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नंबरों के पहाड़ का ये है कैसा पाव्यूह 'नीट' की टॉपर को डीयू में एडमिशन नहीं!

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:24 Jun 2018 3:11 PM GMT

नंबरों के पहाड़ का ये है कैसा पाव्यूह  नीट की टॉपर को डीयू में एडमिशन नहीं!

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शंभु सुमन

बिहार शिक्षा बोर्ड के साथ-साथ नेशनल एलिजिबिलिटी एंट्रेंस टेस्ट (नीट) की भी टॉपर कल्पना कुमारी की त्रासदी देखिए कि उसे डीयू के कम से कम टॉप 10 कॉलेजों में साइंस साइट में एडमिशन नहीं मिल सकता। क्योंकि उसे बिहार शिक्षा बोर्ड (बीएसईबी) से 12वीं में कुल 434 नंबर (86.8 फीसदी) मिले हैं। जबकि इस बार सीबीएसई 12वीं में पूरे देश की टॉपर मेघना को 500 में से 499 नंबर (99.8 फीसदी) मिले हैं। मेघना इतने नंबर पाने वाली अकेली लड़की नहीं है बल्कि उनके साथ 4 और छात्रों को भी इतने ही नंबर मिले हैं, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि डीयू के कुछ कॉलेजों के साथ-साथ देश के दूसरे महानगरों के भी कुछ नकचढ़े कॉलेजों में जो 99 और 99.5 तक की कटऑफ जारी की है, वह कटऑफ आम ही नहीं कितने खास छात्रों को भी नंबरों के पाव्यूह में फंसाकर उनको कहीं का नहीं छोड़ती। गौरतलब है कि जब नीट का रिजल्ट आया तो कल्पना के जरिये पूरे बिहार ने खुद को गौरान्वित महसूस किया था, तो क्या डीयू के कुछ कॉलेजों में एडमिशन पाना ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइस (एम्स) में एडमिशन पाने से ज्यादा मुश्किल है। जी, हां! क्योंकि यहां नंबरों की जो चूहा दौड़ है, उसका कोई ओरछोर नहीं है।

मालूम हो कि इस साल इस तरह के पाव्यूह में अकेली कल्पना ने ही खुद को फंसा नहीं पाया बल्कि उनके ही जैसे कई और छात्र हैं जो अपने-अपने बोर्ड में टॉपरों की टॉप-10 सूची में होने के बावजूद देश के करीब डेढ़ दर्जन नकचढ़े कॉलेजों के लिए कुछ भी नहीं है। हालांकि एक और विडंबना है कि तमाम छात्र जिन्होंने सीबीएससी बोर्ड में तो नंबरों का पहाड़ खड़ा कर दिया है, लेकिन मेडिकल-इंजीनियरिंग की इंट्रेंस परीक्षाओं में असफल हो गये हैं। आखिरकार ये कैसे विरोधाभासी पैमाने हैं, जो एक तरफ प्रोफेशनल पा"dपामों की प्रवेश परीक्षाओं में शानदार सफलता पाने वालों को कुछ कॉलेजों एडमिशन के लायक नहीं समझते तो दूसरी तरफ इस पैमाने के हिसाब से नंबरों का पहाड़ हासिल करके भी तमाम छात्र प्रोफेशनल पा"dपामों की प्रवेश परीक्षाएं नहीं पास कर पा रहे।

इस ाढम का सबसे विरोधाभासी उदाहरण तमिलनाडु से है। तमिलनाडु के त्रिची जिले की सुभाश्री को 12वीं की बोर्ड परीक्षा में 1200 में से 907 अंक (75.5 फीसदी) मिले थे, जबकि नीट की परीक्षा में उसे मात्र 24 अंक ही फ्राप्त हुए। इस नतीजे से उसे गहरा सदमा लगा और उसने अपने कमरे में 6 जून 2018 की देर रात फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली। सुभाश्री के बस ड्राइवर पिता ने परीक्षा की फ्रणाली और उसमें मिलने वाले अंकों के बड़े अंतर को लेकर नारजगी जतायी है और कहा है कि नीट परीक्षा खत्म कर देनी चाहिए। नंबरों से मिलने वाली खुशी की तह में छिपे एक गम की कहानी तमिलनाडु की ही मेधावी बेटी फ्रदीपा की भी है। उसे दसवीं में जहां 500 में 490 अंक मिले थे और पूरे जिले विल्लीपुरम में वह अव्वल आयी थी, वहीं 12वीं में उसने 1200 में 1125 अंक हासिल किए। डाक्टर बनने का सपना संजोए फ्रदीपा को साल 2017 की नीट में मात्र 155 अंक मिले, जो 12वीं की तुलना में एक बड़े अंतर के फ्रतिशत को दर्शाता था। हालांकि इस आधार पर उसका एडिमिशन फ्राइवेट मेडिकल कालेज में हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं करते हुए फ्रदीपा ने सरकार से मिले आर्थिक मदद से कोचिंग क्लासेस की। एक साल जमकर तैयारी के बाद वह 2018 में तमिल भाषा सें नीट की परीक्षा में शामिल हुई। इस बार उसे केवल 39 अंक ही मिले। इस परिणाम से दुखी उसने चूहे मारने वाली दवा पीकर आत्महत्या कर ली। उसके पिता ने बताया कि फ्रश्नपत्र में अंग्रेजी से तमिल में हुए अनुवाद की कई गल्तियां थी। इस बारे में फ्रदीपा ने सीबीएसई से शिकायत भी की थी। ऐसी ही घटना बीते साल एक दिहाड़ी मजदूर की बेटी के साथ भी हुई थी, जिसे तमिलनाडु स्टेट बोर्ड से 12वीं की परीक्षा में 1200 में 1176 के साथ 98 फीसदी नंबर मिले थे।

