बुढ़ापा सुख-चैन से बीते, इसकी तैयारी पहले से करनी होगी
बुढ़ापा खराब न हो; बच्चे फालतू का समझ कर अलग-थलग न कर दें; रोटी के लिए किसी का मोहताज न होना पड़े; कोई बड़ी बीमारी न लग जाए; बच्चे इज्जतदार तरीके से कमाने लगें, यही चाहता है हर कोई उम्र की ढलान पर। अकसर यह सब उसे सुलभ रहता है जिसने ऐसे कर्म कर रखे हों, यकायक या अनायास मन-चित्त के अनुकूल नहीं हो जाता।
आप बुजुर्गवार हो गए हैं, यही काफी नहीं है कि आपका दर्जा बढ़ जाए। कई बुजुर्ग सोचते हैं, उम्र मायने हैं तजुर्बा और अमूनन इस खुशफहमी में जीते हैं कि उनसे बेहतर ज्ञानी और सलाहकार कोई नहीं, भले ही उनके कार्य और आचरण वाहियात रहे हों। दर असल उन्होंने बै"s-"ाले, नसीहतें देने में ही जिंदगी के बेहतरीन वर्ष बिता डाले। एक जमात उनकी है जो अपने को फालतू का मानने लगते हैं। इलेनॉर रूजवेल्ट के अनुसार बुढ़ापे का सबसे दुखद पक्ष स्वयं को गैरजरूरी और बेकारा समझना है; ढलती उम्र में खुशी का राज है जीवन में यथासंभव सक्रिय रहें, दूसरों के लिए उपयोगी बनें, "ाsस योगदान देने में व्यस्त रहें और आगे की सोचें।
कर्म" रहेंöहाथ-पांव छोड़ देने के संदर्भ में एक वाकिया याद आता है। एक साथी को अपनी कार लंबी अवधि के लिए नजदीकी मित्र के यहां खड़ी करनी पड़ी। तीन महीने बाद लौटे तो देखा दो टायरों में पंक्चर थे। एक्सपर्ट से बात की गई, उसने बताया, गाड़ियां खड़ी रहने के लिए नहीं निर्मित की जातीं। एक ही पॉइंट पर लंबे समय तक वाहन के खड़े रहने से समूचा लोड कुछ बिंदुओं पर पड़ता है जिससे पंक्चर हो सकता है, टायर भी खराब हो सकते हैं। मुझे अपने दायरे में दो लोगों की याद आई जिन्हें "ाrक"ाक चलते दुपहिए को साल दो साल खड़ा रखे जाने के बाद कबाड़ी को लोहे के भाव बेचना पड़ा था।
रसोई में बंद पड़ी मिक्सियों या अन्य उपकरणों की ऐसी ही गत के उदाहरण आपके सामने होंगे। उम्र के साथ आप यदि अपने मन और शरीर के अंगों-पत्यगों से निरंतर काम लेना बंद कर देंगे तो उनकी क्षमता धीमे-धीमे जरब होती जाएगी और एक दिन वे पूरी तरह निक्रिय हो जाएंगे। दूसरी ओर कहीं योगदान करते रहेंगे तो मन और शरीर दोनों दुरुस्त रहेंगे।
सेवाभाव तो गुजरे जमाने की बात हो गई है। आज के दौर में बच्चे व कमतर आयु के परिजन बुजुर्गों को अपमानित न करें, दुत्कारें नहीं, समय पर पेम से भोजन परोस दें, यही कम सेवा नहीं।
उम्रदराजी स्वीकार करें, वर्तमान में जिएंöएमिली डिकिंसन ने कहा था, बुढ़ापा धीमे-धीमे नहीं बल्कि यकायक आता है। इसकी तुलना टॉयलेट पेपर से गई है, जब अंतिम छोर नजदीक आता है तो जल्द-जल्द खत्म हो जाता है। जीवन क्षणभंगुर है। जो दुनिया में आया है उसे जाना है, इसकी जानकारी यह हर किसी को है किंतु इस सत्य पर विचार नहीं किया जाता। किसी ने सुझाव दिया, मरघट सुनसान इलाके में नहीं, बल्कि शहर के ऐन चौराहे पर बनाया जाना चाहिए ताकि सभी आने जाने वालों को जीवन का अंतिम सत्य कौंधता रहे और वे सदाचार बरतें। जब हम मृत्यु के बारे में गंभीरता से विचारेंगे तो आपसी विद्वेश, कलह, मनमुटाव खत्म हो जाएंगे। जब यह अहसास हो जाएगा कि समय सीमित है और जमापूंजी साथ ले जाने की व्यवस्था नहीं है तो इसे खुले हाथों जरूरतमंदों को बांटने की गुंजाइश बनेगी। दूसरों को उनकी अनजाने या जानबूझ कर की गई चूकों, अपराधों को माफ करते रहें; आपके खिलाफ जो अनर्गल, बेसिरपैर उगलते रहे उन्हें भी माफ कर दें। पतिशोध का भाव संजोए रखने से आपका ही दिल मलिन होगा और खुशियों का आस्वादन लेने में अक्षम हो जाएंगे।
