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हादसे-मुआवजे-आरोप-पत्यारोप और मानव जीवन

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:22 Oct 2018 3:52 PM GMT
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तनवीर जाफरी

बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व, विजयदशमी का जश्न मना रहे देशवासियों को एक बार फिर उस समय गहरा सदमा पहुंचा जबकि देश में चारों ओर से रावण दहन के समाचार आने के साथ-साथ अमृतसर के उस हादसे की दर्दनाक खबर सुनाई दी जिसमें कि रावण दहन देखने आए अनेक लोग तेज रफ्तार से आती हुई ट्रेन की चपेट में आ गए। निश्चित रूप से हादसे के शिकार लोगों या उस आयोजन से जुड़े लोगों को ही नहीं बल्कि पूरे देश को इस समाचार से बहुत सदमा पहुंचा। खुशियों व जश्न के माहौल के बीच इस पकार की कोई भी घटना अथवा दुर्घटना निस्संदेह रंग में भंग घोलने का ही काम करती है। बहरहाल ईश्वर की मर्जी को कोई टाल ही नहीं सकता। इस दुर्घटना के बाद भी वही हुआ जो हमारे देश में हमेशा होता आया है। यानी घटना की जिम्मेदारी किसकी है, इसे लेकर आरोपों व पत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। चूंकि पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और हादसे के समय होने वाले रावण दहन आयोजन में मुख्य अतिथि पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की विधायक पत्नी नवजोत कौर थीं तथा कांग्रेस के एक स्थानीय पार्षद आयोजन समिति के पमुख थे इसलिए भारतीय जनता पार्टी व अकाली दल के नेताओं ने आयोजन कर्ताओं, आयोजन की अनुमति, श्रीमती सिद्धू के कथित रूप से हादसे के बाद कार्यकम छोड़कर चले जाने, रेलवे लाइन के किनारे आयोजन करने के औचित्य जैसे सवाल खड़े करने शुरू कर दिए तो दूसरी ओर कांग्रेस के लोग रेल विभाग को हादसे का जिम्मेदार बताते हुए केंद्र सरकार पर निशाना साधने लगे। जबकि रेल विभाग ने इस हादसे की जिम्मेदारी लेने से यह कहकर इंकार किया कि दुर्घटना के शिकार लोगों द्वारा रेल की जमीन पर अनधिकृत रूप से घुसपैठ की गई थी जिसके परिणामस्वरूप यह हादसा पेश आया। रेल विभाग द्वारा यह भी कहा गया कि चूंकि हादसे में मरने वाले लोग रेल यात्री नहीं थे इसलिए रेलवे द्वारा उन्हें मुआवजा दिए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। जबकि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह ने मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपए दिए जाने की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर डाली।

परंतु इस हादसे के बाद एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि क्या हमारे देश में मानव जीवन का मूल्य इतना सस्ता है कि जिस समय कोई दुर्घटना घटती है उस समय पक्ष-विपक्ष के लोग एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराएं, मुआवजे घोषित किए जाएं और दुर्घटना के वर्तमान अध्याय को बंद कर किसी अगले हादसे का इंतजार किया जाए? अमृतसर में 19 अक्तूबर की शाम को हुई दुर्घटना हमारे देश की कोई पहली दुर्घटना नहीं है। भारतवर्ष में अब तक सैकड़ों ऐसे हादसे हो चुके हैं जिसमें सामूहिक रूप से बड़ी संख्या में लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी हैं। हरिद्वार व इलाहाबाद में पुंभ के मेलों के दौरान रेलवे स्टेशन पर, पटना में 2014 में इसी विजयदशमी के दिन भगदड़ में और इसी पकार 2014-15 में झारखंड में, जनवरी 2011 में केरल के सबरीमाला मंदिर में तथा इसी पकार अनेक बड़े आयोजनों में भगदड़ अथवा किसी अन्य हादसे के कारण आम लोगों की मौतों के समाचार आते रहते हैं। और ऐसे हादसों के बाद हमारा देश फिर किसी नए हादसे की खबर से रूबरू हो जाता है। इन हादसों के बाद पशासन को जिम्मेदार ठहराना, आयोजन की अनुमति पर सवाल खड़ा करना या पशासनिक लापरवाही को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करना जैसी बातें इस पकार की दुर्घटनाओं से निजात दिलाने का स्थायी हल नहीं हैं।

