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यरूशलम विवाद : शिया-सुन्नी संघर्ष की अमेरिकी साजिश

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:17 Dec 2017 5:25 PM GMT
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तनवीर जाफरी

`बांटो और राज करो' की जिस नीति पर चलते हुए ब्रिटिश राज ने लगभग पूरे विश्व में अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था ठीक उसी नीति का अनुसरण आज अमेरिका द्वारा किया जा रहा है। परंतु बड़े आश्चर्य की बात है कि दुनिया का हर देश तथा वहां के बुद्धिमान समझे जाने वाले शासक भी अमेरिका की इस चाल से वाकिफ होने के बावजूद किसी न किसी तरह उसके चंगुल में फंस ही जाते हैं। यह और बात है कि कुछ समय के लिए किसी राष्ट्र विशेष के पति हमदर्दी जताने वाला यही अमेरिका संकट की घड़ी में उसका साथ दे या न दे। उदाहरण के तौर पर 1971 में जब भारतीय पधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने दूरगामी राजनैतिक कौशल व रणनीति के तहत पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का निश्चय किया उस समय पाकिस्तान अमेरिका की गोद में खेल रहा था। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को सहायता का आश्वासन भी दिया गया। उन दिनों यह चर्चा भी पूरे जोरों पर थी कि अमेरिकी युद्धपोत पाकिस्तान की सहायता करने हेतु रवाना हो चुका है। परंतु बंगलादेश के उदय होने तक वह युद्धपोत पहुंचा ही नहीं। परिणाम आज सबके सामने है। दरअसल अमेरिका यदि किसी का साथी, सहयोगी या शुभचिंतक दिखाई भी देता है तो उसकी मंशा किसी दूसरे देश की सहायता करने की नहीं बल्कि अपना स्वार्थ सिद्ध करने तथा अमेरिकी हितों का विस्तार करने की ही होती है।
ऐसी ही स्थिति आज विश्व के सबसे विवादित व संवेदनशील मुद्दे अर्थात इजरायल के संबंध में अमेरिका द्वारा पैदा की जा रही है। हालांकि समूचे इजरायल के अस्तित्व को लेकर ही अरब देश हमेशा से सवाल खड़ा करते रहे हैं। पूरा मुस्लिम जगत इजरायल के विरुद्ध एकमत हुआ करता था। जबकि अमेरिका व ब्रिटेन जैसे कुछ देश इजरायल के पक्ष में खड़े दिखाई देते थे। अरब-इजरायल के मध्य कई बार सैन्य संघर्ष भी हो चुके हैं। फिलिस्तीन-इजरायल क्षेत्र में फिलीस्तीनियों द्वारा अपना क्षेत्र वापस मांगने और इजरायल द्वारा उस पर अपना कब्जा बरकरार रखने को लेकर खूनी संघर्ष भी आए दिन होता ही रहता है। अब भी दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो इजरायल से दूरी बनाकर रखते हैं। कई देशों में इजरायल के दूतावास नहीं हैं। परंतु अरब जगत से इतना मतभेद हेने के बावजूद गत तीन दशकों में अमेरिकी नीतियों के परिणामस्वरूप इतना परिवर्तन आ चुका है कि दूसरे छोटे अरब देशों की बात ही क्या करनी खुद सऊदी अरब भी अमेरिकी कोशिशों की बदौलत ही इजरायल के काफी करीब पहुंच गया है। अरब-इजरायल दोस्ती के पीछे अमेरिका-इजरायल द्वारा जो जमीन तैयार की गई है उसका मुख्य आधार ही अमेरिका व इजरायल द्वारा सऊदी अरब को ईरान का भय दिखाना है । और इस रणनीति का मुख्य कारण यह है कि पूर्व ईरानी राष्ट्रपति अहमदी नेजाद सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि `इजरायल का नाम ही दुनिया के नक्शे से मिटा दिया जाएगा।'
दूसरी ओर इराक के कमजोर होने के बाद तथा पाकिस्तान में सत्ता की आंतरिक खींचतान व उसकी कई मोर्चों पर आतंकवादियों से जूझने में व्यस्तता के कारण इस समय ले-देकर ईरान व सऊदी अरब ही विश्व के दो मजबूत मुस्लिम राष्ट्र दिखाई दे रहे हैं। यदि पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता के साथ यह दोनों देश अपने ऐतिहासिक व धार्मिक मतभेदों को किनारे कर आपस में हाथ मिलाने तथा एक स्वर से इस्लाम के नाम पर चारों ओर फैलाई जा रही बदअमनी तथा इसकी आड़ में फैले आतंकवाद के सफाए का निश्चय कर लें तो मुस्लिम जगत विश्व के सबसे शक्तिशाली व आर्थिक रूप से