बेलगाम बारिश सूखते जल स्रोत
एन.के.अरोड़ा
भारत दुनिया के उन कुछ गिने चुने खुशनसीब देशों में से है जिसे कुदरत से बारिश का भरपूर तोहफा मिला हुआ है। हमारे यहां जितनी बारिश होती है, यूरोप के करीब 20 देशों में मिलकर भी उतनी बारिश नहीं होती। बावजूद इसके हम धीरे-धीरे जल संकट के दरवाजे पर आ खड़े हुए हैं, तो उसकी हमारी कुछ अपनी वजहें हैं और कुछ पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग की देन है।
दरअसल हमारे यहां सालभर में जितनी बारिश होती है, उस बारिश का 80 फीसदी तक हिस्सा महज 90 दिन के अंदर गिर जाता है। भारत में औसतन वार्षिक वर्षा 1,170 मिमी होती है। लेकिन करीब 90 फीसदी बारिश का पानी बहकर समुद्र पहुंच जाता है। क्योंकि जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि 80 फीसदी बारिश 3 महीने के अंदर होती है और उन 3 महीनों में भी करीब 90 फीसदी बारिश सिर्फ 20 से 30 घंटों के दौरान होती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बारिश कितनी तीव्रता और कितनी बेलगाम ढंग से होती होगी?
पुराने समय में सिर्फ वर्षा के पानी को रोकने के ही हमने तमाम देशज तरीके विकसित नहीं किये थे बल्कि इन तरीकों के साथ-साथ हम वर्षा जल के प्रबंधन के लिए तमाम प्राकृतिक जल स्रोतों का भरपूर रूप से इस्तेमाल करते थे, जिससे सिर्फ पानी ही इकट्"ा नहीं किया जाता था बल्कि प्राकृतिक रूप से भूमि के अंदर ही उसे एकत्रित किया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे विकास के नाम पर हमने इस पारंपरिक प्रबंधन को ही भुला दिया और बड़े-बड़े औद्योगिक सभ्यता वाले जल प्रबंधन पर निर्भर हो गए। लेकिन हम इस बात को भूल गए कि ये बड़े-बड़े बांध हर जगह नहीं बनाए जा सकते जहां बांध बनाये भी गए हैं, वहां सिर्फ 20 फीसदी पानी को ही रोका जा सका है। क्योंकि बारिश का ाढम बहुत अनियंत्रित होता है और साथ ही बहुत कम समय में बहुत ज्यादा बारिश होती है इसलिए एक सीमा से ज्यादा बांधों में पानी रोका नहीं जा सकता।
इसके साथ ही एक बड़ी समस्या यह है कि कम समय में हुई ज्यादा बारिश के कारण अकसर बांध टूट भी जाते है अथवा कई किस्म की दुर्घटनाओं का शिकार भी हो जाते हैं। जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा है उसको देखते हुए अब पारंपरिक जल प्रबंधन की तरफ देश लौट रहा है। अभी इसी महीने उत्तराखंड सरकार ने तमाम आधुनिक जल प्रबंधन के विशेषज्ञों को शामिल करते हुए उस पुरानी जल प्रबंधन व्यवस्था को विकसित करने की कोशिश की है, जो सदियों से इस देव भूमि में भरपूर जल व्यवस्था का आधार थी।
एक जमाने में उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर खाल-चाल यानी छोटे-छोटे तालाबनुमा गड्ढे हुआ करते थे। इन गड्ढ़ों में बारिश का पानी सहेजा जाता था जो न सिर्फ कई महीने तक इंसानों और जानवरों के काम आता था बल्कि इस सहेजे गये पानी से धरती रिचार्ज होती थी जिस कारण बारिश के बाद यही रिचार्ज हुआ पानी झरनों और छोटी-छोटी बाबड़ियों या खड्डों में रिसकर इकट्"ा होने लगता था, जो जानवरों और इंसानों दोनो के काम आता था। दरअसल यही पानी पूरे साल जल की पूर्ति करता था। यही पानी स्थानीय लोगों को पूरे साल हासिल होता था। इससे लोग अपनी प्यास भी बुझाते थे और धरती की प्यास भी इससे बुझती थी।
उत्तराखंड में औसतन 1580 मिमी बारिश होती है लेकिन पुराने जल प्रबंधन को भुला दिये जाने के कारण आज करीब-करीब पूरा उत्तराखंड जल समस्या से त्राहि-त्राहि कर रहा है। करीब 17,000 से ज्यादा गांवों और मौजरों में पानी का भयानक संकट इस भुला दी गई पुरानी तकनीक के कारण पैदा हुआ है। लेकिन अकेले उत्तराखंड की क्यों कहें, आज देश का 90 फीसदी क्षेत्र या तो जल की कमी से परेशान है या साल के कुछ महीनों में जल की कटौती से दो चार रहता है। जबकि भारत में जल प्रबंधन की सुदृढ़ व्यवस्था ईसा के लगभग 300 वर्ष पूर्व से मौजूद है। उस समय भी कच्छ और बलूचिस्तान में बांध मौजूद थे, लोग इन्हें स्थानीय संसाधनों से बनाना भी जानते थे और बांध बनाकर रोके गये पानी का उचित उपयोग भी जानते थे। लेकिन धीरे-धीरे हमने ये तमाम चीजें भुला दीं। जबकि भारत के इतिहास में कोई ऐसा समय नहीं रहा, जब पानी को सहजने की हमें व्यवस्थित तरकीब पता न रही हो और उसके जरिये हम पानी के मामले में आत्मनिर्भर न रहे हों।
भारत सरकार और विभिन्न प्रदेश सरकारें अब फिर से जल प्रबंधन की उन पुरानी तकनीकों की तरफ लौटने का मन बनाया है, जिससे उम्मीद है कि अगले 5 से 8साल के भीतर हम आज के मुकाबले 10 से 15 फीसदी ज्यादा पानी समुद्र में जाने से बचा सकेंगे। इससे हमारी दैनिक जरूरतें पूरी होने में तो आसानी होगी ही, साथ ही धरती के अंदर की सूखती हुई जलधारा भी हरी होगी जिससे देश का भविष्य सुरक्षित रहेगा।