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कलाओं के नजरिये से शुंगकाल सामाजिक चेतना का उत्कर्ष काल है

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:17 Jun 2018 5:28 PM GMT

कलाओं के नजरिये से शुंगकाल  सामाजिक चेतना का उत्कर्ष काल है

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सुमन कुमार सिंह

भारतीय कला इतिहास में मौर्यकाल के बाद शुंगकाल कतिपय कारणों से लगभग अजाना सा है। यह सच है कि मौर्यकाल में विशेषकर सम्राट अशोक के फ्रयासों से स्वदेशी कला का जो विकास हुआ वह उल्लेखनीय है। अशोक ने - न च समाजो कर्तव्यों- की घोषणा की थी। उसका ध्येय था कि धार्मिक विषयों पर तो रचनाएं हों किन्तु सामाजिक विषयों का अंकन इस काल में पूरी तरह निषेध था। यही कारण था कि सामाजिक विचार मौर्यकालीन कला में स्थान नहीं पा सके, वहीं शुंगकाल में सामाजिक विषयों को कला में स्थान दिया जाने लगा। इन्हीं कारणों से शुंगकालीन कला में जीवन का फ्रवाह परिलक्षित होता है, तत्कालीन फ्रतिमाओं में सौन्दर्य, वस्त्राभूषण एवं रत्नों की सजावट, केश विन्यास, मुद्रा की गंभीरता का जो निरूपण है, उसके अवलोकन से मध्यम वर्ग के समाज का अध्ययन सहज तौरपर हो जाता है।

शुंग कला का मुख्य उद्देश्य मध्यदेशीय लोगों के सामूहिक विचार तथा सामाजिक भावना को व्यक्त करना था। इस दौर में कला किसी विशेष व्यक्तित्व की आभा से मुक्त होकर सामूहिक कल्पना का फ्रतिनिधित्व करती है तथा जनसमुदाय की परंपरा की भी सक्षम अभिव्यक्ति करती है। यही नहीं शुंगकाल में हीनयान मत के फ्रचार से अनेक बौद्ध गुफाओं का निर्माण किया गया। भिक्षुओं के निवास हेतु आवश्यकता महसूस की गई कि वह सांसारिक वातावरण से अलग फ्राकृतिक वातावरण में हो, इसी कारण से पश्चिमी भारत के "ाsस पर्वतों में विहार तैयार किए गए जो फ्रायः नगरों से लगभग आ" दस मील की दूरी पर हुआ करते थे। इन विहार व चैत्यों में पत्थरों को उत्कीर्ण कर उसे अलंकृत भी किया जाता रहा।

शुंग कला में चैत्य के स्तम्भ, वेदिका तथा तोरण उत्कीर्णन के आधार थे जिन पर नाना फ्रकार की आकृतियों के अंकन मिलते हैं। समस्त कलाकृतियों में वस्त्राsं का भारीपन, अलंकरण की बहुलता तथा अंगों की स्थिरता के बावजूद शारीरिक सुंदरता का उच्च फ्रतिमान बरकरार रहा। इन रचनाओं की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह रही कि कला में सजीवता लाने के लिए कथानक का फ्रदर्शन किया गया तथा कहानी के फ्रसंग में मुख्य पात्र को शिला के सीमित क्षेत्र में अनेक बार फ्रस्तुत किया गया ताकि उस कथानक का फ्रवाह बना रहे। काल की अभिव्यक्ति के उद्देश्य से दो घटनाओं के मध्य संबंध को दर्शाने के लिए अक्सर मुख्य पात्र को दो या तीन बार अंकित किया।

इस फ्रकार काल तथा स्थान का विभेद एक ही फ्रदर्शन में स्पष्ट हो जाता है। अगर देखा जाए तो विभिन्न आकृतियों में संयोजन की परंपरा की यह एक तरह से शुरूआत मानी जा सकती है। कापाम के अनुसार पूना के समीप भाजा की गुफाओं के उत्कीर्णन को सबसे फ्राचीन समझा जाता है। चैत्य के स्तम्भ सादे हैं पर विहार से संबंधित उत्कीर्णन के नमूने यहां मिलते हैं। एक जगह सूर्य रथ दर्शाया गया है, इस रथ का एक पहिया और चार घोड़े दिख रहे हैं, रथ के नीचे अंधकार रूपी विशालकाय राक्षसी दिखाई देती है। दूसरा एक संयोजन है जिसमें हाथी पर सवार इंद्र का निरूपण है, हाथी ने अपनी सूंड़ से उखाड़े गए एक वृक्ष को लपेट रखा है। यहीं पर छोटे कद के मनुष्याकृतियां हैं। इन संयोजनों में आकृतियों के अनुपातिकता का ध्यान नहीं रखा गया है, रथ, राक्षसी, हाथी, इंद्र व वृक्ष के अंकन में कलाकार द्वारा अनुपात की अनभिज्ञता का दृष्टिगत होना कला की दृष्टि से दोषपूर्ण है।

भाजा के बौद्ध विहार में ब्राह्मण- मूर्तियों का भी अंकन है, वैसे तो इस फ्रकार के उत्कीर्णन के निश्चित फ्रयोजन के समझना थोड़ा क"िन है किन्तु एक आशय यह तो बताता ही है कि इन अलग-अलग धार्मिक विचारों को लेकर कोई कट्टरता समाज में विद्यमान नहीं थी। हालांकि पुष्यमित्र शुंग के बारे में कहा जाता है कि ब्राह्मण होने के कारण वह ब्राह्मण धर्म को बौद्ध धर्म से ज्यादा महत्व देता था। दूसरी तरफ यह भी आरोप लगाया जाता रहा कि उसने बौद्धों की हत्याएं भी कराइं&, लेकिन कुछ इतिहासकार इसे मिथ्या फ्रचार या घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर फ्रचारित किया गया मानते है। वहीं उदाहरण के तौरपर शुंगकाल में भरहुत व सांची के स्तूप के निर्माण को जहां शुंग राजाओं द्वारा बौद्ध धर्म को दिए जाने वाले सम्मान से जोड़कर देखते हैं, वहीं कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह निर्माण राज्याश्रय के बजाय आम जनता द्वारा कराए गए हैं, तो कुछ हवालों से माना जाता है कि इसके निर्माण की शुरूआत अशोक के काल में ही हो गई थी।

किन्तु उपरोक्त स्थितियों में भी इसे आज हम शुंगकाल की देन के रूप में ही स्वीकार करेंगे। बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर के निर्माण को भी शुंगकाल से जोड़कर देखा जाता है। शुंग राजवंश के धार्मिक रूझानों को लेकर किसी विवाद की स्थिति से परे हटकर देखें तो कला, शिक्षा, दर्शन जैसे विषयों में ज्ञान का अपेक्षित फ्रचार फ्रसार इस दौर में अवश्य हुआ। जिसमें पतंजलि के योगसूत्र व महाभाष्य को पुस्तक के रूप में फ्रस्तुति महत्वपूर्ण है। मूर्तिकला की दृष्टि से देखें तो यह काल मथुरा शैली के उदय के रुप में भी याद रखा जाएगा।

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