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देशहित का विरोधी कृत्य ही देशद्रोह

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:4 Sep 2018 3:25 PM GMT
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श्याम कुमार

न्यायमूर्ति बीएस चौहान की अध्यक्षता में विधि आयोग का ग"न हुआ था, जिसने केंद्र सरकार को अपनी सिफारिश पस्तुत की है। उस सिफारिश में एक ऐसी बात कही गई है, जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे। कहा गया है कि देश की आलोचना करना राजद्रोह नहीं माना जा सकता है तथा राजद्रोह का आरोप तभी लागू किया जा सकता है, जब सरकार को हिंसा व गैरकानूनी तरीकों से उखाड़ फेंकने का इरादा हो। इसी पकार सर्वोच्च न्यायालय ने भी महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए पांच नक्सल समर्थकों के पकरण में टिप्पणी की है कि असहमति लोकतंत्र का `सेफ्टीवॉल्व' है, जिसके बिना लोकतंत्र फट जाएगा। सिद्धांत यह है कि जो भी कार्य देशहित के विरुद्ध हो, वह देशद्रोह होता है तथा देशहित के पक्ष में किया गया कार्य देशभक्ति होती है। विधि आयोग ने जो सिफारिश की है, यदि उसे मान लिया जाय तो इस सिद्धांत की धज्जी उड़ जाएगी। देश स्थाई होता है।

जबकि सरकारें अस्थाई होती हैं। सरकारों की आलोचना लोकतंत्र का हिस्सा हैं, लेकिन उसके साथ भी यह शर्त जुड़ी हुई है कि आलोचना झू", फरेब व हिंसा के रूप में नहीं होनी चाहिए। विधि आयोग की सिफारिश अंग्रेजों की दी हुई इस परंपरा का पोषण करती है कि देश के बजाय सरकार की आलोचना देशद्रोह है। यह सिद्धांत अंगेजों ने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए लागू किया था। जबकि देश से बड़ा कुछ नहीं होता है तथा देश की आलोचना पूरी तरह देशद्रोह है। इसीलिए हमारे संविधान में देश की अखंडता को बहुत महत्व दिया गया है।

यदि देश के बजाय सरकार की आलोचना को देशद्रोह मान लिया जाए तो उस आधार पर लोकनायक जयपकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सरकार के भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो देशव्यापी आंदोलन शुरू किया था और बाद में जिसका रूप इंदिरा सरकार को हटाने की मांग के रूप में परिणत हो गया था, उसे देशद्रोह कहा जाएगा। इंदिरा गांधी ने अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए इसी सिद्धांत के आधार पर देश पर इमरजेंसी थोप दी थी तथा पूरे देश को जेल बनाकर आमानवीय अत्याचार किए थे। यदि जयपकाश नारायण का वह आंदोलन न हुआ होता तो शायद इंदिरा गांधी का अत्याचारी शासन आगे भी चल रहा होता। इंदिरा गांधी ने संविधान को तहस-नहस कर डाला था और जयपकाश नारायण का आंदोलन न होता तो निश्चित रूप से इंदिरा गांधी अपनी सत्ता को वंशानुगत रूप में अपनी पारिवारिक सत्ता बना डालतीं। उस समय कांगेसी यह नारा लगा रहे थेö`इंदिरा इज इंडिया।' कांग्रेस एवं अन्य फर्जी सेकुलरिये मोदी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने देश में परोक्ष रूप से इमरजेंसी लगा रखी है। मजे की बात यह है कि ये लोग नित्य मोदी सरकार की गढ़-गढ़कर झू"ाr एवं फरेबभरी आलोचनाएं करते हैं तथा उनमें मोदी को अपशब्द कहने की होड़ लगी रहती है। इंदिरा गांधी ने जो इमरजेंसी लगाई थी, उस दौरान ऐसी आलोचनाएं कर सकना तो अकल्पनीय था ही, जनता इतनी अधिक आतंकित थी कि लोग घर के भीतर भी इंदिरा गांधी की आलोचना करने से डरते थे।

