Home » द्रष्टीकोण » मोदी के इर्द-गिर्द सिमट गया सारा चुनाव

मोदी के इर्द-गिर्द सिमट गया सारा चुनाव

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:2 May 2019 3:43 PM GMT
Share Post

राजेश माहेश्वरी

लोकसभा चुनाव में मोदी को घेरने के फेर में विपक्ष ने बड़ी भूल की है। मोदी विरोध करते-करते सारा चुनाव मोदी के इर्द-गिर्द ही सिमट गया है। अब तक चार चरणों का मतदान सम्पन्न हो चुका है। तीन चरणों का मतदान अभी शेष है। पिछले चार चरणों की भांति चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के आगे-पीछे ही घूमता दिख रहा है। अनेक राजनीतिक पंडित त्रिशंकु लोकसभा की आशंका व्यक्त करने में लग गए हैं। हालांकि एक वर्ग का अभी भी यह मानना है कि राहुल गांधी को लेकर आम मतदाता में व्याप्त अरुचि का लाभ सीधे नरेंद्र मोदी को मिल रहा है और भाजपा के उम्मीदवारों से असंतुष्ट या नाराज लोग भी फिर एक बार मोदी सरकार के नारे से फ्रभावित नजर आ रहे हैं। चुनावी ऊंट किस करवट बै"sगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन जो दृश्य सामने दिखाई दे रहा है, उससे साफ है कि आकर्षण और चुनाव का केंद्र नरेंद्र मोदी बने हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अटल, आडवाणी रूपी वट वृक्ष की छत्रछाया मे पली बढ़ी भारतीय जनता पार्टी भी नेता नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द सिमट गई है।

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस राहुल गांधी को बतौर फ्रधानमंत्री फ्रस्तुत नहीं करने से आत्मविश्वास में कमी से पहले ही दौड़ से बाहर चुकी है। यही वजह है कि चार चरणों के मतदान के बाद तक विपक्ष अपनी संभावनाओं को लेकर आश्वस्त नहीं है। लेकिन भाजपा भी भीतर ही भीतर किसी अनिष्ट की आशंका से ग्रसित है। उसके मन में 2004 के इंडिया शाइनिंग के फुस्स होने की कड़वी यादों का खौफ अभी भी ताजा है। उस चुनाव में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार की वापसी को लेकर पूरे देश में उम्मीद की लहरें उ" रही थीं जो अंतत विनाशकारी साबित हुई। यद्यपि यह भी सही है कि श्री वाजपेयी की उम्र और स्वास्थ्य दोनों उनका साथ नहीं दे रहे थे और पूरी पार्टी फ्रमोद महाजन के शिकंजे में फंसी हुई थी। उस दृष्टि से नरेंद्र मोदी ज्यादा ताकतवर हैं और सरकार तथा पार्टी संग"न दोनों पर उनकी जबरदस्त पकड़ है। हालांकि कुछ मामलों में यह कमजोरी भी नजर आती है। दूसरी तरफ इसे ही भाजपा की ताकत माना जा रहा है क्योंकि वाजपेयी युग की समाप्ति के बाद के दौर में कोई दूसरा नेता जनता के सामने चहरे के तौर पर नहीं उभर सका। जिसका फ्रमाण 2009 के लोकसभा चुनाव में मिला जब लाल कृष्ण आडवाणी को फ्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश करने के बावजूद भाजपा को जबरदस्त पराजय झेलनी पड़ी थी।

नरेंद्र मोदी ने उस शून्य को जिस कुशलता से भरा उसी की वजह से वे अटल जी के बाद देश के सबसे लोकफ्रिय नेता बनकर उभरे और भाजपा का विस्तार भी उन क्षेत्रों तक करने में सफल हुए जहां उसका कोई नामलेवा तक नहीं था। यही वजह है कि राहुल गांधी चाहे कुछ भी कहें किन्तु इस चुनाव का पूरा केंद्र श्री मोदी बन गए हैं। विपक्ष ने भी इसमें खासा योगदान दिया है। तीसरे चरण का मतदान आते तक चुनाव के सभी मुद्दे मोदी लाओ या मोदी हटाओ में आकर समाहित हो गए। इसका लाभ किसे होगा यह दावे के साथ कोई नहीं कह पा रहा तो उसकी असली वजह मतदाता की खामोशी है। मतदान में 2014 की अपेक्षा थोड़ी-सी कमी से भी अनुमान लगाने वाले संशय में हैं।

