु थे इस सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं हैं। चैतन्य महाफ्रभु एक समाज सुधारक थे, उन्होंने ही अपने अनुयायियों के साथ मिलकर आधुनिक बंगाली जात्रा की शुरुआत की। इसे दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि उन्होंने बौद्ध युग में फ्रचलित ऐसी ही नाट्यशैली को पुनर्जीवित किया। सिर्फ बंगाल में ही नहीं चैतन्य महाफ्रभु को अपने समय में, भारत के अनेक हिस्सों में सांकृतिक गतिविधियों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता लाने का श्रेय जाता है। जब सभी भारतीय क्षेत्र राजनीतिक और आर्थिक संकट से फ्रभावित थे। उस समय उन्होंने इस धार्मिक रंग वाली सांस्कृतिक जात्रा का सृजन किया। लेकिन अब ये नाट्यशैली अपनी अंतिम सांसें गिन रही है। देशभर में जो कुछ थोड़े से जात्रा कलाकार बचे हैं वे इन दिनों तंगहाली में जी रहे हैं। इस शैली में एक नाटक चार-चार घंटे चलता है। बेहद तेज म्यूजिक, आंखों को चौंधियाने वाली लाइट और अत्यधिक `फ्रॉप्स' के साथ खुले आसमान के नीचे बने बड़े से स्टेज पर यह नाटक दिखाया जाता है। लेकिन अब इस नाट्यविधा के फ्रति लोगों में वह सम्मान या इसे देखने का आकर्षण नहीं बचा। जात्रा के फ्रति लोगों के रुझान में आयी इस कमी से इसके कलाकारों की रोजी-रोटी छिन गई है।
यह कई व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला एक नाट्य अभिनय है या कहें इसमें बहुत सारे कलाकार सामूहिक रूप से संगीत, अभिनय, गायन और नाटकीय वाद विवाद करते हैं। एक जमाना था जब यह विधा सामाजिक संदेश देने के लिए बहुत मौजू समझी जाती थी। इसके सशक्त माध्यम से जनसमूह को धार्मिक मान्यताओं की जानकारी दी जाती थी। उड़िया और बंगाली जात्रा का जन्म तो बहुत पहले हुआ था इसलिए इसका "ाrक-"ाrक या अधिकृत इतिहास नहीं है। नाट्यशास्त्र जो कि नृत्य की कला और विज्ञान का मुख्य ग्रंथ है, में बंगाल, बिहार और उड़ीसा में होने वाले ऐसी नाटकीय फ्रस्तुतियों का पा है। पहले जात्रा की कहानियां आमतौर पर भारतीय पौराणिक कथाओं पर आधारित होती थीं। दरअसल बंगाल में एक गायन शैली है जिसका नाम `करिया' है। यह नौवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच बहुत लोकफ्रिय थी। अमरकोश पर दिए गए वृतांत में इसके अस्तित्व का उल्लेख मिलता है। इनके कुछ खण्ड ताम्र पत्रों में भी पाए गए हैं। इन गीतों की भाषा को उन लोगों के वर्ग का सृजन माना गया जो बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अनुयायी थे। पुराने जात्रा नाटकों में बुद्ध के संदर्भ खूब मिलते हैं। यह वह समय था जब आज के उड़ीसा में करिया पद लोकफ्रिय थे।
बाद के दिनों में जात्राओं के लिए नाटक लिखने की शैली में अनेक बदलाव हुए हैं। अब जात्रा के नाटक केवल धार्मिक, ऐतिहासिक या काल्पनिक विषयों पर सीमित नहीं हैं। इनमें आधुनिक रुचि के लिए उपयुक्त सामाजिक विषय वस्तु भी शामिल की गयी है। लेकिन फ्रस्तुतीकरण का अंदाज आज भी कमोबेश वैसा ही है। जात्रा की फ्रस्तुति एक खुले और सादे मंच पर की जाती है जिसके चारों ओर दर्शक होते हैं। सामूहिक गीत गायक और संगीतकार मंच पर ही अपने अपने स्थान पर बै"ते हैं। इस पर मंच संबंधी कोई आडम्बर नहीं होता, यहां केवल बै"ने का एक स्थान भर तय होता है जो विभिन्न कार्पामों में एक सिंहासन, एक बिस्तर या किनारे रखी बैंच के तौरपर कार्य करता है। मंच पर अभिनेता बहुत लाऊड होते हैं शायद यह सबको सुनाई पड़े और नाटकीय माहौल बने इसकी जरुरत होती है। यहां अभिनेताओं को बहुत गतिशील होना पड़ता है। वे अपनी ऊंची आवाज में भाषण देते हैं और उन्हें इतनी तेजी से बोलना होता है कि चारों ओर बै"s दर्शक उनकी आवाज आसानी से सुन सकें। परिणामस्वरूप वे एक अत्यंत उत्तेजित शैली में बोलते हैं और उनके हाव-भाव भी इसी के अनुरूप होते हैं। इनकी वेशभूषा भी चमकदार और चूंकि ज्यादातर जात्रा नाटक पौराणिक होते हैं जहां तलवारें अनिवार्य रूप से मौजूद होती हैं इसलिए इन नाटकों में तलवारों की चकाचौंध भी खूब होती है।
जात्रा नाटकों के अभिनेता स्टेज पर भावनात्मक मनःस्थिति को दर्शाते हैं जैसे कि फ्रेम, दुख, करुणा आदि। लेकिन इन सभी में उत्तेजना का तत्व भरपूर और बाकी सबसे ज्यादा होता है। क्योंकि ये अपने अभिनय से जिंदगी को लार्जर दैन लाइफ फ्रस्तुत कर रहे होते हैं। इन नाटकों की फ्रस्तुति के पहले कुछ निश्चित रस्में अदा की जाती हैं। कुछ खास संगीत वाद्यों को बजाते हैं। जैसे ही यह संगीत कार्पाम पूरा होता है नर्तकों का एक समूह आ पहुंचता है और वे अपना नृत्य शुरू कर देते हैं। नृत्य के खत्म होते ही नाट्यकथा आगे बढ़ती है।

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