Home » द्रष्टीकोण » कुछ परिवारों में सिमटे आरक्षण को पवाहित करना होगा

कुछ परिवारों में सिमटे आरक्षण को पवाहित करना होगा

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:14 Sep 2018 3:33 PM GMT
Share Post

राजनाथ सिंह `सूर्य'

ब्रह्मा के कमंडल से निकली गंगा शिव की जटा में ही समाहित रहती हैं। फिर भगीरथ जैसे पुरुषार्थी ने धरती पर लाने के लिए क"ाsर तप किया था। उस तप का ही परिणाम था कि हिमालय से चलकर गंगा गंगासागर तक पहुंची जहां भगीरथ के पुरखे मोक्ष के लिए पड़े थे। गंगा आज जीवनदायनी हो गई है। गंगा और अन्य नदियां भारत को शस्य स्यामला और सुफल देने वाली बन गई हैं। सहस्रों वर्षों बाद एक और गंगा निकली। संविधान से जिसका उद्देश्य था जो सहस्रों वर्षों से उपेक्षित और पीड़ित हैं उनको उस पीड़ा से मुक्ति दिलाना। संविधान के पन्नों से निकली यह गंगा कुछ पारिवारिक जटाओं में ही समाहित होकर रह गई। कोई भगीरथ अभी तक खड़ा नहीं हुआ जो उसे अंतिम छोर पर खड़े पीड़ित और वंचित लोगों को लाभ दिला सके। जब कभी चुनाव की स्थिति आती है देश में विभिन्न वर्गों में उत्तेजनात्मक ढंग से अपने अधिकार और संरक्षण की मांग पबल होती है और कभी-कभी ऐसा लगता है यह भारतीय समाज खंड-खंड हो जाएगा। अतीत में आजादी के पहले समाज को खंडित करने के लिए चलाए गए विदेशियों के अभियान का मुकाबला करने के लिए अनेक महानुभावों ने जन जागृति का अभियान चलाया। नारायण गुरु, महात्मा फुले, सावरकर, दयानंद और मालवीय गांधी सहित अनेक नाम श्रृंखला में गिनाए जा सकते हैं। इन महानुभावों ने पीढ़ियों से पीड़ित और उपेक्षित लोगों के पति समरसता की भावना का जो पयास किया वह आंदोलनात्मक अधिक रहा। फलतः कुछ लोग या कुछ वर्ग उसके विरोध में भी खड़े हो गए चाहे मंदिर में पवेश का मामला हो या कुएं तालाब से पानी लेने का। समाज के वर्गों में तनाव की स्थिति बनी है। यदि किसी एक व्यक्ति और संग"न ने तनाव विहीन सहज समरसता को अंजाम दिया तो वे थे डॉ. केशव बलिराम हेड़गेवार और उनका संग"न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जहां किसी की जाति नहीं पूछी जाती।

संघ का काम इस दिशा में बढ़ता जा रहा है लेकिन त्वरित पभाव वाली राजनीतिक शक्तियां उसी पकार से उसे मरूस्थल बनाने में जुटी हैं जैसे कड़ाह भर दूध में नींबू के चार बूंद डालकर उसे फाड़ दिया जाए। सद्विचार और कुविचार के बीच संघर्ष इस समय तीव्रतर हो गया है। अनेक समुदाय आरक्षण की मांग को लेकर उग्र हो रहे हैं। और ऐसा लगता है कि जैसे देश जातियों के संघर्ष में उलझकर विखंडित हो जाएगा। संघ के लिए तो यह बड़ी चुनौती है ही क्योंकि इससे उसके सहज समरसता के पकल्पों का पभाव ओझल हो रहा है। और वे शक्तियां जो देश के भीतर और बाहर दोनों पकार की हैंöअपने विखंडन अभियान में पूरी तरह से संलग्न हैं। इन सब के बीच जो राष्ट्रीय मुद्दा है वंचित और उपेक्षित लोगों के उत्थान जिसके लिए संविधान पतिबद्ध है और अनेक उपाय सुझाए गए हैं समय-समय पर न्यायालय ने भी जिसकी अपेक्षा पकट की है और दबी जुबान से कभी-कभार कुछ राजनीतिक नेता भी बोल जाते हैं। वह मुद्दा है कि संविधान से जो नई गंगा पवाहित हुई है वह आदि गंगा के समान क्या कुछ जटाओं में ही सीमित हो गई है और उसको बाहर निकालने के लिए कोई पयास होना चाहिए या नहीं। इस गंगा को पवाहित करने के लिए जिनके नाम की दुहाई दी जाती है वे बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर कभी इसके पक्ष में ही नहीं थे। और इस वादे के बाद 10 वर्ष के भीतर वंचित और उपेक्षित लोगों को समानता के स्तर पर लाया जाएगा। उन्होंने इस गंगा का आगे पवाहित होने देने के लिए सहमति पकट की थी। परन्तु आज भी यह गंगा अंतिम छोर तक नहीं पहुंच सकी। कुछ परिवार की जटाओं में सिमट कर रह गई। जब कभी यह आवाज उठाई जाती है कि इस बात की समीक्षा होनी चाहिए कि जिस उद्देश्य से आरक्षण की गंगा को पवाहित किया गया क्या वह अंतिम छोर तक पहुंच पाई है। तब यही जटाधारी लोग ऐसा कहने वालों को आरक्षण विरोधी घोषित कर ऐसा घेरते हैं जिसका मुकाबला करने के लिए समीक्षावादी इसलिए मुखरित नहीं होते क्योंकि इससे समाज में टूटन बढ़ने का खतरा पैदा हो जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पारिवारिक जटाओं में सिमटी आरक्षण की गंगा को गंगासागर अर्थात अंतिम छोर तक पहुंचाने के लिए सगर के वंशजों में एक भागीरथ के समान इस वर्ग से ही अंतिम छोर तक ले जाने का पुरुषार्थ करने वाला खड़ा होना चाहिए।

