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विकास दर में उछाल के मायने

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:4 Sep 2018 3:24 PM GMT
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राजेश माहेश्वरी

वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर ने अनुमानों से बेहतर फ्रदर्शन करते हुए 8.2 फीसदी का आंकड़ा छू लिया। सरकारी दावे के साथ-साथ उद्योग जगत ने भी ये माना है कि नोटबंदी के झटके से अर्थव्यवस्था उबर चुकी है वहीं जीएसटी को लेकर उत्पन्न हुई शुरुआती अड़चनें भी क्रमशः दूर होती जा रही है जिससे पटरी से उतरती दिख रही अर्थव्यवस्था फिर संभलकर रफ्तार पकडने लगी है। इस चमत्कारिक नतीजे के बाद अर्थशास्त्राr ये अनुमान लगाने लगे हैं कि वित्तीय वर्ष 18-19 में विकास दर 7.5 फीसदी तक रह सकती है जो वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए बहुत बड़ी बात है। सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है मैन्युफैक्चरिंग, निर्माण तथा कृषि क्षेत्र में वृद्धि होना क्योंकि इन्हीं के माध्यम से सर्वाधिक रोजगार सृजन होता है।

आम आदमी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की आर्थिक विकास दर को नहीं समझता। यह अर्थशास्त्राrय शब्दावली है। यदि 2018 की पहली तिमाही (अफ्रैल से जून तक) में बढ़ोतरी दर 8.3 फीसदी आंकी गई है, तो स्पष्ट संकेत हैं कि देश की अर्थव्यवस्था "ाrक है, बल्कि उछाल पर है। करीब 12 फीसदी नौकरियां देने वाले मेन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में सबसे अधिक 13.5 फीसदी बढ़ोतरी सामने आई है, जबकि करीब 43 फीसदी रोजगार वाले कृषि क्षेत्र में भी 5.3 फीसदी वृद्धि आंकी गई है। इनके अलावा वित्त, रियल एस्टेट, व्यापार, होटल, संचार, बिजली, गैस, पानी आदि क्षेत्रों में भी आर्थिक विकास जारी है। ये आंकड़े कोई भाजपा या कांग्रेस अथवा फ्रधानमंत्री मोदी के दफ्तर ने जारी नहीं किए हैं। चूंकि इनका विश्लेषण अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के स्तर पर किया जाता है और बड़े उद्योगपति भी आकलन करते हैं, लिहाजा आंकड़ों में पूर्वाग्रह नहीं होता या किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।

राष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था के आंकड़ों की यह एक तय फ्रक्रिया है, जो हर तीन महीने बाद सामने आती रहती है। हमारी विकास दर 8 फीसदी से ज्यादा थी, जब वाजपेयी सरकार ने सत्ता छोड़ी थी और डॉ. मनमोहन सिंह फ्रधानमंत्री बने थे। चूंकि डॉ. सिंह बुनियादी तौर पर एक अर्थशास्त्राr रहे हैं और आर्थिक सुधारों के फ्रणेता भी वही थे, लिहाजा यूपीए सरकार के दौरान औसतन आर्थिक विकास दर 8.36 फीसदी रही, लेकिन सत्ता के आखिरी चरण में 5-6 फीसदी तक लुढ़क गई। मोदी सरकार के दौरान भी विकास दर 6-7 फीसदी रही है, लेकिन अब पहली बार 8 फीसदी से आगे बढ़ी है।

अपैल से जून की तिमाही के पराणामों ने पूरे देश का उत्साह बढ़ाया है। भले ही जमीनी स्तर पर इसे महसूस करने में थोड़ा समय लगे किन्तु नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक भी ये तो मानते ही हैं कि उनकी आर्थिक नीतियां दूरगामी लक्ष्यों पर आधारित हैं जिनके परिणाम तात्कालिक भले न नजर आएं किन्तु वे अर्थव्यवस्था के आधार को मजबूती फ्रदान करने वाले हैं। लेकिन कच्चे तेल की कीमतों में निरंतर उछाल से पेट्रोल-डीजल का महंगा होता जाना तथा डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपए का रिकॉर्ड स्तर तक गिरना विकास दर के खूबसूरत आंकड़े को विरोधाभासी बना देता है। यद्यपि कच्चा तेल और उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली उथल-पुथल से डॉलर निरंतर महंगा होता जा रहा है लेकिन सरकारी स्तर पर इस संबंध में समुचित स्पष्टीकरण नहीं आने से उसकी लाचारी उजागर हो रही है।

पिछले दो वर्षों से खेती काफी मार खा रही थी जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहद चिंताजनक होने लगी थी। बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या की वजह से केंद्र व राज्य सरकारों के फ्रति नकारात्मक छवि भी बन गई थी। कृषि क्षेत्र आज भी सर्वाधिक रोजगार देता है। उसके बाद निर्माण क्षेत्र है। इन दोनों की दशा बिगडने की वजह से ही अच्छे दिन के दावे उपहास का पात्र बन गए। बची-खुची कसर कल-करखानों में उत्पादन घटने के तौर पर सामने आई। नोटबंदी के हमले से जैसे-जैसे उबरा मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर जीएसटी के फेर में उलझकर "हराव का शिकार होकर रह गया। बेरोजगारी के आंकड़े सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता का मापदंड बन गए।

