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सी.रामचंद्र जिनकी धुन पर रो पड़े थे प्रधानमंत्री

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:24 Jun 2018 3:08 PM GMT

सी.रामचंद्र  जिनकी धुन पर रो पड़े थे प्रधानमंत्री

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कैलाश सिंह

'आना मेरी जान, मेरी जान संडे के संडे' और 'गोरे गोरे बांके छोरे' ये वे दो हास्य गीत हैं, जो लगभग 75 वर्ष बाद भी हमारा मनोरंजन कर रहे हैं। इन गीतों को संगीतकार सी. रामचंद्र ने सुर दिए थे, जिनकी जन्म शताब्दी का जश्न हम इस साल मना रहे हैं। वह ाढांतिकारी संगीतकार थे जिन्होंने क्लासिकल म्यूजिक के दौर में पश्चिमी संगीत का भरपूर फ्रयोग किया गीतों में हास्य व व्यंग उत्पन्न करने के लिए। लेकिन उन्होंने पर्दे पर हिन्दुस्तानी क्लासिकल राग भी इतनी ही सफलता से दिए, आखिर उन्होंने अपने दौर के जाने माने उस्तादों से संगीत की शिक्षा व ट्रेनिंग ली थी। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि वह क्लासिकल, गजल, कव्वाली, गीत आदि रचने में बराबर के माहिर थे। 1940 के दशक में रामचंद्र ने जो नये सफलतापूर्वक फ्रयोग किये उनसे उन्होंने नया ट्रेंड स्थापित किया।

इसके अतिरिक्त रामचंद्र को हमेशा 'ए मेरे वतन के लोगो' गीत के लिए याद रखा जायेगा। देशभक्ति गीतों में यह अपना विशेष स्थान रखता है। इसे फ्रदीप ने लिखा था और लता मंगेश्कर ने गाया था। जब 1963 में नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस के अवसर पर इसे लता ने देश के पहले फ्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की उपस्थिति में गाया तो नेहरु इतने भावविभोर हो गये कि उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े। रामचंद्र बहुआयामी रंगीन शख्सियत के मालिक थे। वह एक्टर, गायक, गीतकार, संगीतकार व निर्माता थे। लेकिन वह अनू"s संगीतकार के रूप में अधिक विख्यात हैं। अपने टैलेंट की विभिन्न भूमिकाओं में वह अनेक नामों से जाने जाते थे- अन्ना साहेब, राम चितलकर, श्यामू व चितलकर। एक संगीतकार के रूप में वह सी. रामचंद्र के नाम से विख्यात हुए।

रामचंद्र का जन्म 1918 में महाराष्ट्र में हुआ था। उन्होंने संगीत की शिक्षा गंधर्व महाविद्यालय में विनायकबुआ पटवर्धन से ली। उन्होंने एक एक्टर के रूप में फिल्मोद्योग में फ्रवेश किया और जल्द ही सोहराब मोदी के मिनर्वा स्टूडियो के संगीत विभाग में बिंदु खान और हबीब खान के सहायक हो गये। एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उनकी पहली फिल्म तमिल भाषा में 'जयाकोदी' थी, जिसके बाद एक अन्य फिल्म 'वन मोहिनी' में भी उन्होंने संगीत दिया, लेकिन उनकी पहचान बनी जब उन्होंने 1942 में भगवान दादा की फिल्म 'सुखी जीवन' में संगीत दिया। हिंदी फिल्मों में सफलता पाने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा क्योंकि उन दिनों खेमचंद फ्रकाश, ज्ञान दत्त, अनिल विश्वास व नौशाद की तूती बोलती थी।

