आशा पारिख द हिट गर्ल
?कैलाश सिंह
आशा पारिख फिल्मों में छोटे-छोटे रोल कर चुकी थीं और उनका हीरोइन बनने का सपना अभी शेष था। ऐसे में आई एस जौहर ने उन्हें 'बेवकूफ' में काम करने का ऑफर दिया, जिसे निर्देशक विजय भट्ट के कहने पर उन्होंने "gकरा दिया क्योंकि वह उन्हें अपनी फिल्म 'गूंज उ"ाr शेहनाई' में लेना चाहते थे और लिया भी, लेकिन जल्द ही आशा पारिख को इस फिल्म से निकाल दिया। आशा पारिख के पास कुछ समय तक कोई काम नहीं था। तभी नासिर हुसैन उनके लिए फरिश्ता बनकर आए और 'दिल देके देखो' (1959) उन्हें ऑफर की। लेकिन इसमें भी एक समस्या थी। फिल्म के हीरो शम्मी कपूर चाहते थे कि वहीदा रहमान उनकी हीरोइन बनें। बहरहाल, नासिर हुसैन ने हस्तक्षेप करते हुए शम्मी कपूर से कहा कि वह एक बार कम से कम आशा पारिख से मिल तो लें। वह तैयार हो गए। जब दोनों की मुलाकात हुई तो उस समय 16-17 साल की आशा पारिख हेरोल्ड रॉबिन्स का उपन्यास 'कारपेटबेगर्स' पढ़ रही थीं। चूंकि इस उपन्यास में काफी 'अश्लीलता' है तो शम्मी कपूर ने कहा, "यह कम उम्र की बच्चियों के पढ़ने की किताब नहीं है।' आशा पारिख ने तुरंत जवाब दिया, "जी, चाचा जी।' और दोनों की उसी समय से अच्छी जोड़ी बन गई। आशा पारिख ने हमेशा शम्मी कपूर को चाचा कहकर संबोधित किया और शम्मी कपूर उन्हें मरते दम तक 'भतीजी' कहते रहे। 'दिल देके देखो' में भले ही आशा पारिख ने पर्दे पर शम्मी कपूर को दिल दिया हो लेकिन असल जीवन में वह फिल्म के निर्देशक नासिर हुसैन को दिल दे बै"ाrं।
वह नासिर हुसैन से शादी करना चाहती थीं, लेकिन वह पहले से ही शादीशुदा थे और आशा पारिख उनका घर बिगड़ना नहीं चाहती थीं, इसलिए उन्होंने कभी शादी ही नहीं की। नासिर हुसैन से अपने सम्बंध को आशा पारिख ने सार्वजनिक तौर पर कभी स्वीकार नहीं किया था, हमेशा यह कहती रहीं कि लम्बे समय तक उनका एक ब्वॉय फ्रेंड रहा और अंत तक वह रिलेशनशिप बहुत अच्छी रही। लेकिन अपनी आत्मकथा 'द हिट गर्ल' में उन्होंने यह राज खोल दिया कि वह ब्वॉय फ्रेंड नासिर हुसैन ही थे। उनके अनुसार जब नासिर हुसैन ने अपनी पत्नी के निधन के बाद घर से निकलना बंद कर दिया था तभी उनका आपस में मिलना बंद हुआ, लेकिन नासिर हुसैन के निधन (2002) के एक दिन पहले उन्होंने उनसे फोन पर बात की थी। क्या परिवार के न होने पर उन्हें अफसोस होता है?
