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कलयुगी गुरु घंटालों के दौर में धर्म-अध्यात्म की शिक्षा?

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:7 Jan 2018 2:48 PM GMT
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तनवीर जाफरी

कलयुग के जिन लक्षणों की परिकल्पना की गई है लगभग वे सभी लक्षण पृथ्वी पर साफ दिखाई देने लगे हैं। इंसान-इंसान की जान का दुश्मन बना बैठा है। रिश्ते अपना लिहाज खत्म कर चुके हैं। माता-पिता, नारी, वृद्ध अथवा असहाय लोगों का आदर-सम्मान समाप्त होता जा रहा है। देवी का रूप समझी जाने वाली महिला अपनी इज्जत-आबरू बचाने की जंग लड़ रही है। पैसा व सत्ता हासिल करने के लिए सभी तरीके अपनाए जा रहे हैं। जिसे देखो कोई न कोई मुखौटा धारण किए हुआ है जिसकी वजह से असली और नकली की पहचान करनी मुश्किल हो गई है। जिसे अपना संरक्षक या सरपरस्त समझिए वही बाद में भेड़िया नजर आता है। ऐसे में बार-बार यह विचार उत्पन्न होते हैं कि भारतवर्ष जैसे धर्म व अध्यात्म का केंद्र समझे जाने वाले महान देश को कहीं किसी की नजर तो नहीं लग गई? जो देश धर्म-अध्यात्म के दर्शन का एक विश्वस्तरीय केंद्र था वहीं आज इसी क्षेत्र पर आए दिन कलंक पर कलंक क्यों लगते जा रहे हैं? क्या धर्म, अध्यात्म की शिक्षा ग्रहण करने की लालसा रखने वालों में इसका ज्ञान ग्रहण कर पाने की क्षमता अथवा ललक नहीं है या फिर आज के दौर में ऐसी शिक्षा लेने वाले स्वेच्छा के बजाए अपने माता-पिता या अभिभावकों के दबाव में ऐसे केंद्रों पर जाने के लिए मजबूर होते हैं? या फिर इस क्षेत्र में पाए जाने वाले गुरु अथवा धर्मगुरु ही इस योग्य नहीं होते कि वे अपने शिष्यों को धर्म-अध्यात्म का सही ज्ञान दे सकें?
अत्यंत चिंता का विषय है कि आए दिन देश के किसी न किसी क्षेत्र से कोई न कोई ऐसी खबर आती रहती है जिससे यह पता चलता है कि कभी किसी कथित अध्यात्मिक केंद्र में तो क ााr किसी आश्रम में तो कभी किसी धार्मिक संस्थान अथवा स्थान में किसी `धर्माधिकारी' द्वारा किसी न किसी तरह की बदचलनी का पदर्शन किया गया है। अफसोस की बात तो यह कि इनमें सबसे अधिक मामले महिलाओं के यौन शोषण से संबंधित सुनाई देते हैं। अब तक देश के दर्जनों ऐसे स्थान बेनकाब हो चुके हैं और ऐसे दर्जनों `गुरु घंटाल' पुलिस की गिर त में आ चुके हैं जो धर्म-अध्यात्म के नाम पर अपना पाखंडपूर्ण व्यवसाय चलाते आ रहे हैं। किसी ने अपनी संस्था अथवा केंद्र को अपनी निजी अय्याशी का अड्डा बना रखा था तो किसी ने अपनी शिष्याओं या अपने शिष्यों की बहू-बेटियों को अपने आर्थिक लाभ के लिए उनका व्यवसायिक पयोग करना शुरू कर दिया था। आज हमारे देश में ऐसे कई `गुरु घंटाल' जेल की सलाखों के पीछे अपने दुष्कर्मों के पाप का भुगतान कर रहे हैं तो कई जमानत पर अथवा सबूतों के अभाव में बरी होकर पुनः समाज पर अपनी `कृपा' बरसा रहे हैं। क्या यह परिस्थितियां हमें यह सोचने के लिए विवश नहीं करतीं कि पतिस्पर्धा एवं व्यवसायिकता के वर्तमान दौर में तथा वास्तविक धर्मगुरुओं की जगह `गुरु घंटालों' की बढ़ती सकियता ने धर्म-अध्यात्म की शिक्षा के औचित्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया है?
अभी पिछले दिनों एक बार फिर देश के अय्याशी व नशे के मिले-जुले नेटवर्प का भंडाफोड़ हुआ जिसमें वीरेंद्र देव दीक्षित नामक एक कुकर्मी, ढोंगी व्यक्ति अध्यात्मिक विश्वविद्यालय के नाम पर एक बड़ा नशे व सेक्स रैकेट चलाता पकड़ा गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि इसके विभिन्न आश्रमों से अब तक जो लड़कियां बरामद की गई हैं उनमें अनेक लड़कियां नाबालिग भी हैं। इस पूरे मामले की एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि ढोंगी बाबा दीक्षित ने कभी किसी के घर जाकर अपने किसी शिष्य से यह नहीं