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महबूबा-फारुक की धमकी पर यह कैसी खामोशी?

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:13 Sep 2018 3:27 PM GMT
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डॉ.बचन सिंह सिकरवार

वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 35-ए को निरस्त कराने को लेकर कुछ याचिकाएं विचाराधीन हैं जिन पर निर्णय आना अभी शेष है लेकिन इससे पहले ही पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने धमकी देते हुए कहा है कि यदि अनुच्छेद 35-ए को हटाया गया तो जम्मू-कश्मीर से भारत का कोई रिश्ता नहीं रहेगा यानि वह उससे अलग हो जाएगा।

अब ऐसा ही रुख दिखाते हुए पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष सांसद डॉ. फारुक अब्दुल्ला ने चेतावनी दी है कि यदि केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 35-ए तथा 370 पर अपना रवैया स्पष्ट करें, अन्यथा उनकी पार्टी ने केवल स्थानीय निकाय तथा पंचायत चुनाव का नहीं, संसदीय और विधानसभा चुनाव का बहिष्कार करेगी। उन्होंने यह भी कहा कि हमारे लिए हमारी रियासत और लोगों का विशेष दर्जा ही अहम है, लेकिन हमेशा की तरह एक वर्ग विशेष के एक मुश्त वोटों के तलबगार देशभर की सभी सियासी पार्टियां और उनके रहनुमा खामोश हैं जबकि यह सवाल मुल्क की अखंडता से जुड़ा है। इस मुद्दे पर भाजपा के पूरी तरह शांत बने रहने पर हैरानी हो रही है, जो विपक्ष में रहते हुए हमेशा अनुच्छेद 370 समाप्त कराने का राग अलापती आई है जिसे कश्मीरी नेता भारत और जम्मू-कश्मीर को जोड़ने वाला गर्भनाल बताते आए हैं इसी का अहम हिस्सा अनुच्छेद 35-ए।

जब से केंद्र और फिर इसी राज्य में पीडीपी के साथ पहली बार साझा सरकार बनाने के बाद भाजपा ने इस मुद्दे को पूरी तरह से भुला-सा दिया, जबकि देश की जनता विशेष रूप से जम्मू-लद्दाख के लोगों को उससे बहुत आशा थी कि वह उनके साथ तथा देश की एकता को खंडित और लोगों के साथ भेदभाव करने वाले इस अनुच्छेद को खत्म करने के लिए आवश्यक कदम जरूर उठाएगी। इसके विपरीत भाजपा ने केंद्र में सत्ता संभालने के बाद अनुच्छेद 370 पर एक बार बुद्धिजीवियों में चर्चा करने का पयास जरूर किया।

पर पीडीपीके साथ साझा सरकार बनाने के बाद भाजपा ने उस पर चर्चा तक करना छोड़ दिया। लेकिन इस मुद्दे पर भाजपा ने बेहद बेरुखी दिखाई। फिर भी वह अलगाववादियों की हिमायती महबूबा मुफ्ती की पीडीपी को ही हमदर्दी हासिल करने में नाकाम रही। हां, इससे उसे राज्य की सत्ता तक पहुंचाने वाली जम्मू तथा लद्दाख की जनता अपने को जरूर "गा पाया, जो देश के आजाद होने से कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपीकी सरकारों के शासन में भेदभाव भोगते आ रही थी।

विभेदकारी अनुच्छेद 35-ए पर हर तरह के अन्याय, भेदभाव पर अपनी आवाज उ"ाने वाले वामपंथी, कांग्रेसी, सपा,बसपा, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, कलाकारों, पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों, मानव अधिकार वादियों आदि की खामोशी पर भी हैरानी होती है। इससे उनके चरित्र का दोगलापन दिखाई देता है। इनके द्वारा आज तक इस्लामिक कट्टरपंथियों के पाकिस्तानी झंडे लहराने, पाकिस्तान जिन्दाबाद, हिन्दुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने पर या सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने पर कभी ऐतराज नहीं जताया है। महबूबा मुफ्ती समेत कश्मीर के दूसरे नेता कुछ भी कहने को स्वतंत्र हैं, किन्तु कश्मीर उस समय से भारत का अभिन्न हिस्सा है,जब इस्लाम का उदय भी नहीं हुआ था। फिर भी विभिन्न सियासी पार्टियों के वोटों के सौदागार इस सच्चाई को बयां करने से बराबर बचते आए हैं।