वैसे इस सबके बीच एक संकेत उम्मीदें जगाने वाला है और वह है विदेशी निवेश की आवक में वृद्धि। जिसका फ्रत्यक्ष फ्रमाण शेयर बाजार के सूचकांक में रोजाना आ रहा उछाल है किन्तु केंद्र सरकार के आर्थिक नियोजकों को पहली तिमाही की विकास दर के आंकड़े से आत्ममुग्ध होने की बजाय इस बात की चिंता करनी चाहिए कि कारोबारी जगत में बना उत्साहजनक वातावरण निरंतर बना रहे। बीते कुछ महीनों में जीएसटी में किए गए सकारात्मक बदलावों से भी उद्योग व्यापार जगत को राहत मिली है किन्तु अभी और सरलीकरण की जरूरत है।

संकेत सुखद और सकारात्मक इसलिए माने जा सकते हैं, क्योंकि 2019 में भी यह दर 7.5 फीसदी से अधिक की ही रहेगी। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मैन्यूफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन में आगे भी अच्छी बढ़ोतरी देखने को मिलेगी। आने वाले दिनों में आवास और सड़कों पर भी सरकारी निवेश बढ़ेगा, लेकिन कंपनियों में क्षमता का पूरा इस्तेमाल न होने और राजनीतिक अनिश्चितता के कारण निजी निवेश में ज्यादा तेजी नहीं आएगी। कृषि पर भी फ्रभाव देखने को मिलेगा, क्योंकि मानसून के तीन महीने बीतने के बाद देश के 50 फीसदी इलाके बाढ़ या सूखे की चपेट में हैं। खनन क्षेत्र की विकास दर 1.6 फीसदी से घटकर 0.1 फीसदी हुई है। रक्षा और अन्य सेवाओं की बढ़ोतरी 9.9 फीसदी रही है। यह भी पिछले साल की तुलना में 3.6 फीसदी कम है, लेकिन निजी निवेश की वृद्धि 6.9 से बढ़कर 8.5 फीसदी हो गई है। एक विरोधाभास भी है।

पेट्रोल, डीजल के दामों, बैंकों के एनपीए, ईंधन गैस, महंगाई और सोने के दामों में भी `उछाल' देखा जा रहा है। इनसे आम नागरिक फ्रभावित भी हो रहा है। सवाल है कि क्या आर्थिक विकास दर नागरिकनिरपेक्ष होती है? अर्थ शास्त्रियों का मत है कि कोई भी देश साल-दर-साल ऐसी विकास दर के लिए तड़पेगा, लेकिन दो राजनेता ऐसे हुए हैं, जो विकास दर विरोधी थे। यूपीए सरकार के दौरान सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के दिनों में बढ़ोतरी को लेकर संदेह चरम पर रहा। नतीजतन सरकार ने मनरेगा, खाद्य सुरक्षा और गरीबों में खैरात बांटने पर ध्यान लगाया। उसने बढ़ोतरी के बजाय समानता को अपनाया। नतीजतन `नीतिगत अपंगता' की स्थिति पैदा हुई और सरकार अपने अंत तक उस धब्बे को हटा नहीं सकी। आर्थिक विकास दर 2011 के बाद गोता खा गई और नरेंद्र मोदी 2014 में विकास के वादे के सहारे सत्ता में आ पाए। हालांकि उन्होंने भी `अच्छे दिन' के वादे मूर्तरूप में नहीं निभाए हैं, तो फिर अर्थव्यवस्था के `अच्छे दिन' आने का लाभ क्या है? जीडीपी की विकास दर की जो स्थापित अवधारणा है, उसकी भी अपनी सीमाएं हैं लिहाजा उसमें कइयों के श्रम और योगदान का मूल्यांकन नहीं हो पाता।

मसलन आय का वितरण, सरकारी सेवाएं, स्वच्छ हवा, जीवन निर्वाह में जुटे किसानों का काम और अनौपचारिक एवं समानांतर अर्थव्यवस्था में लगे लोग भी नहीं दिखते, जो दुनिया की आबादी के एक-चौथाई होंगे। विकास दर में घर में महिलाओं के काम भी शामिल नहीं किए जाते। यदि अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और बड़ी संख्या में लोगों को लाभ नहीं होता, तो फिर इस विकास दर के मायने क्या हैं? लेकिन जीडीपी की बढ़ोतरी इससे भी व्यापक है, जो देश के संसाधनों पर लागू होती है। वे संसाधन फ्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर हम नागरिक ही इस्तेमाल करते हैं, लिहाजा इस बढ़ोतरी पर भी संतुष्ट होना चाहिए। आलोचना के लिए कई और मुद्दे हो सकते हैं।

जैसे संकेत आ रहे हैं उनके अनुसार इस या अगले महीने पेट्रोल-डीजल को भी जीएसटी के दायरे में लाने संबंधी फैसला हो सकता है। ऐसा होने पर अर्थव्यवस्था में और भी उछाल हो सकेगा ऐसा अर्थशास्त्राr एकमत से कह रहे हैं। बेहतर होगा कि जिस तरह निराशाजनक आंकड़ों के समय सरकार ने धैर्य नहीं खोया "ाrक उसी तरह जो आंकड़े गत दिवस आए हैं उन्हें स्थायी मानकर उछलने की बजाय ये देखते रहने की जरूरत है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली उ"ापटक और उससे उत्पन्न अनिश्चितता से भारतीय अर्थव्यवस्था कैसे सुरक्षित रह सकती है।

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