परिपक्व उम्र में यदि आप निराश-हताश रहते हैं तो संभावना है कि आप अतीत में जीते रहते हैं, गुजरी बातें दिल से लगाए बै"s हैं और यदि बेचैन, उद्विग्न रहते हैं तो भविष्य में यानि आगे की आशंकाएं और भय आपको त्रस्त करते रहते हैं। दोनों स्थितियां आपके मन और शरीर को बीमार कर देंगी, जीना हराम हो जाएगा। वर्तमान में जीना सीख जाएंगे तभी जीवन की संध्या सुकून-शांति से गुजरेगी। अतीत और भविष्य दोनों आपके नियंत्रण में नहीं हैं, आपके पास है तो बस इक पल। जैसा आप करते रहे उसी के अनुकूल आपको मिला, अपने कर्म अब भी सुधारना शुरू कर दें।
थोड़ी देर के लिए अपने बचपन में लौट जाएं, जब आप दस-बारह साल के, तीन फुटे रहे होंगे। तब तनिक बड़े, पंद्रह-सोलह साल वाले बच्चे भी बहुत बड़े लगते थे। सदा छोटे रहने का यह सिलसिला ताउम्र चलता रहता है, यह कभी नहीं लगता, अब हम बड़े हो गए हैं। हां, जब क्रमवार हाथ-पांव, आंखें, जीभ वगैरह खासे ढ़ीले पड़ जाते हैं, भुलक्कड़पन बढ़ जाता है, सांसे छोटी होने लगती हैं और पहले आगे-पीछे रहने वाले कन्नी काटने लगते हैं तब अहसास होता है कि जीवन की संध्या आ गई है। अमेरिकी उद्यमी बर्नाड बरूच कहते थे, `मैं कभी बूढ़ा नहीं होऊंगा, मेरी जितनी भी उम्र होगी बुढ़ापा उसके पंद्रह वर्ष बाद आएगा।' चाहे सत्तर-अस्सी पर पहुंच जाएं, खुद को बूढ़ा समझेंगे तो बैंड की धुन पर नहीं मटक सकेंगे, जीवन नीरस हो जाएगा। आपको नाती-पोतों का सान्निध्य पाप्त है तो आप खुशकिस्मत हैं। हाथ थामे उन्हें घुमाएं फिराएं, उनकी जिज्ञासाएं शांत करें। उनकी स्वभावगत मासूमियत, और खिलखिलाहट तथा आपका दिया लाड आप और उनके दोनों पक्षों के दूरगामी हित में होगा। उम्र को ढलने से नहीं थामा जा सकता किंतु स्वयं को ताउम्र समृद्ध करते रहना हमारे हाथ में है। लंबी उम्र का मलाल नहीं करें, सभी की किस्मत में यह नहीं होता। यों महिलाएं मौजूदा हालातों से जल्द, और बेहतर तालमेल बै"ा लेती हैं, इसीलिए उनके जीवन में नैराश्य और अकेलापन आसानी से नहीं पसरता।
कहने की बात है, और नहीं जीना चाहतेöयूरिपिडीज ने कहा था, बुजुर्ग द्वारा बुढ़ापे को कोसना और मौत की मिन्नत करना निखालिस ढकोसला है; अंतकाल करीब आते देख भी वह मरना नहीं चाहता। एक बुढ़िया का वाकया है जो रोजाना मंदिर में गुजारिश करती थी, हे पभु मुझे इस दुनिया से उ"ा ले। और जिस दिन बड़ा भूकंप आया, गांव छोड़कर भगने वालों में सबसे आगे `मुझे बचाओ, मुझे बचाओ' की गुहार लगाते, सर पर ग"री लिए वही बुढ़िया थी।
मंचरूपी जीवन के आखिरी परिदृश्य में चेहरे से पहले दिमाग में ज्यादा झुर्रियां पड़ने लगती हैं और यहीं सुख चैन छिनने की शुरुआत हो जाती है। आप ऐसा न होने दें। दूसरों के लिए खूब जी लिए, बच्चों के, रिश्तेदारी में फर्ज निभा लिए, अब अपने लिए जीना शुरू करें। जहां घूमने-फिरने की कसक-हसरत रह गई हो तो उसे पुराने का स्वर्णिम अवसर है। आपके भले मित्र आज भी भले रहेंगे। ब्रिटिश रंगकर्मी हेस्केथ पीयरसन की राय में, बूढ़ा होने पर फितरत नहीं बदल जाती। होता यह है कि हालातों के चलते वे बुनियादी हकीकत सामने आ जाती है जो छिपी हुई थीं। पुराने परीक्षित साथियों को खोजें, उनसे संवाद बनाएं, उनके पास जाएं, उन्हें बुलाएं। जिंदगी बोझ नहीं, उपहार बन जाएगी।