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बंजर में भी उग जाता है प्रेम का पौधा
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एन.के.अरोड़ा
9 जेलों में बंटी और 14 हजार एकड़ में फैली, देश की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में उसका यह दूसरा साल था। रम्मो (नाम बदला हुआ) धारा 302 के तहत मर्डर के केस में अपनी ही तरह की दो अपराधियों के साथ जेल में बंद है। लेकिन वह उसी जेल में बंद एक कैदी से प्रेम करती है और अकसर उसके लिए खत लिखती है। हर दूसरे शनिवार को महिला कारागार के अन्दर एक मुलाकात का कार्पाम आयोजित होता है, जिसमें ऐसी कैदियों के वे परिजन जो खुद किसी वजह से किसी अन्य जेल में बंद हों, उनसे मुलाकात करते हैं। इनमें विभिन्न जेलों में बंद पति, पिता, भाई, बेटे, खून के रिश्ते अपनी मां-बेटी-बहन एवं पत्नी से मिलने आते हैं। लेकिन उन्हें इस दौरान न तो कुछ लेकर आने दिया जाता है और न लेकर जाने दिया जाता है। कुछ का मतलब कागज का एक पुरजा भी।
फिर भी इश्क तो अपनी राहें ढूंढ़ ही लेता है किसी मुलाकात के दौरान रम्मो उसे अपना खत देती है। ऐसे खत जब पकड़े जाते हैं और पुलिस बतंगड़ बनाती है तो कैदी विफल पड़ती हैं, 'अरे चिठ्ठी ही तो देते या मंगवाते हैं, क्या चारदीवारी के अंदर हमें एक पल भी सुकून से रहने का हक नहीं है।' रम्मो और सुरेश (नाम बदला हुआ) की मुहब्बत इन्हीं सब झंझावतों में पली थीं। उनका ये रिश्ता तिहाड़ में 5 साल के इंतजार के बाद शुरू हुआ था। 2001 में जेल की महापंचायत लगी थी, जहां बुद्धिजीवियों का समूह पत्रकार वर्ग, न्यायाधीश महोदय तथा जेल के आला अफसरों के सामने कुछ चुने हुए पुरुषों एवं महिलाओं (कैदियों) ने अपनी-अपनी जेल की समस्याओं को, अदालत की समस्याओं को, कानूनी समस्याओं आदि को उनके सामने रखा था।
रम्मो ने महिला कारागार की समस्याओं को शानदार तरीके से बयां किया था तो सुरेश ने भी पुरुष कैदियों की समस्याओं को प्रभावशाली अंदाज में रखा था। तालियों की गड़गड़ाहाट से उनकी इस अभिव्यक्ति को सहारा गया था। लेकिन इन तालियें में, इन दोनो के दिल की घंटियों को भी बजा दिया था। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ही दोनो ने एक-दूसरे को दूर से मुस्कुराती नजरों से देखा था। सुरेश मार्च 2000 तिहाड़ जेल में बंद था तो रम्मो मई 2000 से विचाराधीन कैदी थी। सुरेश ने रम्मो के लिए अगली शनिवार की मुलाकात के समय किसी पुरुष के हाथ छोटा सा ग्रीटिंग कार्ड भेजा था, जो नए साल का था। रम्मो ने भी जवाब में उसे उसी के जरिये ग्रीटिंग कार्ड भेजा। लेकिन यह सिलसिला इसके आगे नहीं बढ़ा। जुलाई 2001 में रम्मो को चार महीने की अंतरिम बेल मिल गई। लेकिन वह अपने विरूद्ध बनाये गये झू"s केस से इतना आहत हुई कि मेन्टल असाईलम पहुंच गयी। फिर वहां से दोबारा उसे जेल भेज दिया गया।