अब जहां तक अनुच्छेद 35-ए को हटाने के लेकर विरोध किए जाने का प्रश्न है तो कश्मीर घाटी में इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर होने के साथ ही यहां के कई नगरों, कस्बों में बड़े पैमाने से बंद और पदर्शन शुरू होना शुरू हो गए हैं। इसे लेकर विभिन्न मस्जिदों में तकरीरें हो रही हैं। यहां तक कि ईद के मौके पर इस मुद्दे मुल्ला-मौलवियों ने तकरीरें का नमाजियों का भड़काया गया।

इससे स्पष्ट है कि अलगाववादी शक्तियां इस सूबे को इस्लामिक शरीयत से चलने वाले यानि `दारूल इस्लाम' में तब्दील करने के मकसद में कहां तक कामयाब हो चुकी हैं। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 370से कहीं अधिक अनुच्छेद 35-ए उत्तरदायी है जो संविधान के मूल पा" का हिस्सा भी नहीं है। इसे परिशिष्ट के रूप में जोड़ा गया है। फिर भी यही जम्मू-कश्मीर राज्य की शासन योजन का आधार स्तम्भ है। भारतीय संविधान का लक्ष्य देश की स्वतंत्रता, एकता, अखंडता, सार्वभौमिकता को अक्षुण्ण रखना है, पर अनुच्छेद 35-ए एक पृथक समुदाय पैदा कर अलगाववाद उत्पन्न करता है जिसे स्थायी नागरिक कहा जाता है। वस्तुतः संविधान का अनुच्छेद 35-ए यह सुनिश्चित करता है कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा का स्वरूप इस्लामिक बना रहे। यही कारण है कि जम्मू की जनंसख्या अधिक होने पर ही विधानसभ में सीटें कम रखी गई हैं और कश्मीर घाटी में आबादी कम होने पर ज्यादा, ताकि हर हाल में कोई मुसलमान ही इस सूबे का मुख्यमंत्री बन सके। यह अनुच्छेद 35-ए दो देशों के सिद्धांत को बढ़ावा देता है। यह पंथनिरपेक्ष देश भारत में एक धर्म आधारित राज्य की स्थापना करता है।

जम्मू-कश्मीर में स्थायी नागरिक को ही सरकार चुनने से लेकर सम्पत्ति खरीदने का अधिकार पाप्त है। देश के स्वतंत्र होने के बाद से विभिन्न पार्टियों के कश्मीरी नेता कश्मीरियत (पंथनिरपेक्षता) का राग अलापते हुए इसे दारूल इस्लाम के एजेंडे पर कार्य करते आए हैं। उनके इस मकसद को पूरा करने में पाकिस्तान हर तरह से मदद करता आया है। वह जहां अपने सैनिकों से जम्मू-कश्मीर की सरहद पर गोलीबारी कराते हुए यहां खूनखराबा कराने को घुस पै"िये भेजता आया है, वहीं कश्मीरी युवाओं और दूसरे नेताओं को भारी रकम भेजकर अपने मुल्क के पति अलगाव भड़काने में लगा है। पाकिस्तान की शह पर इस्लामिक कट्टरवादियों ने नब्बे के दशक में कोई चार लाख से कश्मीरी पंडित को बंदूक जोर पर घाटी से खदेड़ दिया,जो देशभर में खानाबदोष की जिन्दगी बसर करने को मजबूर हैं।

इसके साथ ही लद्दाख की बौद्ध युवतियों को बहला-फुसला कर निकाह या फिर धर्मांतरण करा कर बौद्धों की आबादी कम करने का काम करती आई हैं, ताकि इस सूबे में गैर इस्लामिक आबादी को बहुत कम या खत्म किया जा सके। अब पाकिस्तानी सेना इसी रणनीति के तहत जम्मू के सीमावर्ती हिन्दू/सिख बहुल गांवों पर गोलीबारी/बम बरसा कर उन्हें पलायन को मजबूर कर रहे हैं, ताकि इन गांवों में उनके स्थान पर मुसलमानों को बसाया जा सके।

