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संघ एक स्वयंसेवी संगठन

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:30 Aug 2018 2:58 PM GMT
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राजनाथ सिंह `सूर्य'

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष से केवल सात कदम दूर रह गया है। इन 93 वर्षों में विश्व के 100 से अधिक देशों में उसकी शाखाओं का पसार हुआ है और एक लाख से अधिक सेवा पकल्प वह चला रहा है। यह सेवा पकल्प शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए हैं। वनवासी क्षेत्रों और वंचित बस्तियों में चलाए जा रहे हैं। दुनिया की सबसे बड़ी श्रृंखला बद्ध शैक्षणिक संस्था विद्या भारती को संघ ही चला रहा है। चाहे मजदूर क्षेत्र हो या राजनीति संघ के स्वयंसेवक आज शीर्ष स्थान पर हैं। यह सब कुछ संघ ने सत्ता के घोर विरोध के बावजूद समाज के सहयोग से किया है। क्योंकि संघ का विश्वास है कि सत्ता समाज का सुधार नहीं कर सकती। समाज को नैतिक मूल्य के अनुरूप चलने की पेरणा देने के लिए राजनीति में कोई स्थान नहीं है।

सत्ता के सहयोग से चलने वाले जन सेवी कार्य उसी पकार ठप हो जाते हैं जैसे आजकल तमाम एनजीओ ठप हो चुके हैं लेकिन जिस कार्य को समाज से खुराक मिलती है उसकी निरंतरता बनी रहती है। इन 93 वर्षों में अपनी इसी अवधारणा पर चलते हुए संघ ने अनेक बाधों पार की हैं और उसका व्याप्त बढ़ता ही गया है। पतिकूल अवधारणा रखने वालों के पति भी सदभावना के कारण ही जो भी संघ के सम्पर्प में आया उसका मुरीद हो गया।

संघ को अनेक अनर्गल आरोपों से मंडित कर राजनीतिक सफलता के जो पयत्न आज हो रहे हैं वह कोई नए नहीं हैं। देशहित विरोधी आचरण को ढकने के लिए संघ को घेरने का पयास जैसा आजकल चल रहा है उसकी शुरुआत 1942 में हुई थी जब अंग्रेजी सत्ता को लिखित रूप से सहयोग देने वाली की पेशकश करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने पाप को छिपाने के लिए संघ पर अंग्रेज परस्ती का आरोप लगाना शुरू किया था। आजादी के बाद सांप्रदायिक विभाजन के हामीकार लोगों ने इस पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाते हुए मुस्लिम विरोधी होने का अभियान चलाया जो आज भी जारी है। राजनीतिक सफलता के लिए संघ को घेरने के लिए इस अभियान की पतिक्रिया भी हुई है और आज अनेक विचारक संघ के राष्ट्रवाद की अवधारणा के समर्थन में खड़े हो गए हैं। संघ भारतीय संस्कृति की सनातनता के मूल मंत्र सर्वधर्म समभाव से विश्व को आच्छादित करने की नियत से काम कर रहा है। संघ का मानना है कि जब तक हम स्वयं अपने संस्कृति और संस्कार के पति आस्थावान नहीं होंगे दूसरों को आस्थावान नहीं बना सकते हैं। एक देश एक जन की भावना के विचार को इसी आधार पर पतिपादित किया जा रहा है इसकी अवधारणा हमारे संविधान की उद्देशिका में भी है और सर्वोच्च न्यायालय में कॉमन सिविल कोड! समान नागरिक संहिता बनाने के लिए केंद्रीय सरकार को बार-बार निर्देश दिये हैं जो इस समय विधि आयोग के विचाराधीन है। भारत का भविश्य कैसा हो इस संबंध में विपरीत मत रखने वालों को भी अपने विचार रखने के लिए एक मंच पर आने का आह्वान किया है। इसका कितना सार्थक उत्तर मिलता है यह तो कहना कठिन है लेकिन संकुचित होते जा रहे वातावरण में संघ की उदारमना सोच का यह पतीक है।