बहरहाल, अपनी क्षमता, पक्के इरादे व लगन से वह अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे। 'मेरे पिया गये रंगून' (पतंगा, 1947) ने उनकी किस्मत खोल दी। यह गीत आज भी सुना जाता है। इसके बाद आयी 'शहनाई' (1947) जो बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त हिट रही, खासकर 'संडे के संडे' गीत के कारण। लेकिन 'सरगम' (1950) अपने समय की सर्वश्रेष्" संगीत-कॉमेडी साबित हुई, जिसमें अरबी रिद्म व अफ्रीकी फ्लेवर के भी गीत थे, इसमें राज कपूर व रेहाना मुख्य कलाकार थे। 1950 में आयी 'सगाई' में एक बहुत ही अजीब गाना था- 'डैडीजी मेरी मम्मी को सताना नहीं अच्छा'। फिर इसके बाद उनका लता के साथ सबसे अधिक हिट गीत आया- 'महफिल में जल उ"ाr शम्मा' (निराला, 1950)। रामचंद्र की जीवनभर दोस्ती भगवान दादा से रही, जिसका चरम थी फिल्म 'अलबेला' (1951), जिसमें 'शोला जो भड़के', 'भोली सूरत, दिल के खोटे' जैसे यादगार गीतों के साथ ही यह सदाबहार लोरी 'धीरे से आ जा रे अखियन में' भी थी। व्यक्तिगत तौरपर रामचंद्र 'सरगम' की सफलता से अधिक फ्रभावित थे कि उन्होंने अपने बांद्रा स्थित नये घर का नाम सरगम रख दिया।

वैसे रामचंद्र की सबसे बड़ी सफलता 'अनारकली' (1953) जिसका हर गाना 'कभी न मरने वाले गीतों' की सूची में है- 'ये जिंदगी उसी की है', 'आजा अब तो आजा', और 'मुहब्बत ऐसी धड़कन है'। इसमें शक नहीं है कि 'अनारकली' में रामचंद्र-लता की जोड़ी बेमिसाल रही, जो उनके बीच विशेष भावनात्मक संबंध का संकेत भी है। दिलचस्प यह है कि इस फिल्म के निर्माता गीता रॉय को लेना चाहते थे, लेकिन रामचंद्र ने लता पर बल दिया और गीता को मात्र एक गीत 'ए जाने वफा आ' मिला।

रामचंद्र अपनी स्पीड के लिए भी विख्यात थे। जब नौशाद को फिल्म 'आजाद' (1955) में एक गीत कंपोज करने के लिए दो सप्ताह का समय चाहिए था तो रामचंद्र ने सभी दस गीत दो सप्ताह में कंपोज कर दिए जिनमें 'राधा न बोले, न बोले', 'कितना हसीन है मौसम' और 'मरना भी मुहब्बत में कभी काम न आया' जैसे हिट गाने शामिल हैं।

रामचंद्र की सफलता व शुहरत लता के गायन पर अधिक निर्भर थी। दोनों की जोड़ी का एक यादगार गीत है 'तुम क्या जानो तुम्हारी याद में हम कित्ता रोए' (शिन शिनाकी बूबला बू, 1950)। इनके व्यक्तिगत संबंध में ब्रेक-अप हो जाने के बाद लता ने रामचंद्र के लिए गाना छोड़ दिया, जिससे रामचंद्र के करियर को जबरदस्त धक्का लगा, खासकर इसलिए भी कि नए युग के संगीतकारों जैसे एस डी बर्मन, रोशन, शंकर-जयकिशन व ओ पी नय्यर से चुनौती मिलने लगी थी। रामचंद्र ने आशा भोंसले की आवाज के दम पर अपने को फिर से स्थापित करने का फ्रयास किया, लेकिन कोई विशेष सफलता नहीं मिली। 'नवरंग' में कुछ हिट गीत- 'आ दिल से दिल मिला ले', 'तू छुपी है कहां' व 'आधा है चन्द्रमा रात आधी'- अवश्य थे और आशा का गाया 'दिल लगाकर हम ये समझे' (जिंदगी और मौत, 1964) भी सफल रहा, लेकिन 1960 के दशक के मध्य तक उनका लगभग रिटायरमेंट हो चुका था। बाद में उन्होंने दो मरा"ाr फिल्मों 'घरकुल' व 'धनंजयः' का निर्माण भी किया, उनमें अभिनय भी किया, लेकिन बिना किसी सफलता के। उन्होंने अकादमी ऑफ इंडियन म्यूजिक भी स्थापित की जिसकी देन कविता कृष्णामूर्ति हैं। रामचंद्र ने मरा"ाr भाषा में अपनी आत्मकथा 1977 में लिखी और 1982 में उनका निधन हो गया।

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