जनाकांक्षाओsं को पतिबिंबित कर रही है देश की न्यायपालिका
सर्वदमन पाठक
भारत की आजादी अपना सात दशकों का सफर पूरा कर चुकी है। इस दौरान देश ने उपलब्धियों के कई गौरवमय सोपान गढ़े हैं। यह सच है कि हमारा लोकतंत्र भी इस अवधि में काफी पुष्ट हुआ है, लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि आजादी के जो लाभ आम आदमी तक पहुंचने चाहिए थे, वे उस तक नहीं पहुंच पाए। समृद्धि की रोशनी देश में बसने वाले करोड़ों गरीबों की कुटिया तक नहीं पहुंच पाई। या तो वह चंद लक्ष्मी पुत्रों की गगनचुंबी अट्टालिकाओं में ही अटककर रह गई या फिर राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों के हाथों में कैद हो गई। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सामाजिक-आर्थिक समानता एवं देश की खुशहाली का वह सपना बिखरने लगा जो कि आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाले शहीदों ने देखा था। पकारांतर से यह हमारी विधायिका और कार्यपालिका द्वारा देश की जनता के पति अपने दायित्वों की सोच-समझकर की जा रही अनदेखी का परिणाम था। इन परिस्थितियों में भारतीय शासन पणाली के इन दो पमुख अंगों के पति जनता में निराशा की भावना आना स्वाभाविक ही है। अब इसके तीसरे अंग न्यायपालिका ही जनता की आशाओं एवं आकांक्षाओं पर आ टिकी। न्यायपालिका ने देश की शासन पणाली में आई विकृतियों को दूर करने के लिए अपनी ओर से पभावी पहल कर यह आभास दिलाया है कि वह जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरने के लिए पूरी तरह तैयार है। न्यायपालिका से जैसी कि अपेक्षा थी वह अपने इस काम को साहसपूर्ण रचनात्मकता एवं युगबोध के अनुरूप विवेक के साथ अंजाम दे रही है। विभिन्न कांडों में सी.बी.आई. को कानूनी दायित्वों के निर्वाह के लिए सख्त निर्देश देने तथा समान नागरिक संहिता, पदूषण नियंत्रण, ताजमहल जैसे ऐतिहासिक स्मारकों के संरक्षण, सरकारी बंगलों के अनधिकृत कब्जों को हटाने, बलात्कार की शिकार महिलाओं को अंतरिम मुआवजा दिलाने जैसे मामले इस बात के जीते-जागते पमाण हैं।
हमारी न्यायपालिका ने एक्टिविज्म तक का यह सफर वास्तव में पतिबद्धता से गुजरते हुए तय किया है। न्यायपालिका की पतिबद्धता का यह आव्हान भूतपूर्व पधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने किया था। उन्होंने यह नहीं कहा कि पतिबद्धता उनके पति होनी चाहिए या संविधान के पति। उसकी शायद आपातकाल के उस दौर में जरूरत भी थी, जो आज भी हमारे सामने दुःस्वप्न की तरह झूल जाता है। जब देश में एक पकार से कानून का शासन ही उस समय निलंबित कर दिया गया था और उसने भी इसका विरोध करने का दुस्साहस किया, उसे जेल के सींखचों के पीछे भेज दिया गया था। भारत सरकार की दलील थी कि जीवन के अधिकार की गारंटी देने वाले अनुच्छेद 29 आपातकाल के लिए निलंबित कर दिए जाने की वजह से अदालतों को इन लोगों की बंदी पत्यक्षीकरण याचिकाएं सुनने का अधिकार नहीं है। सात उच्च न्यायालयों ने सरकार के इस तर्प को नामंजूर कर दिया, जबकि तीन उच्च न्यायालयों ने इस पर सहमति जताई। संवैधानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण यह मामला अंततः सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री रे ने इस पर विचार के लिए पांच सदस्यीय पीठ का गठन कर दिया, जिसमें श्री रे के अलावा चार अन्य न्यायाधीश श्री बेग, श्री सरकारिया, श्री सिंहल तथा जसवंत सिंह थे। कई कानूनविदों की राय थी कि इस तरह के नाजुक मसले पर विचार के लिए पुष्टि की जाने वाली पीठ में वरिष्ठतम न्यायाधीशों को शामिल किए जाने की परंपरा को नजरअंदाज कर दिया गया। पीठ में दो न्यायाधीश श्री सिंहल तथा श्री जसवंत सिंह तो उस समय इस शीर्षस्थ अदालत के कनिष्ठतम न्यायाधीश थे। वरिष्ठ अधिवक्ताओं की ओर से श्री दफ्तरी ने इस संबंध में अपने साथियों के दृष्टिकोण से मुख्य न्यायाधीश को अवगत भी कराया, लेकिन मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि मैं अपने भाइयों को आपसे ज्यादा अच्छी तरह जानता हूं। अंततः पीठ ने 4-1 के बहुमत से भारत सरकार के महान्यायवादी श्री रे के इस तर्प को मान लिया कि आपातकाल के दौरान यदि किसी व्यक्ति को गोली भी मार दी जाए तो उसे इस पर क्षतिपूर्ति के दावे का कोई हक नहीं है। निर्णय से असहमति जताने वाले एकमात्र न्यायाधीश श्री खन्ना को बाद में सुपरसीड कर दिया गया।
