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गर्भ के दौरान संस्कारों का आधार

👤 Admin 1 | Updated on:17 Jun 2017 5:54 PM GMT

गर्भ के दौरान  संस्कारों का आधार

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?अपराजिता

प्राचीन भारतीय ग्रंथों की बात करें तो इसमें व्यक्ति निर्माण पर विशेष जोर दिया गया है। भारतीय मनीषियों की यह मान्यता रही है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को और अपने आसपास को यदि संस्कारवान कर ले तो पूरा समाज सुसंस्कृत और शिष्ट हो जाएगा। हिंदू संस्कारों की संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका है।हिंदू संस्कारों का आरंभ बिल्कुल शुरू से होता है। योग्य वर-वधू का मिलन ही वह आधार भूमि है जिस पर उसके बाद के संस्कार निर्भर करते हैं।

गर्भाधान संस्कार

भारतीय चिंतन भौतिक सुख को अपने जीवन का लक्ष्य नहीं मानते, इसलिए उनका प्रत्येक कर्म धार्मिक होता है। विवाह करते समय वर-वधू संस्कारवान संतान को जन्म देकर पितृ ऋण से मुक्त होने की प्रतिज्ञा करते हैं। गर्भधारण संस्कार इसी दिशा में किया गया महत्वपूर्ण चरण हैं। इस संस्कार के संदर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि माता-पिता गर्भधारण की विशेष प्रािढया द्वारा इच्छानुसार संतान को जन्म दे सकते हैं। इस प्रािढया में ब्रह्मांड में व्याप्त विशिष्ट आत्माओं का माता-पिता द्वारा आह्वान किया जाता है। श्रीमद्भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने संकेत किया है कि जो अपनी साधना को बीच में ही छोड़कर मृत्यु को प्राप्त होता है, वह पवित्र, श्रीमान और योगियों के परिवार में जन्म लेता है तथा अपनी साधना को पूर्ण करता है। पुराणों में इस प्रकार के कई प्रसंग आते हैं, जहां माता-पिता ने अपनी इच्छानुसार संतान की प्राप्ति की। रावण का जन्म इसकी स्पष्ट पुष्टि करता है। ऐसा ही एक प्रसंग वाल्मीकि रामायण में आता है। श्रीविष्णु देवताओं और ऋषि-मुनियों को यह आश्वासन देने के बाद कि वे पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतार लेंगे, यह विचार करने लगे कि कौन-सा गर्भ उनके तेज को धारण कर सकेगा। तब उन्होंने कौशल्या के गर्भ का चुनाव किया। इस प्रकार गर्भाधान द्वारा माता-पिता अपनी योग्यता के अनुसार संतान का चुनाव करते हैं। यही कारण है कि ऋषियों ने विवाह संस्कार के लिए वर-वधू की योग्यता विस्तार से चर्चा की है।

भावों की पवित्रता जरूरी

गर्भाधान संस्कार के लिए अथर्ववेद रात्रि के समय को ही उपयुक्त मानता है। इस समय क्योंकि सारी प्रकृति शांत होती है, गर्भाधान में किसी प्रकार के व्यवधान की आशंका नहीं होती। सहजता में मानसिक एकाग्रता बनी रहती है। इसीलिए वेद के मंत्र निर्देश देते हैं कि गर्भाधान संस्कार रात्रि में ही किया जाए। गर्भाधान के समय पति-पत्नी दोनो शारीरिक और मानसिक रूप से शुद्ध और पवित्र हों, इसलिए इससे पूर्व होमादि करने का निर्देश दिया गया है। संतान प्राप्ति के लिए किसी विशिष्ट आसन का भी संकेत वेद मंत्र नहीं देते। उन्होंने सहजता पर जोर दिया है। हां, वे पति पत्नी के विचार व मन की स्थिति पर अवश्य जोर देते हैं। इसलिए यहां उन्होंने परस्पर आलिंगन की बात कही है। गर्भाधान के समय दोनो में से किसी एक में यदि लज्जा या अपराध का भाव रहेगा तो उसका प्रभाव संतान पर होगा, ऐसी मान्यता है कि महाभारत में इस बात का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। महर्षि व्यास के सामने जब विचित्र वीर्य को लेने विधवा पत्नियां आईं तो एक व्यास के रूप को देखकर डर गई, उसने अपनी आंख बंद कर लीं, जबकि दूसरी भय से पीली पड़ गई। इसलिए एक पुत्र अंधा हुआ और दूसरे की संतान पीले की कांतिहीन। इसके विपरीत दासी जब व्यास के सामने पहुंची तो उसके मन में श्रद्धा और आस्था का भाव था। वह महर्षि व्यास के दर्शन करके स्वयं को परम सौभाग्यशाली मान रही थी। उसके मन में न भय था, न संकोच था, न ही लज्जा इसलिए उससे एक ऐसे पुत्र का जन्म हुआ जो संसार में धर्मात्मा तथा बुद्धिमानों में श्रेष्" महात्मा विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार जो भय-लज्जा से युक्त हो उसे सहवास क लिए जिसका मन न हो, ऐसी स्थिति में गर्भाधान नहीं करना चाहिए।