सौभाग्य से मैं भी देश के उस श्री रामलीला क्लब बराड़ा का संयोजक हूं जो विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले का निर्माण गत पंद्रह वर्षों से करता आ रहा है। पिछले सात वर्षों तक लगातार मेरे क्लब का यह आयोजन भी बराड़ा रेलवे स्टेशन के बिल्कुल समीप ही हुआ करता था। पशासन द्वारा अपनी शर्तों के अनुसार मुझे अनुमति भी पत्येक वर्ष दी जाती थी। लाखों लोगों की शिरकत रावण दहन के दिन होने के वजह से हजारों दर्शक रेलवे लाइन पर खड़े होकर ही रावण दहन का दृश्य देखते थे। परंतु ईश्वर की कृपा से आज तक कोई मामूली सा हादसा भी दरपेश नहीं आया। अमृतसर की घटना ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि खुदा न ख्वास्ता यदि बराड़ा में रावण दहन के दौरान कोई हादसा हो गया होता तो उस समय भी यही सवाल किए जाते कि आयोजन की अनुमति किसने दी, रेलवे लाइन के किनारे आयोजन क्यों किया गया? हादसे के लिए आयोजक जिम्मेदार या पशासन? आदि-आदि। पंरतु कोई भी यह कहने का साहस नहीं करता है कि जनता स्वयं खुद को सुरक्षित रखने के उपाय आखिर क्यों नहीं करती? हमारे देश में हजारों बार ऐसी घटनाएं हुई हैं जबकि नदी को पार करती हुई कोई नाव केवल इसलिए डूब गई कि उसमें अत्यधिक यात्री सवार थे। अब इस घटना में नदी जिम्मेदार है या नाव चालक? या फिर डूबने वाले वे लोग जो बेसब्री और जल्दबाजी के चलते अपनी जान गंवा बैठे?

रेल गाड़ियां हमेशा अपनी ही पटरियों पर दौड़ती हैं और रेल की पटरियां रेलवे की जमीन पर ही बिछाई जाती हैं। यदि कोई दूसरा व्यक्ति या वाहन रेल की पटरी पर घुसपैठ करता है और किसी दुर्घटना का शिकार होता है तो वह उसकी जिम्मेदारी है न कि रेल विभाग की। परंतु हमारे देश के तथाकथित सजग व जागरूक नागरिक भी अकसर रेल फाटक बंद होने के बावजूद अपनी मोटर साइकिल, स्कूटर, साइकिल-रिक्शा व रेहड़ी आदि गैर कानूनी रूप से निकाल का रेल फाटक पार करते हैं और अनेक हादसे होते रहते हैं। स्वतंत्र भारत में अब तक हजारों ऐsसे हादसे हुए होंगे जिनमें ट्रेन से टकरा कर बसें, स्कूली बच्चों की बसें, ट्रैक्टर, कारें यहां तक कि बारात से भरी बसें व ट्रैक्टर-ट्रालियां तहस-नहस हो गईं। परंतु इन हादसों से भी शायद अभी तक सबक नहीं लिया गया। यही वजह है कि अभी भी इस पकार के दुखदायी समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। पुंभ के मेलों में भगदड़ मचती है। तमाम लोग मारे जाते हैं। इन हालात में आप यह सवाल नहीं पूछ सकते कि मेले की अनुमति किसने दी थी। हां इतना जरूर है कि भीड़-भाड़ वाले स्थान पर पूर्व सूचना मिलने के बाद तथा आयोजन की अनुमति होने की स्थिति में कानून व्यवस्था सुनिश्चित करना पुलिस व पशासन की जिम्मेदारी है। परंतु इसके साथ-साथ जनता को भी यह सोचना होगा कि उसके द्वारा उठाया जाने वाला कोई भी कदम उसके लिए खुद कितना हितकारी अथवा पलयकारी है?

ऐसी दुर्घटनाओं से देश के लागों को सबक लेना चाहिए। पत्येक व्यक्ति को अपनी सुरक्षा स्वयं सुनिश्चित करनी चाहिए। यदि आप सड़क के बीचो-बीच चल रहे हैं तो दुर्घटना का पूरा खतरा मोल ले रहे हैं। यदि आप रेलवे लाइन पर खड़े होकर कोई नजारा देख रहे हैं तो तेज रफ्तार रेल गाड़ी आपको देखकर रुकने वाली नहीं क्योंकि तकनीकी दृष्टि से भी यदि तेज रफ्तार गाड़ी रोकने की कोशिश रेल ड्राईवर द्वारा की जाए तो कोई और भी बड़ी दुर्घटना हो सकती है जिससे रेल यात्रियों की जान भी खतरे में पड़ सकती है। सरकारें इस पकार के हादसों में मुआवजे तो जरूर दे देती हैं परंतु मुआवजों से उस मृतक व्यक्ति की वापसी नहीं हो सकती और पभावित परिवार अपने एक सदस्य से वंचित हो जाता है। लिहाजा देश को अब दुर्घटनाओं, मुआवजों व आरोपो-पत्यारोपों के पारंपरिक दौर से उबरने की जरूरत है तथा एक वास्तविक जागरूक नागरिक बनकर अपनी रक्षा स्वयं करने के उपाय सोचने की जरूरत है।

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