धर्म नहीं धर्म के "sकदार हैं फ्रेमियों के दुश्मन?
ले उपदेश देते समय हर धार्मिक व्यक्ति जोर जोर स्वर में यही कहता हो कि धर्म हमें फ्रेम सिखाता है,नफरत नहीं। लेकिन आज से नहीं फ्राचीन काल से ही फ्रेमियों के लिए दुनिया में सबसे बड़ी बाधा धर्म के तथाकथित "sकेदार और उनके फ्रभाव से लबरेज धर्मभीरु लोग और समाज ही रहे हैं। इनमें फ्रेमी-फ्रेमिका के मां-बाप तक शामिल होते हैं। जो कहा गया है कि अजल से मुहब्बत की दुश्मन है दुनिया,तो दरअसल इसमें `यह दुनिया' धर्म की सत्ता ही है। निःसंदेह हर धार्मिक ग्रन्थ फ्रेम से भरा पड़ा है। लेकिन दिक्कत यह है कि सदियों से धर्म कुछ तथाकथित धार्मिक "sकेदारों की मनमानी व्याख्या के जरिए ही आम लोगों तक या कहिये व्यापक समाज तक पहुंचता रहा है। इसलिए इसका कोई मतलब नहीं रह जाता कि धार्मिक ग्रन्थों में लिखा क्या है? समाज के ज्यादातर लोगों ने तथाकथित धर्मग्रन्थों को पढ़ा ही नहीं होता और न ही इन्हें पढ़कर वास्तविकता जानने में इनकी कोई रूचि होती है।
हो सकता है एक जमाने में इस सबकी सुविधा न रही हो लेकिन आज हर तरह के ज्ञान और विचार की बुनियादी समझ कोई भी रख सकता है। लेकिन यह सब दुष्कर काम समझे जाते हैं। इसलिए दुनिया में बहुसंख्यक लोग आज भी धर्म और धार्मिक मान्यताओं के लिए धर्म के "sदेदारों के गुलाम हैं। चूंकि धर्म और धार्मिक सरोकार हमेशा कुछ धार्मिक "sकेदारों की मनचाही व्याख्या के रूप में आम लोगों तक पंहुचता रहा है और आज भी वैसा ही है। इसलिए इस बात का भी कोई फ्रभावकारी मूल्य नहीं रह जाता कि धर्म के बारे में धरती पर समय पर आये महापुरुषों द्वारा कहा क्या गया है ? वास्तविक नतीजों के लिए ये यूटोपियन तर्क ही है। पूरी दुनिया में धर्म को कर्मकांडों के "sकेदार ही व्याख्यायित और परिभाषित करते हैं,इसलिए धर्म अथवा जाति की सीमाओं से परे फ्रेम की हिम्मत हमेशा से एक बेहद जोखिमभरा चयन होता रहा है। यही वजह है कि आज भी विजातीय या विधर्मी फ्रेम अथवा शादी डर, दहशत और हेय की बायस है। यही वजह है कि किसी भी समाज का आम से आम व्यक्ति भी विधर्मी से फ्रेम करने या शादी को लेकर फ्रतिािढया (...और ज्यादातर समय बेहद कट्टर फ्रतिािढया) जताने में देर नहीं लगाता। फ्रेमियों के खिलाफ सिर्फ हिन्दुस्तान या पाकिस्तान जैसे पिछड़ी सोच के समाज में ही गुस्सा या नफरत नहीं है,यूरोप और अमरीका तक में यही हाल हैं। अमरीका में गोरे लोगों का समाज अपनी लड़कियों के काले और विधर्मी लोगों के साथ शादी को कतई बर्दाश्त नहीं करता। विधर्मियों के साथ फ्रेम के नाम पर आज भी लोग बिना एक पल सोचे विरोध में उतर आते हैं। मजे की बात यह है कि यह विरोध सिर्फ भावनात्मक या वैचारिक भर नहीं होता बल्कि मां-बाप से लेकर परिवार और समाज के "sकेदार तक फ्रेमियों के खिलाफ इस विरोध के स्वरूप हथियार तक उ"ाने में जरा भी नहीं हिचकते।
आखिर इस सच से कौन आंखें मूंद सकता है आज भी हिन्दुस्तान सहित समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में हर साल 500 से ज्यादा युवा जोड़ों की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी जाती है; क्योंकि वो मजहब या जाति की सीमाएं भूलकर किसी गैर मजहबी या विजातीय से प्यार अथवा शादी करने की हिमाकत की। इस मामले में भारत और पाकिस्तान में जरा भी फर्क नहीं है। कहने के लिए भले तथाकथित धर्म के "sकेदार समय समय पर रट लगाते हों कि परमात्मा और फ्रकृति एक हैं। अगर वाकई वे मानते हैं कि दोनों एक हैं तो सवाल है कि फिर समाज के ज्यादातर लोग धर्म के नाम पर जाति के नाम पर अलग क्यों हो जाते हैं? याद रखिये जाति धर्म का ही एक छोटी इकाई है।
इसका कारण यह है कि धर्म ने रटा दिया है कि प्यार करना बुरी बात है। यही नहीं यह भी जेहन में भर दिया गया है कि प्यार करना धर्म के उसूलों के खिलाफ है। ऐसे में अंदाजा लगाइए किसी दूसरे धर्म के शख्स के साथ प्यार को समाज में किस नजर से देखा जाएगा ? यह अकारण नहीं है कि दुनिया के किसी भी देश में दो भिन्न धर्म के लोगों के बीच प्यार को फ्रोत्साहन नहीं मिलता। वास्तव में इस नफरत या विरोध की बकायदा नींव तैयार की गयी है ताकि समाज में हमेशा एक विशेष किस्म की यथास्थिति बनी रहे। इसकी हर सत्ता को जरूरत होती है,फिर चाहे वह पत्थर युग हो या डिजिटल युग हो। वास्तव में समाज को लेकर अगर कुछ कर्मकांडों मां निरंतरता नहीं रहेगी तो बहुत से समाज के "sकेदारों को डर ही कि मौजूदा व्यवस्था नहीं रहेगी। व्यवस्था गडबडा जाने से शोषण का बारीक तंत्र बिखर जाएगा। इसलिए इस पारम्परिक व्यवस्था को कोशिशन हर जगह बनाये रखनी की कवायद होती है।
इसीलिये इंग्लैंड तक में दूसरी नस्ल या धार्मिक आस्था वालों से शादी पर नाक-भौं सिकोडी जाती है। दुनिया के हर सामज में आज की तारीख में ही नहीं हमेशा से यह रवैय्या रहा है कि किसी को प्यार करते देखो और अगर वे दो भिन्न भिन्न धर्मों के लोग हैं तो इस पर तुरंत एतराज जताओ। सवाल है जब धर्म फ्रेम के विरुद्ध नहीं हैं बल्कि ये धार्मिक "sकेदार हैं तो इन "sकेदारों को कैसे बेमतलब बनाये दुनिया ताकि धर्म के नाम पर फ्रेम का गला न घोंटा जा सके? इसका एक ही उपाय है-धर्म को खुद पढ़ा जाय,खुद समझा जाय और उसे मानने न मानने का निर्णय खुद लिया जाए। आज की तारीख में धर्म को खुद के जरिये जानना मुश्किल नहीं है इसलिए इन धार्मिक "sकेदारों की वैशाखी को छोड़ा जाए। तभी धर्म की कथनी और करनी में कोई लोजिकल तालमेल बि"ाया जा सकेगा।