पुंसवन और स्त्राwषूय संस्कार

गर्भाधान के बाद जिस संस्कार को करने का विधान वेदों में किया गया है, उसे पुंसवन कहते हैं। इसका उद्देश्य है पुत्र की प्राप्ति। इस कार्य के लिए औषधि का प्रयोग किया जाता है। वैदिक मान्यता के अनुसार शमी वृक्ष पर उसे पीपल की जड़ को गर्भाधान के दिन से दो तीन मास तक स्त्राr को देने से पुत्र की प्राप्ति होती है। कन्या की प्राप्ति के लिए जब इसे किया जाए तो इसे स्त्राwषूय संस्कार कहते हैं। गर्भाधान होने के बाद लक्ष्मणा, वटशुंगा, सहदेवी और विश्वेदेवा इनमें से किसी एक औषधि को पीसकर उसकी तीन चार बूंदें गर्भिणी के दाहिने नासिका छिद्र में डालें तो पुत्र होता है और कन्या की प्राप्ति के लिए इसे बाएं नासिका छिद्र में डालें। इसी तरह गर्भस्थापना के दूसरे या तीसरे महीने में वटवृक्ष की जटा या उसकी पत्तियां लेकर स्त्राr के दाहिने नासापुट में सुंघाएं और कुछ अन्य पुष्ट तथा गुडच, गिलोय व ब्राह्मी औषधि खिलाएं। इन औषधियों का उद्देश्य गर्भिणी को ज्वर आद से बचाकर रखना हैं।

सीमंतोन्नयन संस्कार

इसके बाद होम आदि कर्मों का भी निर्देश ग्रंथों में मिलता है। इनमें प्रयुक्त मंत्रों में पति पत्नी को आश्वस्त करता है कि वह सदैव उसके साथ है तथा उसकी व आने वाली संतान के स्वास्थ्य की कामना करता है।

सीमंत शब्द का अर्थ है वह रेखा जो केशों को बीच में विभाजित करती है। उस भाग का उ"ना सीमंतोन्नयन है। इसका संबंध गर्भिणी माता की प्रसन्नता और गर्भस्थ शिशु के मानसिक और बौद्धिक विकास से है। इस संस्कार के लिए गर्भधारण के बाद का चौथा, छ"ा और आ"वां महीना श्रेष्" माना गया है। इन्हीं महीनों में बच्चे का मानसिक विकास होता है। इसके होम में चावल, तिल और मूंग की खिचड़ी की आहुतियां दी जाती हैं। पति अपने हाथों से अपनी पत्नी के बालों का जूड़ा बनाकर उसका शृंगार करती है। इसी के साथ होम से बची हुई खिचड़ी में घी डालकर उसमें गर्भिणी अपना प्रतिबिम्ब देखें, वहां उपस्थित स्त्रियां मनोरंजक बातों से गर्भिणी को प्रसन्न करने का प्रयास करें, वहां उपस्थित बड़े बूढ़े गर्भस्थ शिशु और गर्भिणी को स्वस्थ, सुंदर, बुद्धिमान और ओजस्वी होने का आशीर्वाद दें, वेदमंत्र आगे ऐसा निर्देश देते हैं।

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