दरअसल तत्कालीन पधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जम्मू-कश्मीर के विशिष्टता से संभंधित संविधान के अनुच्छेद 370का अपर्याप्त मानते थे। इसलिए उन्होंने गुपचुप तरीके से अपने पभाव का इस्तेमाल करते हुए 14 मई, सन 1954 को राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में अनुच्छेद 35-ए जुड़वा दिया, जिसे भारतीय संविधान के विशेषज्ञ असंवैधानिक मानते हैं। इसका कारण यह है कि संविधान में यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 368 में तय/ निर्धारित पक्रिया का पालन किए बिना किया गया है। वस्तुतः अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन के लिए उस पर संसद में चर्चा और उसे विशेष बहुमत से पारित किया जाना आवश्यक है। अवैधानिक रूप से संविधान में जोड़ा गया अनुच्छेद 35-ए देश की एकता, अखंडता के लिए अनुच्छेद 370 से कहीं अधिक खतरनाक है, क्यों कि जहां अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को देश के अन्य राज्यों से विशिष्ट बनाता है, वहीं अनुच्छेद 35-ए इसे अति विशिष्ट बनाकर संवैधानिक रूप भारतीय गणराज्य से इसे काट देता है।

इन दोनों अनुच्छेदों के कारण किसी भी भारतीय नागरिक को इस राज्य में स्थायी नागरिक रूप में बसने और सम्पत्ति क्रय करने का अधिकार नहीं है। संविधान में अनुच्छेद 35-ए जोड़े जाने के 30 महीने के बाद 17 नवम्बर सन 1957 को जम्मू-कश्मीर में संविधान लागू कर दिया गया। इसमें स्थायी नागरिक को परिभाषित किया गया। इसमें दो पकार के नागरिक सम्मिलित किया गया है।

इनमें एक जो 14 मई सन 1954 को राज्य की पजा थे और दूसरे वे लोग दस साल पहले वैध तरीके से सम्पत्ति खरीद कर रह रहे थे। सन 1947 में पश्चिमी पंजाब (पश्चिमी पाकिस्तान) से कोई 5764 परिवार आकर जम्मू में आकर रहने लगे। उनमें से 80 पतिशत दलित/वंचित वर्ग के थे, जिन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने की आवश्यकता है। लेकिन तब से अब तक इन्हें नागरिकता नहीं मिली है। इस कारण ये लोग न तो वोट डाल सकते हैं और न सरकारी नौकरी ही कर सकते हैं यहां तक कि वह सभी सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं। इनके बच्चे को न सरकारी स्कूलों में पवेष मिलता और न ही छात्र वृत्ति। राज्य विधानसभा कानून बनकार गैर स्थायी नागरिकों को मूल अधिकारों से पृथक/वंचित करने का अधिकार रखती है। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा जहां कानून बनाकर भारत के दूसरे राज्यों के नागरिकों और गैर स्थायी नागरिकों को अपने यहां बसने और सम्पत्ति खरीदने पर पूर्ण पतिबंधित कर सकती है, वहीं किसी विदेशी को भी स्थायी नागरिकता पदान कर सकती है जैसे जम्मू-कश्मीर की युवतियां द्वारा इस सूबे के अलावा देश के दूसरे किसी राज्य के युवक से विवाह/निकाह करने पर वे नागरिकता तथा उत्तराधिकार से वंचित हो जाती है।

उनके बच्चे भी नागरिकता खो देते हैं। इसके उलट यदि यहां का युवक देश के किसी अन्य राज्य अथवा पाकिस्तान समेत दुनिया के किसी भी मुल्क की युवती से निकाह/विवाह करता है तो उसे यहां की स्थायी नागरिक आसानी से मिल सकती है। इस तरह यह कानून लिंग भेद करता है। यहां के विभेदकारी कानून का अन्य एक उदाहरण पंजाब से बुलाकर यहां बाल्मीकि समुदाय के 200 परिवारों का है जिन्हें इस शर्त के साथ स्थायी नागरिकता दी गई कि वे और उनकी पीढ़ियां सफाई कर्मचारी का कार्य करेंगी। अब कई पीढ़ियां गुजरने के बाद उन्हें सफाई कर्मचारी के अलावा दूसरा कोई काम नहीं मिलता। कमोबेश यह हालत गोरखाओं की है जो कई पीढ़ियों से जम्मू-कश्मीर में रहते आए है और सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा में लगे, लेकिन अभी तक स्थायी नागरिकता नहीं मिली है।

अब देखना यह है कि उच्चतम न्यायालय इस अन्यायपूर्ण, विभेदकारी, राष्ट्रीय एकता, अखंडता के लिए घातक इस अनुच्छेद 35-ए को खत्म करती या नहीं है और जम्मू-कश्मीर के घाटी के अलगाववादी इस पर अपनी नाखुशी जताने के लिए किस हद तक अपने ही मुल्क की मुखालफत करते हैं?

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