देश की देशभक्त लॉबी तो मोदी सरकार की इस बात के लिए आलोचना करती है कि उसने सत्ता में आते ही देशद्रोही तत्वों का क"ाsरता से उन्मूलन नहीं किया। जिस दिन दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में देश के टुकड़े-टुकड़े कर देने वाले नारे लगे थे, उसी दिन से पूरे देश में देशद्रोहियों को ढूंढ-ढूंढकर एवं चुन-चुनकर सफाया कर देने का अभियान शुरू कर दिया जाना चाहिए था। ऐसी कार्रवाई न किए जाने का दुष्परिणाम यह हुआ है कि देशद्रोही तत्व देश के कोने-कोने में घुस गए हैं तथा देश को तोड़ने वाली हरकतें कर रहे हैं। कभी `सम्मान-वापसी' के नाम पर तो कभी अन्य किसी बहाने से विश्वभर में देश को बदनाम करने के षड्यंत्र किए जा रहे हैं। राहुल गांधी ने तो अपनी हाल की विदेश यात्रा में भारत को बदनाम करने वाला खूब जहर उगला। मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर, दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, कपिल सिब्बल आदि कांग्रेस के अनेक बड़े नेता देश को क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। मनमोहन सिंह की सरकार के समय खुफिया एजेंसियों द्वारा दिसम्बर 2012 में, नक्सलियों से जुड़े हुए 128 खतरनाक संग"नों की पहचान कर ली गई थी, किन्तु उस सरकार ने कार्रवाई करने के बजाय चुप्पी साध ली थी। अब मोदी सरकार के समय मात्र पांच तत्वों पर कार्रवाई होते ही देश को क्षति पहुंचाने वाले तत्वों ने देशभर में तूफान खड़ा कर दिया है।

अधिकतर ऐसे तत्व `पगतिशील बु]िद्ध़जीवी' होने का चोला पहने रहते हैं। राजीव गांधी की हत्या की तर्ज पर पधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचा गया था तथा इस कृत्य के लिए आ" करोड़ रुपए कीमत के आधुनिक हथियार खरीदे जाने थे।

मोदी सरकार को शुरू से ही देशद्रोही तत्वों पर क"ाsर कार्रवाई करनी चाहिए थी। ऐसे तत्व उदारता की नीति से सुधरते नहीं, बल्कि उसका फायदा उ"ाकर अपने को और मजबूत कर लेते हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण जम्मू-कश्मीर है। वहां जवाहर लाल नेहरू ने अपने चहेते शेख अब्दुल्ला को हावी कर दिया था तथा भारत में विलय पर हस्ताक्षर करने वाले महाराजा हरी सिंह को रियासत त्यागकर मुंबई में रहने के लिए विवश कर दिया था। उस उदारता का दुष्परिणाम यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी तत्व पनपते व मजबूत होते गए। वहां मुस्लिम सांप्रदायिकता में डूबी समस्या इतनी जटिल हो चुकी है कि अब कैसे स्थिति काबू में आएगी, कहा नहीं जा सकता है। अनुचित उदारता की नीति का दुष्परिणाम यह हुआ है कि देशद्रोही तत्व देश की जड़ खोदने में लगे हुए हैं तथा हमारा पूरा देश जैसे ज्वालामुखी के मुहाने पर बै"ा हुआ है। वैसे तत्वों के विरुद्ध कोई भी कार्रवाई होती है तो संग"ित रूप से देशद्रोही तत्व पूरे देश में शोर मचाने लगते हैं।

पिछले दिनों लखनऊ में बुद्धिजीवियों की बड़ी संस्था `विचार मंच' की महत्वपूर्ण संगोष्"ाr हुई, जिसमें वक्ताओं ने अभिव्यक्ति की आजादी पर सर्वोच्च न्यायालय के कथन से असहमति व्यक्ति करते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी न तो असीमित हो सकती है और न देशहित के विरुद्ध की गई किसी हरकत को अभिव्यक्ति या असहमति की आजादी के नाम पर छूट दी जा सकती है। वक्ताओं ने कहा कि आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू की फर्जी सेकुलरवादी एवं तुष्टिकरण की नीतियों के परिणामस्वरूप देशविरोधी हरकतों की जो अनदेखी की गई, उसका बहुत घातक नतीजा देश भुगत रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की `पेशरकुकर' वाली टिप्पणी पर वरिष्" विचारक अशोक शर्मा ने कहा कि अभिव्यक्ति की ऐसी निरंकुश आजादी नहीं दी जा सकती, जो देश को तोड़ने वाली हो तथा ऐसी निरंकुशता पर पतिबंध लगने से कोई `पेशरकुकर' नहीं फटता है। संगोष्"ाr में वरिष्" मजदूर नेता एवं `राष्ट्रधर्म' पत्रिका के पबंधक सर्वेश चन्द्र द्विवेदी ने मांग की कि अभिव्यक्ति की आजादी किस सीमा तक उचित है, इसके हर पहलू पर विचार करने के लिए एक आयोग ग"ित किया जाना चाहिए।

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