इसके बाद ही केशवानंद भारती पकरण के इस बहुचर्चित फैसले को उलटने की दिशा में न्यायालयीन पहल हुई, जिसमें संविधान के बुनियादी ढांचे को अपरिवर्तनीय माना गया था। मुख्य न्यायाधीश श्री रे ने 13 सदस्यीय पीठ भी गठित कर दी, जबकि इससे संबंधित कोई पकरण अदालत के समक्ष विचाराधीन नहीं था। आखिर अदालत को असुविधाजनक स्थिति का सामना करते हुए पीठ भंग कर देनी पड़ी। केशवानंद भारती पकरण में फैसला देने वाले न्यायाधीशों श्री शैलट, श्री हेगड़े तथा श्री ग्रोवर को अवश्य पतिबद्धता के अभाव की वजह से सुपरसीड होना पड़ा। यह कुछ हद तक सही है कि सत्तारूढ़ दलों का चरित्र सत्ता पर थोड़ा बहुत
पभाव डालता है, लेकिन सत्ता का अपना जो बुनियादी चरित्र है, किसी भी सरकार पर वही हावी रहता है। यही वजह है कि आपातकाल के बाद सत्तारूढ़ जनता पार्टी सरकार ने भी इसी पवृत्ति का परिचय देते हुए बिना किसी औपचारिक आदेश के गांधी परिवार के पासपोर्ट जब्त कर लिए। सर्वोच्च न्यायालय में मेनका गांधी द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई के पूर्व एटार्नी जनरल ने अदालत को सूचित किया कि सरकार पासपोर्ट लौटाने को तैयार है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी सुनवाई पर ही जोर दिया तथा अपने ताजा फैसले द्वारा अपने ही पुराने फैसले को उलटते हुए अनुच्छेद 29 को वैध ठहरा दिया।
आपातकाल के बाद स्थितियां सामान्य हुईं। देश की न्यायपालिका ने पूरी गरिमा के साथ आचरण करते हुए अब संवैधानिक दायित्वों के निर्वाह के पति पतिबद्धता दिखाते हुए एक्टिविज्म तक का सफर तय किया।
कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका द्वारा राष्ट्रहित एवं जनहित के बदले खुद के हितों को साधने में मशगूल हो जाने से लोकतंत्र में टूटती जनास्था को पुनर्स्थापित करने के लिए न्यायपालिका आज जो पहलकारी (एक्टिविस्ट) भूमिका अदा कर रही है, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है, लेकिन जन आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए न्यायपालिका द्वारा अभी काफी कुछ किया जाना अपेक्षित है। इनमें जमानत, अदालत की अवमानना तथा न्याय में विलंब जैसे मुद्दे पमुख हैं। जमानत वास्तव में कानून के सबसे जटिल मुद्दों में से एक है। अनुच्छेद 29 में कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित पकिया को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को किसी भी तरह उसकी स्वतंत्रता से वंचित नहीं रखा जा सकता, लेकिन इसके लिए कानून स्थापित करने की कोई पकिया नहीं है और जमानत देना न्यायालय के विवेक पर अधिक निर्भर करता है। गुडिकांती नरसिंहुलु के विरुद्ध लोक अभियोक्ता मामले में न्यायाधीश कृष्ण अय्यर द्वारा इस संबंध में कहा गया है कि यह जमानत संबंधी निर्णय नियम द्वारा शासित होना चाहिए। इसे मनमानीपूर्ण, अस्पष्ट नहीं बल्कि कानून एवं नियम के अनुसार होना चाहिए। यह निर्णय किसी के खिलाफ न होकर विधि द्वारा स्थापित सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। इस संबंध में वास्तविकता से रूबरू होने के लिए दो उदाहरण काफी हैं। इनमें एक ओर तो तंदूर कांड के अभियुक्त सुशील शर्मा ने मदास में एक दंडाधिकारी की अदालत से अपनी जमानत करवा ली, जबकि बिस्कुट किंग पिल्लै को इलाज के लिए मांगी गई जमानत नहीं दी गई और बीमारी की वजह से ही उसकी जेल में मृत्यु हो गई। एक समय तो कलकत्ता हाईकोर्ट जमानत देने के मामले में इतना उदार माना जाता था कि बैंगलोर तक से वहां पहुंचकर लोग जमानत करा लिया करते थे। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री चिनप्पा ने इस पर सख्त टिप्पणी भी की थी। अदालत की अवमानना के मामले में भी न्यायालयों का काफी कीमती समय बर्बाद होता है। ऐसे मामलों में दोषी निश्चित ही सजा के पात्र हैं, लेकिन यदि न्यायाधीश दूसरों के पति संवेदनहीन तथा खुद के पति काफी संवेदनशील हो तो दंडित करने का अधिकार उसके हाथों में खतरनाक हो सकता है। अदालतों को अवमानना संबंधी अधिकारों के इस्तेमाल में शालीनतापूर्ण उदारता का परिचय देना चाहिए।