कुलदीप नैयर : पत्रकारिता को समर्पित बेजोड़ शख्सियत
आदित्य नरेन्द्र
पत्रकारिता के नए-नए मानदंड ग़ढ़ने वाले देश के प्रमुख पत्रकार और स्तम्भकार कुलदीप नैयर अब हमारे बीच नहीं रहे। 95 वर्ष की उम्र में निमोनिया से पीड़ित श्री नैयर का निधन पत्रकारिता जगत के लिए एक अपूर्णनीय क्षति है। उन्होंने प्रेस की आजादी और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाले एक निर्भीक पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। इसी के चलते उन्हें पत्रकारिता को समर्पित एक बेजोड़ शख्सियत कहा जाता है। यूं तो उनका पूरा जीवन ही पत्रकारिता को समर्पित था लेकिन उससे इतर कई क्षेत्रों में भी उनका योगदान कम महत्वपूर्ण नहीं रहा है। उन्हें 1990 में ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त बनाया गया और 1997 में राज्यसभा के सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया। अपने करियर की शुरुआत एक उर्दू अखबार से शुरू करने वाले नैयर ने स्टेट्समैन और इंडियन एक्सप्रेस सहित कई अखबारों में काम किया। पाकिस्तान के सियालकोट के रहने वाले कुलदीप नैयर वकील बनना चाहते थे लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। देश का बंटवारा हुआ और कुलदीप नैयर 13 सितम्बर 1947 को दिल्ली के एक शरणार्थी शिविर में आ गए। इस बंटवारे के दौरान उन्होंने जो कुछ भी देखा और महसूस किया उसने उनके विचारों और उनकी जिन्दगी पर अमिट प्रभाव डाला। बियांड द लाइंस ः एन आटोबायोग्राफी और बिटवीन द लाइंस सहित कई अन्य पुस्तकों के लेखक श्री नैयर का लोकतंत्र में गहरा विश्वास था। इसी विश्वास के चलते उन्होंने राजीव गांधी सरकार द्वारा लाए गए विवादित मानहानि विधेयक का विरोध करने में तनिक भी संकोच नहीं किया था। लोकतंत्र के प्रति इसी गहरे विश्वास के चलते उन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार भी होना पड़ा था। अपने राजनीतिक कॉलमों के जरिये उन्होंने पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। पत्रकारिता की विधा का उपयोग उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों की रक्षा के लिए भी बाखूबी किया। बंटवारे की याद उनके दिल में हमेशा ताजा रही। जिन्दगी के अंतिम क्षण तक उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच बेहतर रिश्तों का सपना देखा। दोनों देशों के लोगों को इस सपने से जोड़ने के लिए उन्होंने भारत-पाक के बाघा बॉर्डर पर कैंडिल मार्च भी किया। हालांकि कुछ लोगों को उनकी यह गतिविधियां पसंद नहीं आईं लेकिन न तो वह डरे और न ही पीछे हटे। सत्ता की चाटुकारिता से दूर रहने वाले श्री नैयर भारत के पहले ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने अखबारों में नियमित कॉलम शुरू कर उसे अपनी जीविका का साधन बनाया। कई दशकों से कई भाषाओं के अखबारों में उनके कॉलम नियमित रूप से छपते थे। `वीर अर्जुन' भी उनमें से एक है। इन स्तम्भों के जरिये अनगिनत पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने की क्षमता उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। जिसका स्रोत उनकी राजनीतिक निष्पक्षता में था। उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि सत्ता में बैठे लोग उनके विचारों से नाराज होंगे। उनमें सच को सच और झूठ को झूठ कहने का जो साहस था उसी के बूते उन्होंने पत्रकारिता में एक ऊंचा मुकाम हासिल किया। देश की आजादी के बाद पत्रकारों की तीन पीढ़ियों के साथ उन्होंने काम किया है। चैनलों के दौर में भी उनकी कलम का महत्व जरा भी कम नहीं हुआ। नेहरू से लेकर मोदी तक के कार्यकाल के दौरान उन्होंने बहुत कुछ देखा और सहा है। आपातकाल, ऑपरेशन ब्लू स्टार, 1984 के सिख विरोधी दंगे और गुजरात हिंसा के दौरान उन्होंने जो कुछ भी देखा और समझा उसे उनकी कलम ने निर्भीकता से बयान किया। यही कारण है कि उनके निधन के बाद एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने अपने संदेश में कहा कि नैयर अपनी विश्वसनीयता, मानक और पैनेपन से आने वाले युवा पत्रकारों को प्रेरित करते रहेंगे। सचमुच उनके जाने से पत्रकारिता जगत को एक बड़ा नुकसान हुआ है। निष्पक्षता को आधार बनाते हुए उन्होंने अपनी कलम की ताकत से लाखों पाठकों के दिलों में जगह बनाई। उम्मीद है कि उनका जीवन और उनके विचार आने वाले दशकों तक पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले नए पत्रकारों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। उन्हें शत्-शत् नमन्।