पेट्रोल-डीजल के दामों में कटौती से `कहीं खुशी-कहीं गम'
आदित्य नरेन्द्र
आखिरकार केंद्र की मोदी सरकार ने पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा से पूर्व अपना धोबीपाट दांव चल ही दिया। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक ओर जहां तेल कंपनियों के साथ मिलकर पेट्रोल-डीजल को ढाई रुपए सस्ता करने की घोषणा कर दी वहीं दूसरी ओर राज्यों से भी इतनी ही राहत देने की अपील कर डाली। केंद्र की अपील पर लगभग एक दर्जन राज्य सरकारों ने तुरन्त इस पर प्रतिक्रिया देते हुए अपने यहां भी पेट्रोल-डीजल की कीमतें घटाने का ऐलान कर दिया। इससे अभी तक पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों को लेकर केंद्र सरकार को जनता के प्रति असंवेदनशील बताने वाली विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के आगे धर्मसंकट की स्थिति पैदा हो गई है। उन्हें इस सवाल का जवाब आज नहीं तो कल अवश्य देना होगा कि केंद्र सरकार ने तो अपने हिस्से की राहत दे दी लेकिन उनकी राज्य सरकार उन्हें राहत देने के लिए आगे क्यों नहीं आतीं। जहां तक भाजपा शासित सरकारों का सवाल है तो वहां की जनता बेशक केंद्र और राज्य की ढाई-ढाई रुपए की राहत से पूरी तरह संतुष्ट न भी हो तो भी उसने इस राहत का स्वागत किया है। इस राहत में केंद्र सरकार ने एक्साइज ड्यूटी में डेढ़ रुपए की कटौती की है और एक रुपए की कटौती का बोझ तेल कंपनियां उठाएंगी। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने पिछले वर्ष अक्तूबर में भी दो रुपए घटाए थे। एक्साइज में कटौती से केंद्र सरकार को साढ़े 10 हजार करोड़ के राजस्व का नुकसान होगा। जबकि कंपनियों पर नौ हजार करोड़ का बोझ पड़ेगा।
दरअसल विपक्ष के पास मोदी सरकार के खिलाफ आगामी चुनाव में दो बड़े हथियार थे। एक राफेल में कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा और दूसरा डीजल-पेट्रोल की बढ़ती कीमतें। जहां तक राफेल की बात है तो इस ग्राम प्रधान भारत में ग्रामीण इलाकों के लोग राफेल के बारे में शायद ही कोई जानकारी रखते हों। यह मुद्दा पीएम मोदी की साफ-सुथरी व्यक्तिगत छवि के चलते शहरी मतदाताओं के बीच वैसी पकड़ नहीं बना पाया है जैसी विपक्ष को उम्मीद थी। ऐसे में ले-देकर विपक्ष के पास सत्ता में अपनी वापसी के लिए पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों का मुद्दा ही बचा था क्योंकि खेतों की सिंचाई और ट्रैक्टर को चलाने के लिए किसानों को डीजल की जरूरत पड़ती है। इस तरह पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों का असर देश के लगभग हर व्यक्ति पर पड़ रहा था। केंद्र सरकार द्वारा इसके दामों में कमी की घोषणा से विपक्षी दल भौचक्का रह गए हैं। मतदाता उनसे पूछ रहे हैं कि पेट्रोल-डीजल पर राज्य सरकारें भी तो अच्छा-खासा टैक्स वसूलती हैं। जब भाजपा शासित राज्य सरकारें टैक्स में कमी कर लोगों को राहत प्रदान कर सकती हैं तो गैर एनडीए सरकारें ऐसा क्यों नहीं कर सकतीं। हालात देखिए, दिल्ली में पहले पेट्रोल-डीजल उसके पड़ौसी राज्यों हरियाणा और उत्तर प्रदेश से सस्ता हुआ करता था। लेकिन हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा टैक्स में कटौती के बाद हालात उलटे हो गए। अब दिल्ली में पेट्रोल-डीजल पड़ौसी राज्यों से महंगा है क्योंकि दिल्ली सरकार ने अभी तक टैक्सों में कटौती का कोई फैसला नहीं किया है। इससे सीमावर्ती क्षेत्रों में पड़ने वाले पेट्रोल पंपों को बिक्री में कमी की आशंका है। हालांकि केंद्र सरकार के इस दांव को बेअसर करने के लिए विरोधियों की ओर से कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार ने आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया है और चुनावों के बाद स्थिति पहले जैसी हो जाएगी। सच तो यह है कि पेट्रोल-डीजल के दामों को खुले बाजार से जोड़ने के बाद सरकार के पास ज्यादा विकल्प नहीं बचते। भारत कूड ऑयल के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक है। हमें अपनी जरूरत का 80 फीसदी के लगभग आयात करना पड़ता है। पेट्रो उत्पादक देशों के संगठन ओपेक द्वारा उत्पादन वृद्धि न करने और अमेरिका-ईरान के बीच तनातनी के जारी रहने से पेट्रोल-डीजल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों पर गहरा असर पड़ा है। डॉलर 73.81 रुपए तक गिरा है जबकि कच्चा तेल 86 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया है। इसके 100 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचने की आशंका भी जताई जा रही है। तेल कंपनियों पर एक रुपए प्रति लीटर का बोझ डालने की खबर आते ही ऑयल कंपनियों के शेयर बुरी तरह से टूट गए। इससे कंपनियों को अपनी बैलेंसशीट दुरुस्त रखने में दिक्कत आ सकती है। स्पष्ट है कि विपक्ष चुनावों को लेकर जो भी राजनीतिक आरोप लगाना चाहे यह उसका विशेषाधिकार है लेकिन इस राहत से आम आदमी को कुछ न कुछ फायदा जरूर हुआ है। फिलहाल यह तय है कि जब तक भविष्य में दूरगामी उपाय अपनाते हुए विदेशों से आयातित तेल की निर्भरता को कम नहीं किया जाता तब तक सरकार, विपक्षी दल, आम नागरिक और शेयर मार्केट कभी खुशी-कभी गम के ऐसे हालात से रूबरू होते रहेंगे।