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इस चीनी पैकेज से गन्ना संकट का हल नहीं निकलेगा

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:24 Jun 2018 3:10 PM GMT

इस चीनी पैकेज से  गन्ना संकट का हल नहीं निकलेगा

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विजय कपूर

चीनी उद्योग को संकट से निकालने के लिए आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने 7000 करोड़ रूपये के पैकेज को मंजूरी दी है। इससे पहले 1500 करोड़ रूपये की घोषणा की गई थी। अगर इन दोनों को मिला दिया जाये तो यह 8500 करोड़ रूपये का पैकेज बै"ता है। सवाल यह है कि क्या यह पर्याप्त है? शायद नहीं। इसलिए विशेषज्ञों का अनुमान है कि सरकार के इस चीनी हस्तक्षेप से जमीनी स्तर पर कोई विशेष समाधान नहीं होता दिख रहा। इससे बढ़ता निवेश खर्च और निरंतर गिरते पी दामों की समस्याओं का कोई हल नहीं निकलता है। निरंतर गिरते चीनी निर्यात ने चीनी उद्योग की समस्याओं में इजाफा ही किया है। गौरतलब है कि 2011-12 में भारत ने 84,529.5 मिलियन रूपये की चीनी निर्यात की थी जो 2016-17 में घटकर 17,909.3 मिलियन रूपये रह गयी ।

वास्तव में गन्ने के दामों में जबरदस्त गिरावट व उत्पादन में भरमार ने यह स्थिति पैदा कर दी है कि गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर लगभग 22,000 करोड़ रुपया बकाया है। ध्यान रहे कि गेहूं व चावल को तो सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है, लेकिन गन्ना किसान अपना उत्पादन चीनी मिलों को सरकार द्वारा अधिसूचित उचित व क्षतिपूर्ति-विषयक दामों (एफआरपी) पर बेचते हैं। बहरहाल, सरकार द्वारा घोषित पैकेज से सीमित राहत तो अवश्य मिलेगी, लेकिन चीनी उद्योग के लिए यह अपर्याप्त है। भारतीय चीनी मिल्स संघ (इस्मा) द्वारा जारी फ्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि गन्ना किसानों को मिल्स एफआरपी उसी सूरत में दे सकती हैं, जब मिल से निकलते समय चीनी का दाम 35 रूपये किलो हो। वर्तमान वर्ष में गन्ने का एफआरपी 10.8 फ्रतिशत बढ़ा, जो पिछले पांच वर्ष में अधिकतम है, लेकिन अक्टूबर 2017 से शुरू हुए इस सत्र में चीनी के दामों में 24 फ्रतिशत से भी अधिक की गिरावट आयी है। ये आंकड़े नेशनल कमोडिटी एक्सचेंज के चीनी दाम डाटा के अनुसार हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि पिछले आ" वर्षों में भारत का चीनी उत्पादन औसतन 8-9 फ्रतिशत से बढ़ा है, खासकर इसलिए कि अब किसान अधिक उत्पादन करने वाले को-0238 बीज का फ्रयोग कर रहे हैं। लेकिन चिंता यह है कि चीनी उत्पादन में वृद्धि के बावजूद, पिछले पांच वर्षों में, 2015-16 को छोड़कर, चीनी के निर्यात में कमी आयी है क्योंकि ग्लोबल सप्लाई में भरमार है और ग्लोबल चीनी दाम गिरे हैं। अंतरराष्ट्रीय चीनी संग"न (आईएसओ) के अनुसार अक्टूबर 2016 में अपने चरम पर पहुंचने के बाद पिछले 18 माह में ग्लोबल चीनी दामों में लगभग 45 फ्रतिशत की गिरावट आयी है। चीनी का न्यूनतम पी मूल्य बढ़ाकर 29 रूपये फ्रति किलो करने के बाद आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने कहा है कि 'सरकार ऐसी व्यवस्था लागू करेगी जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि चीनी के दाम पूर्णतः नियत्रण में रहें। वर्तमान में, यह किया जायेगा और साथ ही चीनी मिलों पर स्टॉक रोकने की सीमा लागू की जायेगी'। सीमा सितम्बर 2018 तक सेट की जायेगी। स्टॉक रोकने से सरकार बाजार में जारी होने वाली चीनी की मात्रा का नियमन करती है। इससे चीनी के दाम नियंत्रित करने में मदद मिलती है।

