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फोन बैंकिंग से डूबे बैंक

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:9 Sep 2018 3:05 PM GMT
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पमोद भार्गव

फ्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने `भारतीय डाक भुगतान बैंक' का उद्घाटन करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त फ्रगतिशील ग"बंधन सरकार पर हमला बोलते हुए उसे बैंकों की खस्ताहाल के लिए जिम्मेदार "हराया है। मोदी ने कहा कि `वह फोन बैंकिंग का दौर था, जिस किसी भी धन्ना से" को कर्ज चाहिए होता था, वह `नामदार' व्यक्ति से फोन कराकर आसानी से कर्ज ले लेता था। इसी तरीके से मनमोहन सिंह सरकार के पहले छह सालों में उद्योगपतियों को दरियादिली से ऋण दिए गए। इसीलिए 2013-14 में ही एनपीए बढ़कर नौ लाख करोड़ रुपए हो गया था, लेकिन इसे सरकार महज ढाई लाख करोड़ ही बताती रही। अब यह राशि करीब 12 लाख करोड़ हो गई है। माल्या और नीरव मोदी जैसे लोगों को इन्हीं के कार्यकाल में कर्ज दिया गया। हमारी सरकार ने एक भी डिफॉल्टर को कर्ज नहीं दिया। अलबत्ता हम 12 सबसे बड़े डिफॉल्टरों के खिलाफ क"ाsर कानूनी कार्यवाही करने में लगे हैं। मोदी की इस बात में दम है। वाकई संफ्रग सरकार के दौर में कंपनियों और निजी शिक्षा संस्थानों के दबाव में आकर ऐसे उपाय किए गए, जिससे बैंकों में जमा धन आसानी से कर्ज के रूप में फ्राप्त हो जाए। इसी व्यवस्था के दुष्परिणाम है कि आज देश की समूची बैंक फ्रणाली एक बड़ी परीक्षा के दौर से गुजर रही है।

नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्र में काबिज होने के बाद से लगातार ये कोशिशें जारी हैं कि कानूनों में बदलाव लाकर विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे भगोडों पर लगाम कसी जा सके और बड़ी कंपनियों से कर्ज वसूली में तेजी आए। देश के बैंकों में जमा पूंजी करीब 80 लाख करोड़ है। इसमें 75 फ्रतिशत राशि छोटे बचतकर्ताओं और आम जनता की है। कायदे से तो इस पूंजी पर नियंत्रण सरकार का होना चाहिए, जिससे जरूरतमंद किसानों, शिक्षित बेरोजगारों और लघु व मंझोले उद्योगपतियों की पूंजीगत जरूरतें पूरी हो सकें। लेकिन दुर्भाग्य से यह राशि बड़े औद्योगिक घरानों के पास चली गई है और वे न इसे केवल दावे बै"s हैं, बल्कि गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। जबकि फसल उत्पादक किसान आत्महत्या कर रहा है। एनपीए पर पर्दा डाले रखने के उपाय इस हद तक हैं कि सुफ्रीम कोट के कहने के बाबजूद भी सरकार ने उन लोगों के नाम नहीं बताये थे, जो बैंकों के सबसे बड़े कर्जदार थे। अब चूंकि सरकार खुद वैधानिक पहल कर रही है, तो उम्मीद की जा सकती है कि वह स्वयं उन 1129 कर्जदारों के नाम उजागर करेगी, जिनके बूते साढ़े नौ लाख करोड़ रुपए का कर्ज डूबंत खाते में पहुंचा है।

हालांकि ताजा रिपोर्ट के मुताबिक रिजर्व बैंक के सख्त निर्देशों के चलते 70 कंपनियां कर्ज चुकाने की व्यवस्था में लगी हैं। ये कंपनियां ऐसे खरीदार भी तलाशने में लगी है, जो इन्हें खरीद लें। हालांकि इन्हें कर्ज चुकाने की 180 दिन की जो अवधि दी गई थी, वह 27 अगस्त को पूरी हो गई है। बावजूद ये कंपनियां कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं आई है। लिहाजा इन्होंने एक बार फिर समयसीमा बढ़ाने की मांग की है। ये कंपनियां वे हैं, जिन पर 2000 करोड़ रुपए या इससे अधिक का कर्ज है। यदि यह कर्ज नहीं चुका पाती हैं तो इनकी सूची नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के पास भेजी जाएगी। जहां इनके विरुद्ध दिवालिया घोषित करने की फ्रक्रिया शुरू होगी। इन पर 3 लाख 80 हजार करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है। सौ करोड़ से लेकर 1900 करोड़ बकाया कर्ज वाली कंपनियां तो अभी वसूली के दायरे में ही नहीं आई है। नियमों को ताक पर रखकर एक ही समूह की कंपनियों को कर्ज देने के दुष्परिणाम क्या निकलते हैं, ये तब सामने आएगा, जब कर्ज न चुका पाने की स्थिति में दिवालिया कंपनियों में तालाबंदी होगी। इस स्थिति से इनमें काम कर रहे कर्मचारियों के सामने आजीविका का संकट पैदा होगा? इनमें उत्पादन बंद होने से इनकी सहायक कंपनियां फ्रभावित होंगी और बेरोजगारी बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था को बड़ी हानि होगी। क्योंकि हम देख चुके हैं कि कर्ज वसूली की सख्ती के साथ ही माल्या और नीरव मोदी जैसे कारोबारी विदेश की राय पकड़ लेते है। जिन 12 डिफॉल्टर कंपनियों पर सख्ती बरती जाने की बात फ्रधानमंत्री कर रहे है, उनसे भी लिए कर्ज की आधी धनराशि ही मिलने की उम्मीद है। इसी साल जून के अंत तक 32 मामलों का निराकरण हुआ है। इनसे कुल दावे की करीब 55 फीसदी धनराशि वसूली जाना ही संभव हुई है। इससे लगता है कि पूरा कर्ज वसूला जाना मुश्किल ही है।