एक बात यह भी है कि क्षेत्रीय पार्टियां इस चुनाव में अपने लिए सुनहरा अवसर देख रही हैं। उन्हें लग रहा है कि 1996 की तरह से एक बार फिर दिल्ली में अस्थिरता उत्पन्न होने जा रही है जिसकी वजह से उनके भाव बढ़ जाएंगे। द्रमुक, अद्रमुक, टीआरएस, तेलुगूदेशम, वाईएसआर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बसपा और लालू की राजद जैसी पार्टियां यह मान बै"ाr हैं कि यदि नरेंद्र मोदी का करिश्मा नहीं चला तब उस स्थिति में चिल्लर की तरह उनकी पूछ-परख भी बढ़ जाएगी और सत्ता की मलाई में उनकी भी हिस्सेदारी बढ़ेगी। ऐसी ही सोच एनडीए में भी देखी जा रही है जहां शिवसेना और अकाली दल जैसे सहयोगी सोच रहे हैं कि अगर भाजपा स्पष्ट बहुमत से दूर रह गई तब उसे उनकी कहीं ज्यादा जरूरत पड़ेगी। इस वजह से भाजपा के सहयोगी दल मानकर चल रहे हैं कि त्रिशंकु की स्थिति में भी यदि मोदी सरकार वापिस लौटी तब उनकी बल्ले-बल्ले होकर रहेगी। मनपसंद विभाग के साथ ज्यादा मंत्री पद मिल जाएंगे। विपक्ष में भी कुछ छोटी-छोटी पार्टियां ऐसी हैं जिनके दो-चार सांसद ही अधिकतम जीत सकेंगे किन्तु किसी को बहुमत नहीं मिला तब उनकी भी पौ-बारह होना तय है। सपा के नए सुफ्रीमो अखिलेश यादव चुनाव शुरू होने के पहले तक कहते रहे कि अगला फ्रधानमंत्री कौन होगा यह उफ्र ही निश्चित करेगा लेकिन गत दिवस वे यहां तक कह गए कि उसका निर्णय उनके हाथ में होगा। यद्यपि मायावती को इस पद का दावेदार माने जाने के सवाल का कोई जवाब उन्होंने नहीं दिया।

वैसे इस बार का चुनाव 2014 से बिल्कुल विपरीत राजनीतिक माहौल के बीच लड़ा जा रहा है। मोदी की 2014 वाली लहर जमीन पर नदारद है। लेकिन भाजपा मानकर चल रही है कि मोदी की सुनामी है। इसलिए उसका सब कुछ मोदी के इर्द-गिर्द सिमट गया है। इसके विपरीत कांग्रेस मुद्दों के साथ चुनाव में उसके सामने है। जमीनी अध्ययन बताता है कि असली मुद्दे चुनाव में लौट चुके हैं और पहले-दूसरे चरण के बाद चुनाव का फैसला करने की स्थिति में होंगे। जमीन पर सिर्फ एयर स्ट्राइक ही नहीं है। बेरोजगारी, नौकरी, रोजी-रोटी, किसान भी बहुत ताकत से हैं।

सिर्फ एयर स्ट्राइक इतना ताकतवर मुद्दा होती तो अभी तक के सर्वे में भाजपा अकेली 300-350 के पार पहुंच चुकी होती। यह मुद्दे एयर में नहीं हैं जमीन पर हैं। इस चुनाव में जो जमीन पर रहेगा वो ही जनता के पास पहुंच पाएगा! भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए द्वारा 2014 अति उल्लेखनीय फ्रदर्शन के समय भी तीसरे घटक अथवा अन्य के पास 147 स्थान थे। सपा, बसपा, टीएमसी, बीजेडी, टीआरएस, टीडीपी जैसे सभी राजनीतिक दल मिलकर अन्य घटक दलों के पिछले 147 के आंकड़े से आगे भी निकल सकते हैं। ऐसे में 2019 के चुनाव की पूर्व पी"िका कई संभावनाएं फ्रस्तुत करती हैं। यद्यपि राजग की संभावनाओं में ज्यादा पैनापन है तथा संभव है कि सभी मिलकर 272 के जादुई आंकड़े को फ्राप्त कर ले। यदि ऐसा नहीं होता है तो फिर कई विकल्प उभरेंगे, जिनमें तीसरे घटक दलों की भूमिका अहम हो जाएगी। साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए को फ्राप्त कुल स्थान यदि तीसरे घटक दलों से ज्यादा होते हैं तो एक नए समीकरण के बनने की संभावना भी विद्यमान रहेगी।

भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि विपक्ष उसको बहुमत नहीं मिलने का जितना फ्रचार कर रहे हैं उतनी ही उसकी स्थिति मजबूत होती जा रही है क्योंकि देश का आम मतदाता विशेष रूप से पहली और दूसरी बार मतदान करने वाले युवा किसी भी स्थिति में देश को अस्थिरता की आग में झोंकने का समर्थन नहीं करेंगे।

वैसे इन सबके बीच हर चरण में देश के विभिन्न हिस्सों में मतदान होने की वजह से राजनीतिक विश्लेषक अभी तक यह अनुमान लगाने में विफल रहे हैं कि चुनावी ऊंट किस करवट बै"sगा? कांग्रेस के बहुमत में आने की उम्मीद तो उसी के नेता छोड़ चुके हैं लेकिन भाजपा क्या 2014 के फ्रदर्शन को दोहरा सकेगी इसे लेकर भी संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। शरद पवार जैसे अनुभवी नेता तक यह कह चुके हैं कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी और उस सूरत में जाहिर है कि सत्ताधारी एनडीए ही सबसे बड़ा ग"बंधन होगा लेकिन बहुमत से दूर होने पर उसका साथ कौन देगा इसे लेकर भी अनिश्चितता है। देश की सबसे शक्तिशाली कुर्सी पर आने वाले दिनों में कौन बै"sगा यह तो 23 मई को पता लगेगा। फिलवक्त देश की राजनीति और चुनाव नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ दिखाई दे रहा है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Share it
Top