चीनी उद्योग इस बात से सहमत नहीं है कि सरकार चीनी मिलों पर स्टॉक रोकने के अपने निर्णय को थोपे। इस्मा के संजय बनर्जी का कहना है कि ऐसे फ्रस्ताव मिलों की कार्यक्षमता को सीमित करते हैं और दीर्घकाल में उनकी ऋण सर्विस करने की क्षमता भी फ्रभावित होती है क्योंकि मिलों द्वारा उत्पादित 85 फ्रतिशत चीनी बैंकों में उनके वर्किंग कैपिटल लोन्स के एवज में गिरवी रखी होती है। मई में सरकार ने चीनी मिलों के लिए वित्तीय सहयोग के विस्तार की घोषणा की थी कि 2017-18 के चीनी सत्र (अक्टूबर-सितम्बर) में ाढश किये गये गन्ने के लिए 5.50 रूपये फ्रति क्विंटल दिए। यह लाभ केवल वर्तमान वर्ष के लिए घोषित किया गया। बनर्जी के अनुसार इससे पूरे उद्योग की मदद नहीं होती है। उनके अनुसार, "चीनी मिलों को सहयोग कुछ अनुदर्शी मापदंडों पर आधारित होता है और लगभग 40 फ्रतिशत चीनी मिलें इन पर खरी नही उतर पाती हैं।'

इस्मा की फ्रेस विज्ञप्ति से मालूम होता है कि सरकार ने जो 30 लाख मीट्रिक टन का बफर स्टॉक बनाया है वह केवल इस वर्ष की सरप्लस चीनी को ही कम करने में मददगार साबित होगा। चीनी मिलों को इस बात की चिंता है कि आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने अपनी विज्ञप्ति में गन्ना दाम नीति को चीनी के बाजार भाव के अनुरूप तार्किक बनाने का कोई फ्रस्ताव नहीं रखा है। गौरतलब है कि गन्ना दामों को चीनी के बाजार भाव के अनुरूप तार्किक बनाने का सुझाव सी रंगाराजन समिति ने दिया था जिसे आज तक लागू नहीं किया गया है, हालांकि चीनी मिलें इसकी मांग लम्बे समय से करती आ रही हैं। इस समिति ने अपनी 2012 की रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि गन्ना बकाया का वास्तविक पेमेंट दो चरणों में किया जाये, पहले चरण में मिल किसानों को फ्लोर फ्राइस (एफआरपी) अदा करें और बकाया पेमेंट इस बात पर निर्भर हो कि मिलें आखिरकार चीनी किस दाम पर बेचती हैं ? यह बैलेंस पेमेंट उस राजस्व को शेयर करने के सिलसिले में हो जो चीनी उत्पादन श्रृंखला में उत्पन्न होता है, जिसमें चीनी के बाय-फ्रोडक्ट भी शामिल हैं। राजस्व का बंटवारा किसानों व मिलों के बीच 70 ः 30 के अनुपात से हो। दूसरे शब्दों में चीनी के दाम बांटने का रिस्क दोनों मिलों व किसानों को रहेगा।

रंगाराजन समिति की रिपोर्ट को लागू करना राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील है। लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि कैराना से जली सरकार इसे निकट भविष्य में लागू करने की स्थिति में है, खासकर जब आम चुनाव (2019) लगभग सिर पर ही आ गये हों। कैराना लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी गन्ना किसानों के गुस्से के कारण ही हारी थी।

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