अब नई जानकारियों के मुताबिक छोटे व्यापारियों, भवन एवं कारों के खरीददार और शिक्षा के लिए ऋण लेने वाले लोगों के भी एनपीए में बढ़त दर्ज की गई है। ऋण की सूचना देने वाली कंपनी क्रिफ हाई मार्प ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि लघु एवं मझौले कर्जों में शिक्षा, आवास, वाणिज्यिक वाहन एवं कारों पर दिए गए कर्ज की वापसी भी नहीं हो रही है। इनमें आवास के लिए दिए गए कर्ज की हिस्सेदारी 18.27 फीसदी है, लेकिन इस श्रेणी में सकल एनपीए 1.77 फीसदी है, जो पिछले वित्तीय वर्ष में 1.44 फीसदी था। शिक्षा ऋण की श्रेणी में एनपीए 6.13 फ्रतिशत से बढ़कर 11 फीसदी हो गया है। वाणिज्यिक वाहन और निजी उपयोग के लिए ली गई कारों पर एनपीए 45 फीसदी बढ़ गया है। इन वाहनों के लिए कंपनियों के दबाव में जिस तरह से कर्ज दिए गए हैं, उसी अनुपात में फ्रदूषण भी बढ़ा है। इस हकीकत से यह भी पता चलता है कि रिजर्व बैंक और सरकार ने कर्ज वसूली के जो भी उपाय किए है, उनके कारगर नतीजे फिलहाल नहीं निकले है।

इस तथ्य से सभी भलीभांति परिचित हैं कि बैंक और साहूकार की कमाई कर्ज दी गई धनराशि पर मिलने वाले सूद से होती है। यदि ऋणदाता ब्याज और मूलधन की किस्त दोनों ही चुकाना बंद कर दें तो बैंक के कारोबारी लक्ष्य कैसे पूरे होंगे? वाहन ऋण जहां बढ़ी वाहन और ऑटो पार्ट्स कंपनियों के दबाव में दिए गए, वहीं शिक्षा ऋण, शिक्षा माफियाओं के दबाव में दिए गए। शिक्षा का निजीकरण करने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ और देखते-देखते विश्वविद्यालय और महाविद्यालय टापुओं की तरह खुलते चले गए, उनके आर्थिक पोषण के लिए जरूरी था कि ऐसे नीतिगत उपाय किए जों, जिससे सरकारी बैंक शिक्षा ऋण देने के लिए बाध्य हों। मनमोहन सिंह के फ्रधानमंत्री रहते हुए शिक्षा के लिए ऋण देने के उदारवादी उपाय किए गए। फ्रबंधन और तकनीकी शिक्षा फ्राप्त करने के लिए ये कर्ज छात्रों का उदार शर्तों पर दिए गए।

2008 के बाद देश व दुनिया में जो आर्थिक मंदी आई, उसके चलते रोजगार का संकट पैदा हुआ और फ्रबंधन व तकनीकी संस्थानों की हवा निकल गई। इस कारण एक तो अच्छे पैकेज के साथ नौकरियां मिलना बंद हो गई, दूसरे 2015-16 में फ्रबंधन के 80 और 2017 में फ्रबंधन और इंजीनियंरिग के 800 कॉलेज बंद होने की खबरें आई हैं। जब शिक्षा के ये संस्थान इस दुर्दशा को फ्राप्त हो गए तो इनसे निकले छात्रों को अच्छा रोजगार मिलने और कर्ज पटाने की उम्मीद करना ही व्यर्थ है।

इस शिक्षा के सिक्के का यह एक पहलू यह है, लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि फ्रबंधन और तकनीकी शिक्षा को दिए गए इन कर्जों में से 90 फीसदी कर्ज ऐसे अभिभावकों की संतानों को दिए गए हैं, जो चाहें तो आसानी से कर्ज पटा सकते हैं। दरअसल यह कर्ज देने तो उन वंचित एवं गरीब लोगों को थे, लेकिन बैंकों ने इन्हें इसलिए कर्ज नहीं दिए, क्योंकि इनकी आर्थिक हैसियत जानकर बैंक इस बात के लिए आश्वस्त नहीं हुए कि इनके बच्चे कर्ज पटा पाएंगे? इसलिए यह कर्ज फ्रशासनिक अधिकारियों, अन्य सरकारी कर्मचारियों, चिकित्सकों, अभियंताओं और बैंकों में चालू खाता रखने वाले व्यापारियों की संतानों को दिए गए हैं। पिछड़े, दलित और आदिवासी छात्रों को भी उन्हीं को शिक्षा ऋण मिला है, जिनके अभिभावक सरकारी सेवा में कार्यरत हैं। इसलिए इन पर यदि सख्ती की जाए, तो इनमें से बढ़ी राशि वसूली जा सकती है।

(लेखक पिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्" पत्रकार है)

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