आजकल कांग्रेस के युवाध्यक्ष जो संघ पर गांधी की हत्या का आरोप लगाकर अदालत के फेरे लगा रहे हैं एक बार फिर से मुखरित होकर संघ को इस्लामिक मुस्लिम ब्रदरहुड के अनुरूप विचारधारा वाला संगठन बताने के लिए विश्वभर में घूम रहे हैं। वह अपने ज्ञान का जैसा उदाहरण पस्तुत कर रहे हैं उससे स्पष्ट है कि जिस संघ को नाजीवादी कह रहे हैं उसके द्वारा दिये गए सिद्धांत की एक झूठ को 100 बार दुहराने पर लोग उसे सच मानने लगते हैं का अनुशरण कर रहे हैं। संघ की हिन्दुत्व की अवधारणा सनातन परंपरा पर आधारित है। इसमें सभी के लिए सम्मानपूर्वक अपनी आस्था के कर्मकांड को करते हुए समग्र राष्ट्र के पति एकभाव लेकर चलने की पेरणा निहित है। भारत में जितने संप्रदाय पंथ और वैचारिक समुदाय उभरे हैं उसकी गणना करना मुश्किल है। इसका एक स्वरूप विभिन्न मंदिरों में पंचायतन का दर्शन करने से स्पष्ट होता है। कोई भी मंदिर ऐसा नहीं होगा जिसमें मुख्य देवता के अतिरिक्त अन्य देवताओं की पतिमों न मौजूद हों। संघ यद्यपि पचार से दूर रहा है लेकिन उसकी संवादहीनता कभी नहीं हुई है। पतिकूल विचार रखने वाले चाहे वह कट्टर हिन्दवादी कहलाते हों या सेक्युलरिज्म के नाम पर हिन्दुत्ववादी अवधारणा के विपरीत हों संघ का सदैव संवाद चलता रहा है। क्योंकि संघ का यह मानना है कि संवाद समझ को बढ़ाने के लिए आवश्यक है इसी उद्देश्य से सितम्बर माह में एक संवाद सम्मेलन का आयोजन किया है। यह आयोजन केवल संघ के संबंध में फैली गलतफहमियों को दूर करने के लिए ही नहीं है बल्कि उन अवधारणाओं को बल पदान करने के लिए है जो भारत को विश्वगुरु बना सकते हैं। संघ का मानना है कि हिन्दू ईसाई या इस्लाम के समान कोई मजहब नहीं है। यह एक भौगोलिक संबोधन है जो एक सांस्कृतिक परंपरा का संज्ञान कराती है। इस अवधारणा की तुलना किसी अन्य अवधारणा के समकक्ष वही बता सकता है जिसमें भारत को पाश्चात्य नजरिये से देखा है। जो मानवता को दो भागों में बांटते हैं। एक वे जिनका उनमें विश्वास हो और दूसरे वे जिनका विश्वास न हो। ईसाइयत इस्लाम और साम्यवादी दर्शन इसी अवधारणा पर आधारित हैं। इसलिए वह भारतीय सनातन परंपरा को समझने के लिए मानसिकता अपनाने में असमर्थ हैं। स्वार्थ के साथ-साथ इस पकार की अवधारणा के कारण वे संघ द्वारा किए जा रहे कार्यों से अपने लिए खतरा महसूस करते हैं। कुछ समय के लिए हिन्दू समाज में आए अंधविश्वास के पभाव को मुद्दा बनाकर तलवार के बल पर उन्होंने बड़े भारतीय समूह को अपने पक्ष में खड़ा करने में जो सफलता पाप्त की है उसको संघ द्वारा उत्पन्न जागरुकता के कारण सबसे ज्यादा खतरा है। इस खतरे से बाहर निकलने के लिए उन लोगों की भी मदद मिल रही है जिनके लिए राजनीति और सत्ता की पाप्ति ही पाथमिकता है। इसलिए उनसे यह अपेक्षा करना कि वह संघ को समझेंगे अंधेंरे में तीर चलाने के समान होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने और उनके बाद इस कार्य को देशव्यापी पसार देने वाले गुरु जी गोलवलकर ने इन विरोधों की परवाह किए बिना जिस व्यक्ति निर्माण कार्य को निरंतर गति दी है उसके कारण ही संघ के स्वयंसेवक सेवा पकल्प चला रहे हैं। देश का दूसरा ऐसा कोई संगठन नहीं है जो वंचित लोगों के बीच में जाकर स्वास्थ्य और शिक्षा से उन्हें समाज के अन्य लोगों के समकक्ष खड़े होने की पेरणा दे रहा हो। ऐसे संगठन को लांछित करने का पयत्न करने वालों को यह बात आज तक नहीं समझ में आई कि उनकी क्रियाओं के पतिक्रिया के स्वरूप संघ कार्य और तेजी के साथ आगे बढ़ा है। लाखों लोग अनाम रहकर जिस पकार समाज सेवा में लगे हुए हैं उसका यदि एक पतिशत भी संघ को लांछित करने वाले लोग अपने आचरण में शामिल कर लें तो आज जिस दुर्दशा में फंसकर वे अफनाये हुए दलदल में फंसे आदमी के समान हाथ पैर चलाकर और भी धंसते जा रहे हैं। संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष और उद्देश्य सापेक्ष है और स्वयंसेवकों में स्थितपज्ञता का भाव है। इसलिए न तो किसी दुप्रचार की आंधी के सामने वे सिर झुकाते हैं और न अनुकूलता में पगल्भित होकर अपने मार्ग से भटकते हैं। अहर्निष समाज सेवा में पदत्त ऐसे संगठन के लोगों के बारे में कुछ भारतीय जो नेता भी कहलाए जाते हैं दुप्रचार की आंधी चलाकर अपनी आंख में ही धूल झोंक रहे हैं। क्योंकि समाज संघ और उसके कार्य की सार्थकता को समझ रहा है। और संघ भी अपने शताब्दी वर्ष तक भारत को उसके गौरव के अनुरूप खड़ा करने के लिए कटिबद्ध है।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं।)

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