साल 2002-2003 में भी जेल के अंदर महापंचायत बै"ाr थी और रम्मो व सुरेश एक बार फिर खामोशी के साथ इधर-उधर बै"s थे। वे दोनो एक-दूसरे के नजदीक जाकर बात नहीं कर सकते थे। जेल में एक दूरी, एक अनुशासन बनाकर रहना पड़ता है। बहरहाल वह फिर इंतजार करती रही, 21 अप्रैल 2003 को रम्मो को पुनः अंतरिम जमानत मिल गई। यह सिलसिला 2004 तक चलता रहा। सुरेश रम्मो एक ही कोर्ट में पेश होते रहे। दोनों एक-दूसरे को देखते-मुस्कुराते रहे। लेकिन अपनी बात कह न पाते क्योंकि जब भी वो ऐसा करना चाहते, कभी परिवार की दीवारें होतीं कभी पुलिस की निगाहें। 2004 में रम्मो को सात साल की सजा सुना दी गयी। वह फिर सलाखों में कैद होकर दिन गुजारने लगी। 2006 के मार्च में एक बार पुनः महापंचायत का आयोजन हुआ। रम्मो को फिर से उस महापंचायत में बोलने के लिए भेजा गया। उस दिन रम्मो सफेद सूट में मासूम सी दिख रही थी। कमर तक लंबे बालों को उसने खोल रखा था। हल्की लिपिस्टिक हल्के ब्लशर के साथ वह अलग ही नजर आ रही थी।
जैसे ही उसने अन्य महिलाओं के साथ जेल के पंडाल में प्रवेश किया सुरेश की निगाहें उसकी निगाहों से टकरा उ"ाrं। दोनों ने नजरों-नजरों में बात की आखिर दोनों की बेचैनी इतनी बढ़ गयी कि चंद कदम चल ही पड़े। रम्मो फट पड़ी, 'क्या पत्र भेजते हुए तकलीफ होती है।' सुरेश मुस्कुरा उ"ा। 'नहीं ऐसा नहीं है।' रम्मो बोली, 'मुझे सजा हुई है पता है?' सुरेश ने कहा, 'हां जानता हूं।' दोनों इतनी ही बात कर पाये कि पुलिस वालों की निगाहें उन्हें घूरने लगीं। आखिरकार 25-3-2006 को सुरेश का छोटा सा खत दूसरों की समस्या से ही सम्बंधित रम्मो के पास आया। उसमें चंद लफ्ज ही रम्मो के लिए थे। फिर भी मानो वह उसके लरजता हुआ खजाना था। उस संक्षिप्त पत्र को उसने कई बार बैरक के "ंडे फर्श पर लेटकर पढ़ा। अब दोनों के बीच पत्रों का सिलसिला शुरू हो गया। यह सिलसिला कुछ ही दिन चल पाया था कि रम्मो हाईकोर्ट से बाइज्जत बरी हो गयी। उसे एक आस लगी कि वह सुरेश से आमने-सामने से बात कर सकती है, मिल सकती है। रम्मो, सुरेश से मिलने जेल पहुंची। दोनों बातें करते रहे। एक-दूसरे को खत भेजते जिसमें प्यार ही प्यार होता बेशुमार प्यार। अपनी भावनाओं को समस्याओं को सामने रखते। सुरेश, रम्मो का बेसब्री से इंतजार करता। हालांकि दोनों ही शादीशुदा थे। परंतु उन्हें जिस प्यार और अपनेपन की तलाश थी, वह उन्होंने एक-दूसरे में पा लिया था। सीखचों के पीछे जन्में, परवान चढ़े और मंजिल हासिल करने वाले अपने प्यार के बारे में बताती हुई अधेड़ रम्मो बड़ी देर तक अतीत में खोयी रही। जब तक थोड़ी तेज आवाज में नहीं पूछा गया फिर क्या हुआ?... फिर की कहानी, कहानी नहीं एक सिलसिला है, जिसे आज भी तमाम रम्मो, तमाम सुरेश जिंदा रखे हुए हैं।
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