आरक्षण ने जहां विभिन्न वर्गों में अधिक सुविधा के लिए पात्रता के स्थान पर संख्या बल को महत्व दिए जाने के राजनीतिक दृष्टिकोण से पेरित होकर ऐसा वातावरण पैदा करना शुरू किया है जो देश को खतरनाक दिशा में ले जा रहा है। और विश्व में भारत की बदनामी का कारण बन रहा है। आरक्षित वर्ग में इक्का-दुक्का समीक्षा करने की आवाज उ"ाने वाले उसी तरह से लुप्त हैं जैसे नक्कारखाने में तूती की आवाज। यही कारण है कि किसी एक परिवार को चौथी पीढ़ी तक आरक्षणण का लाभ उ"ा रही हैं। और अधिकांश पीढ़ियों के चौखट तक अभी यह नीति दस्तक नहीं दे पाई है। संसद विधानमंडल और न्यायालय में इस मसले पर जो भी चर्चा या विवाद हो रहा है वह समस्या को सुलझाने के बजाय और उलझाता जा रहा है। लोकतंत्र का अर्थ `जिसकी जितनी संख्या भारी उसको उतनी जिम्मेदारी' का भाव पभावी होने के कारण वोट बैंक की राजनीति ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण के प्रावधान को विस्तारित कर पिछड़ा वर्ग के नाम से संबोधित अनेक जातियों तक उसका पसार किया है। इनके बराबर आरक्षण पाने के लिए जो वंचित रह गई जातियां हैं वे अलग-अलग राज्यों में तो सिर उ"ा ही रही हैं साथ ही अनुसूचित और पिछड़ा वर्ग में अति अनुसूचित और अति पिछड़ा वर्ग का एक समूह खड़ा हो रहा है। जिसका कहना है कि आरक्षित वर्ग में हमारी उपेक्षा हो रही है। आरक्षण के भीतर आरक्षण का प्रावधान किए जाने का माहौल बनता जा रहा है।

आरक्षण का मुख्य उद्देश्य जो पिछड़े रह गए हों उनको समान स्तर पर लाना रहा है। अब यह उद्देश्य पीछे पड़ गया है। जो वंचित हैं वे किसी वर्ग के हों वे वंचित ही चले आ रहे हैं। कोई कारण नहीं है कि आईएएस के परिवार को आरक्षण का लाभ मिलता रहे और एक ब्राह्मण चपरासी को उसके लाभ से वंचित रखा जाए। यह तभी संभव है जब जो वंचित है उसको समान रूप से लाभ मिले। इसके लिए बार-बार आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का निर्देश न्यायालय ने दिए हैं। उसकी तरफ ध्यान देने का साहस शायद ही किसी संग"न में हो। जो जातिपातिविहीन समरसता के हामी हैं वे भी आरक्षण का प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए चलते रहने की वकालत करने लगे हैं। इस समर्थन में यह भय निहित है यदि पहचान में समानता की बात की गई तो वे शक्तियां जो समाज को तोड़ने में लगी हैं अधिक पभावशाली हो जाएंगी। य्

ाह भय समरसतावादियों को कदम उ"ाने के लिए कामयाब अवश्य हो रहा है। लेकिन उससे पथकतावादियों के हौंसले ही बुलंद हो रहे हैं और वे पृथकता के नए-नए आयाम को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए आरक्षण को आर्थिक आधार पदान करना तो संभव नहीं दिखाई पड़ता। परन्तु क्या जो आरक्षित वर्ग है उसमें निचले स्तर तक उसे पहुंचाने के लिए समीक्षा नहीं होनी चाहिए। परिवार की जटाओं में लिपटी रह गई आरक्षण की गंगा को अंतिम छोर तक पहुंचाने का पयत्न नहीं होना चाहिए। उसी पयत्न को समीक्षा का नाम दिया गया है। परन्तु इस समीक्षा की आवाज किसी वर्ग से नहीं उ" रही है क्योंकि इसमें किसी को भगीरथ बनने का साहस नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी भगीरथ के खड़े होने के अभाव में आरक्षित वर्ग में `क्रीमीलेयर' का पावधान करने का सुझाव दिया है जो कुछ हद तक इस समस्या का समाधान कर सकता है लेकिन यह क्रीमीलेयर उस पकार से लागू नहीं होना चाहिए जैसा पिछड़ा वर्ग के लिए कुछ राज्यों ने प्रावधान कर रखा है।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं।)

Share it
Top