सुदृढ़ गठबंधन के रूप में उभर सकता है। परंतु अमेरिका की `बांटो और राज करो' की नीति दुनिया में ऐसा नहीं होने दे रही है। कभी अमेरिका इराक की बर्बादी के लिए सद्दाम हुसैन को निशाना बनाता है तो ईरान इस घटना को अपने पक्ष में देखता है। जाहिर है ईरान नहीं चाहता था कि उसके पड़ोस में सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह के नेतृत्व में कोई मजबूत राष्ट्र उभर सके। वह भी ऐसा राष्ट्र जो वर्षों तक ईरान से युद्धरत रहा हो। इसी पकार अरब को अमेरिका इस बात का भय दिखाता है कि यदि अमेरिका उसके साथ नहीं खड़ा होगा तो ईरान उसे निगल जाएगा।
यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो ईरान की नीति पायः इस्लाम धर्म को एक शांतिपूर्ण व सहनशील धर्म के रूप में पेश करते हुए पड़ोसी देशों के साथ परस्पर अच्छे संबंध कायम करने की ही रही है। हां इतना जरूर है कि अपने अधिकार, सच्चाई तथा असत्य के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करने में ईरान का मत हमेशा बिल्कुल स्पष्ट रहा है। ईरान एक ऐसा देश है जो दशकों तक पतिबंध झेलने के बावजूद दुनिया के आगे नहीं झुका तथा इतना आत्मनिर्भर रहा कि उसने पतिबंध काल के दौरान भी आर्थिक, वैज्ञानिक, सामरिक तथा शैक्षिक क्षेत्र में काफी तरक्की की है। वैसे भी शिया बाहुल्य राष्ट्र होने के नाते ईरान के शासक हजरत इमाम हुसैन के बताए हुए आदर्शों पर चलते हैं तथा असत्य के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद रखते हैं। फिर चाहे वह करबला में यजीदी दौर हो या वर्तमान दौर के स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने वाले देश अथवा शासक। अभी पिछले दिनों विश्व के सबसे बदनाम आतंकी संगठन आईएसआईएस के खाक्वत्मे को लेकर अमेरिका व सऊदी अरब द्वारा जो दोहरा मापदंड अपनाया गया वह पूरी दुनिया ने देखा। परंतु ईरान ने खुलकर निश्चय कर लिया था कि वह इस इस्लामी दुश्मन संगठन को नेस्तानाबूद करके ही चैन लेगा। हालांकि ईरान व आईएसआईएस के मध्य लगभग तीन वर्षों तक चले इस संघर्ष में अमेरिका व अरब ने अपने-अपने तरीके व बहाने से इस आईएस विरोधी ईरानी आपरेशन में टांग अड़ाने की भरपूर कोशिश भी की। परंतु ईरान के नेतृत्व ने इस संगठन की कमर तोड़कर रख दी और सीरिया व इराक में इनके कब्जे के अधिकांश क्षेत्रों को मुक्त करा लिया। जाहिर है ईरान व आईएस के मध्य हुए इस निर्णायक संघर्ष के बाद मुस्लिम जगत में ईरान का इकबाल अब और बुलंद हो गया है।
ईरान के इसी बढ़ते पभाव से भयभीत अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अब विवादित यरूशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने की घोषणा की है। इस घोषणा के बाद अरब जगत में बड़े पैमाने पर मंथन शुरू हो गया है। फिलिस्तीन में खूनी संघर्ष छिड़ गया है, सऊदी अरब अपने कुछ सहयोगी देशों के साथ इजरायल व अमेरिका की भाषा बोलता दिखाई दे रहा है जबकि विश्व के अधिकांश देश ट्रंप के इस फैसले के विरुद्ध नजर आ रहे हैं। उधर 57 मुस्लिम देशों के समूह इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) ने ट्रंप के इस फैसले का विरोध करते हुए इस फैसले को गलत व अमान्य बताया है तथा यरूशलम पर मात्र फिलिस्तीनियों का अधिकार जताया है।
केवल मुस्लिम जगत ने ही नहीं बल्कि यूरोपीय संघ ने भी यरूशलम को इजरायल की राजधानी मानने से इंकार कर दिया है। यूरोपीय संघ के अनुसार जब तक इजरायल-फिलिस्तीन के मध्य अंतिम रूप से शांति समझौता नहीं हो जाता तब तक उसके सदस्य देश यरूशलम को इजरायल की राजधानी नहीं मानेंगे परंतु ट्रंप की यही कोशिश है कि वह किसी पकार इजरायल के बहाने अरब व ईरान के मध्य युद्ध की स्थिति पैदा करे और उस स्थिति में अरब का साथ देकर ईरान को कमजोर करने की कोशिश करे। अमेरिका की इस दूरगामी चाल से मुस्लिम जगत को खबरदार रहने की जरूरत है।

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