आशा पारिख बताती हैं, "मेरे जीवन में एक विशेष व्यक्ति (नासिर हुसैन) था। मैं सामान्य महिला हूं... एक समय था जब मुझे अपना परिवार न होने पर अफसोस होता था। लेकिन अब जब मैं इतने विवाहों को टूटता हुआ देखती हूं तो सोचती हूं कि अविवाहित रहना ही बेहतर रहा। आज इतने जोड़े केवल इसलिए साथ हैं कि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है।'
आशा पारिख को एक बात का अफसोस अवश्य है कि उन्हें दिलीप कुमार के साथ काम करने का अवसर नहीं मिला। एक मौका (दास्तान, 1972) में आया भी था, लेकिन वह वैम्प की भूमिका नहीं करना चाहती थीं, जिसे बाद में बिंदु ने किया। अपनी पसंद की भूमिकाएं न मिलने के कारण ही उन्होंने फिल्मों में 1995 में काम करना बंद कर दिया। उनके अनुसार, "मुझे भाभी या मां की भूमिकाएं पसंद नहीं थीं कि एक अयोग्य पुरुष के लिए रोती रहूं जो खुद बाहर गुंडों से लड़ रहा हो और उसकी मां रसोई में उसके पसंदीदा व्यंजन तैयार कर रही हो। मै सारा एक्शन स्वयं ही करना पसंद करती हूं।'
आजकल आशा पारिख अपनी डांस अकादमी कारा भवन और उनके सम्मान में स्थापित उन्हीं के नाम के अस्पताल जोकि सांता ाढtज (मुंबई) में है की देखभाल करती रहती हैं। अभिनेत्री, निर्माता व निर्देशक आशा पारिख का जन्म एक मध्यम वर्ग के गुजरती परिवार में 2 अक्टूबर 1942 को हुआ था। उनके पिता फ्राण लाल पारिख हिन्दू थे और मां सुधा पारिख बोहरा मुस्लिम संफ्रदाय से सम्बन्धित थीं। चूंकि वह इकलौती सन्तान थीं, इसलिए पूरे परिवार का प्यार उन्हीं पर बरसता था। कम आयु में ही उनकी मां ने उन्हें क्लासिकल नृत्य कक्षा में भर्ती करा दिया और वह इसमें जल्द ही इतनी पारंगत हो गईं कि स्टेज शो करने लगीं। नामवर फिल्म निर्देशक बिमल रॉय ने उन्हें एक शो में देखा और उन्हें मात्र 10 वर्ष की आयु में 'मां' (1952) में और फिर 'बाप बेटी' (1954) में बाल भूमिकाएं दीं। इस फिल्म की असफलता से वह दुखी हुईं, लेकिन कुछ और फिल्मों में बाल भूमिकाएं करने के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए फिल्मी दुनिया छोड़ दी। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने फिर फिल्मों में किस्मत आजमाने का निर्णय लिया। 'दिल देके देखो' फिल्म मिली जो उनके 17 वें जन्मदिन पर रिलीज हुई। फिल्म हिट हुई और आशा पारिख 'हिट गर्ल' बन गईं, और समय के साथ आशा पारिख बॉलीवुड इतिहास की सबसे सफल व फ्रभावी अभिनेत्री बन गईं और 1992 में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पदम् श्री से सम्मानित किया। वह सेंसर बोर्ड की पहली महिला फ्रमुख बनीं। फिल्मों में उनके फ्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी मां को अनेक फिल्मों में ड्रेस डिजाइनर का काम दिलाया।
आशा पारिख के मनोज कुमार के साथ बहुत ही जटिल फ्रोफेशनल सम्बंध रहे। वह मनोज कुमार को बददिमाग (फिल्म फ्रीमियर पर नजरंदाज करने के लिए) लेकिन फ्रतिभाशाली समझती थीं, इसलिए उन्हें 'अपना बनाके देखो' (1962) में हीरो की भूमिका दिलाई। फिल्म फ्लॉप रही। फिर भी दोनों ने 1966 में 'दो बदन' फिल्म साथ की जो हिट रही और मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म 'उपकार' (1967) में लिया। जब सुबह के शॉट के लिए आशा पारिख देर से सेट पर पहुंचीं तो मनोज कुमार को गुस्सा आ गया। आशा पारिख ने अधिक रिटेक पर आपत्ति की तो मनोज कुमार ने उन्हें डांट दिया। आशा पारिख नाराज हो गईं और उन्होंने मनोज कुमार से बोलना बंद कर दिया, लेकिन फिल्म को पूरा किया। वह फिल्म के फ्रीमियर में शामिल नहीं हुईं, हालांकि इस फिल्म की सफलता ने उनके दाम बढ़ा दिए थे। बहरहाल, बाद में उन्होंने मनोज कुमार के साथ 'सजन' (1969) फिल्म की जो उन दोनों की साथ आखिरी फिल्म थी, जिसकी शूटिंग के दौरान वह आपस में बात करने लगे थे। 2009 में आशा पारिख ने मनोज कुमार को 'बहुत बुद्धिमान व्यक्ति' कहा और वह 2012 में आशा पारिख के 70 वें जन्मदिन पार्टी में शामिल हुए और सार्वजनिक तौरपर उनका हाथ पकड़ा, जो बहुत बड़ी बात थी क्योंकि अपनी पत्नी से बेइंतहा प्यार करने वाले मनोज कुमार के बारे में कहा जाता था कि वह किसी भी औरत को कभी छूते नहीं थे।