अगर नीट नहीं होता तो इस नंबर के आधार पर उसका मेडिकल में तमिलनाडु के नियमानुसार अंक के आधार पर वहां के किसी भी मेडिकल कालेज में हो जाता। इस संबंध में उसने सुफ्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ने के बावजूद हार गई। अंततः अपना जीवन खत्म कर लिया। इन अवसाद भरे मामले की वजह परीक्षाओं में मिलने वाले अंक फ्रतिशत ही है, जिसके आधार पर परीक्षा में सफल होने वाले की योग्यता आंकी जाती है। जबकि कई बार देखा गया है कि कम अंक फ्रतिशत पाने वाले भी अच्छे अंक पाने वालों की तुलना ज्यादा मेधावी, फ्रतिभावान और पढ़ाई के फ्रति जिम्मेदार होते हैं। हद तो तब हो जाती है जब कोई अपने राज्य में अव्वल आने वाला महज अंकों के कम फ्रतिशत के आधार पर केंद्र या दूसरे राज्यों में पीछे समझा जाता है। यही उसकी सफलता का पैमाना बनता है। दूसरी तरफ कई टॉपर भी आगे चलकर अपना फ्रदर्शन बरकरार नहीं रख पाते हैं और फ्रतियोगी परीक्षाओं के मोर्चे पर पिछड़ जाते हैं।

जहां तक बोर्ड की परीक्षाओं में बंपर नंबर आने की बात है तो ये कई कारणों से मिल जाते हैं, जिसे छात्रों की योग्यता का "ाsस पैमाना नहीं माना जा सकता है। एक समय था जब किसी को बोर्ड मैट्रिक या बारहवीं में 80 या 90 फ्रतिशत अंक मिलते थे तब काफी चर्चा होती थी, लेकिन आज बच्चे 99 फ्रतिशत तक अंक आने लगे हैं। इनकी संख्या दिन फ्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस बार सीबीएसई दसवीं के 1.31 लाख को 90 फ्रतिशत से अधिक अंक मिले हैं। अब सवाल यह नहीं है कि इतने नंबर किस तरह से आ रहे हैं? महत्वपूर्ण फ्रश्न यह है कि इसका व्यापक फ्रभाव किस तरह का पड़ रहा है ? यह बच्चों को कितना मजबूती और मेधावी बनाते हुए उनकी योग्यता का आकलन कर रहा है, या फिर वे भेदभाव की ग्रंथि के शिकार हो रहे हैं? अधिक नंबर आने के पीछे कॉपी जांचने में बरती जाने वाली पॉलिसी और पैरोकार की पै" भी बताई जाती है। इससे जुड़े मामले भी बिहार बोर्ड में देखे गए। इस बार ही कईयों के अंक पूर्णांक से अधिक दे दिए गए, तो कई वैसे भी थी, जिन्हें वैसे विषयों के भी अंक मिल गए, जिसमें वे शामिल ही नहीं हुए।

बहरहाल, परीक्षाओं में नंबरों की गरिमा बनाए रखने की जरूरत है, तो इसकी राष्ट्रीय स्तर की एकरूपता का होना भी आवश्यक है। ऐसा तभी संभव हो पाएगा जब पा"dपामों में औसतन समानता हो। परीक्षा के अलग-अलग स्तर वाले सवालों के सेट के आधार पर इस्तेमाल में आनेवाली मॉडरेशन पॉलिसी को भी सही नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इसके तहत परीक्षार्थियों का स्कोर बढ़ाकर 95 फीसदी तक किया जा सकता है, जबकि राज्यों के बोर्ड में ग्रेस र्माक्स का सहारा लिया जाता है। कॉपी जांचने का भी कोई "ाsस पैमाना या एकरूपता का नहीं होना भी एक समस्या है, जिसका असर सरकारी स्कूलों पर ज्यादा देखा जाता है। पेपर पैटर्न और मार्किंग का फ्रारूप बच्चों को भी कक्षा के दौरान ही बताया जाना चाहिए कि किस फ्रश्न के कैसे उत्तर के लिए कितने नंबर मिल सकते हैं?

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