कहा कि वे अपनी अमुक बेटी को मेरे आश्रम पर जरूर भेजें। ठीक इसके विपरीत इसके आश्रम में लगभग सभी लड़कियां ऐसी पाई गई हैं जिन्हें उनके माता-पिता या अभिभावक ने धर्म व अध्यात्म की शिक्षा लेने के नाम पर स्वयं अपने हाथों से ले जाकर उस `गुरु घंटाल' के सुपुर्द किया है। क्या वजह है कि `यह भक्तजन अपनी अपनी बेटियों को तो किसी भेड़िये के आश्रम में कितनी आसानी से छोड़ आते हैं जबकि अपने बेटे को वहां नहीं छोड़ते। क्या सरकार की बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ मुहिम ऐसी जगहों पर दम तोड़ती दिखाई नहीं देती? क्या यह कन्याओं/महिलाओं के साथ हमारे देश में हेते आ रहे सौतेले व्यवहार व पदूषित सोच का साक्षात पमाण नहीं है? अपने जिगर के टुकड़ों को धर्म-अध्यात्म की शिक्षा के नाम पर किसी दुराचारी के आश्रम में छोड़कर चले आना और बाद में उसकी जरा भी फिक न करना यह आखिर कहां की मानवता है? क्या अपने बच्चों को धर्म-अध्यात्म की शिक्षा दिलाने का यही तरीका है कि आप अपनी किशोरियों को किसी राक्षस के हवाले कर आएं और वह `गुरु घंटाल' या तो उस पर भूखे भेड़िये की तरह झपट पड़े या उसे बाजार में परोस कर पैसे कमाए या इसी के बल पर अपने ऊंचे रसूख बनाता फिरे?
यह त्रासदी आज किसी धर्म विशेष में पाई जाने वाली त्रासदी नहीं है। पत्येक धर्म का कोई न कोई `गुरु घंटाल' कभी न कभी कहीं न कहीं बेनकाब होता ही रहता है। ताज्जुब की बात तो यह है कि ऐसे सैकड़ों मामलों का भंडाफोड़ होने के बावजूद आए दिन इसी पकार की कोई न कोई नई घटना फिर सामने आ जाती है। तो क्या माता-पिता, अभिभावकगण ऐसे समाचारों को सुनने व देखने के बावजूद ऐसे `गुरु घंटालों' से सचेत रहने की कोशिश नहीं करते? या फिर उनकी आंखों पर अपने गुरु के पति विश्वास, सम्मान तथा भक्ति का एक ऐसा मोटा परदा पड़ा रहता है जिसकी वजह से उन्हें भले ही दुनिया के सारे गुरु दुराचारी, पापी या अधार्मिक क्यों न लगें परंतु उन्हें अपना गुरु विश्व का सर्वश्रेष्ठ गुरु तथा धर्म व अध्यात्म का सबसे बड़ा ज्ञाता ही नजर आता है? मेरे विचार से तो ऐसे पाखंडी तथा धर्म व अध्यात्म जैसे पवित्र विषय को कलंकित करने वाले उन लोगों को भी फांसी पर लटका देना चाहिए जो अपनी मासूम शिष्याओं को या अपने शिष्यों की अबोध बहन-बेटियों को यह कहकर या उनके समक्ष अपने कर्मचारियों द्वारा ऐसा वातावरण बनाकर उन्हें सहवास के लिए राजी करते हैं कि `यदि तुमने गुरुजी से सहवास किया तो गोया भगवान के साथ सहवास किया, क्योंकि गुरुजी भगवान का ही अवतार हैं।' इस पकार का वातावरण तैयार करने के लिए तथा अबोध किशोरियों में मानसिक रूप से ऐसी सोच पैदा करने के लिए तैयार करने हेतु उन्हें नशीली दवाएं भी दी जाती हैं ताकि वे अपने-आपमें गुमसुम रहकर केवल इसी विषय पर अपना चिंतन केंद्रित रखें और हर समय संभोग के लिए तैयार रहें।
आपने यह तो सुना होगा कि भक्तजन किसी विशेष धर्मस्थान पर ग्यारह बार, इक्कीस बार या अनेक बार जाने का संकल्प लेते हैं। और बड़े गर्व से बताते भी हैं कि मैं अमुक स्थान का दर्शन इतनी बार कर चुका हूं। भक्तजन इसमें आत्मिक संतुष्टि भी महसूस करते हैं। परंतु धर्म व अध्यात्म की इसी दुनिया का यह पापी, दुष्कर्मी बाबा वीरेंद्र दीक्षित एक ऐसा भूखा भेड़िया था जिसने अपने जीवन में सोलह हजार महिलाओं से शारीरिक संबंध स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित कर रखा था। और उसे अपने इस लक्ष्य को पूरा करने में उसका आध्यात्मिक विश्वविद्यालय तथा उसमें धर्म-अध्यातम की शिक्षा हासिल करने वाली बच्चियां सहयोगी साबित हो रही थीं। इन हालात में यह सवाल बेहद जरूरी है कि कलयुगी `गुरु घंटालों' के इस दौर में धर्म-अध्यात्म की शिक्षा का आखिर कोई औचित्य रह भी गया है?

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