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चुनाव सुधार नहीं हुए तो हो जाएगा लोकतंत्र खोखला

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:15 Sep 2018 3:27 PM GMT
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इन्दर सिंह नामधारी

यह गौरव की बात है कि भारत का लोकतंत्र जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पिछले लगभग सात दशकों से भारतीय लोकतंत्र की जड़ें काफी मजबूत हुई हैं क्योंकि भारत की स्वतंत्रता के साथ ही नवसृजित हुए पाकिस्तान में लोकतंत्र की गाड़ी कई बार पटरी से उतरती रही है। भारत चूंकि विविधताओं से भरा हुआ देश है इसलिए लोकतंत्र की सफलता के लिए यहां शासकों को बहुत सतर्प रहने की जरूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय लोकतंत्र ने विश्व के रंगमंच पर एक विशिष्ट स्थान पाप्त कर लिया है लेकिन जैसे-जैसे समय बीत रहा है कतिपय हानिकारक पवृतियां हमारे लोकतंत्र में प्रवेश करती जा रही हैं। आकार में बड़ा देश होने के कारण हमारे देश में चुनावों की सरगर्मी लगभग पांचों वर्ष बनी रहती है। वर्ष 2014 के हुए संसदीय चुनावों के बाद विगत चार वर्षों के दौरान भिन्न-भिन्न पदेशों के लगभग एक दर्जन चुनाव हो चुके हैं। कर्नाटक के चुनाव की गर्मी अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि राजस्थान, मध्यपदेश एवं छत्तीसगढ़ के चुनाव दस्तक देने लगे हैं। अब तो तेलंगाना राज्य भी चुनाव के मैदान में कूद गया है। जैसे ही उपरोक्त राज्यों के चुनाव सम्पन्न होंगे लोकसभा का चुनाव सामने आ जाएगा। स्वतंत्रता के तुरंत बाद हुए दो-तीन चुनाव इसलिए पाक साफ थे क्योंकि लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते रहे। इसके अतिरिक्त उस समय भारत की जनता देश भक्ति की भावना से मतदान किया करती थी जिसमें प्रत्याशी की छवि और उसके दल को महत्व दिया जाता था। चुनावों में धन का बोलबाला तो लगभग नगन्य था। इसे विडंबना ही कहेंगे कि आज के भारत में लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनावों के मायने सर्वथा बदल चुके हैं। इस पृष्ठभूमि में चुनावी पक्रिया में यदि आमूलचूल परिवर्तन नहीं किए गए तो भारत का लोकतंत्र खोखला हो जाएगा।

सभी जानते हैं कि राष्ट्रीय पार्टियां भी आजकल टिकट देने के पहले पत्याशियों की जाति, उसके धर्म एवं उसकी आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करने से बाज नहीं आतीं। अब तो चुनावों के दौरान प्रत्याशी का अपराधी होना भी एक आवश्यक कारक माना जाने लगा है। दुख तो तब होता है जब बड़े-बड़े नामचीन नेता भी अपनी जाति के बाहुल्य वाले क्षेत्रों से ही चुनाव लड़ना पसंद करते हैं ताकि जाति के नाम पर आसानी से ध्रुवीकरण हो सके। अब तो जातिगत भावना इतनी गहरी जड़ें पकड़ चुकी है कि जातियों के साथ-साथ पत्याशियों की उपजातियां तक भी लोग पहुंचने लगे हैं। यह पवृति स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। सर्वविदित है कि आचार्य कृपलानी, मधु लिमये एवं जॉर्ज फर्नांडीस जैसे नेता बिहार से चुनाव लड़कर राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात हो गए क्योंकि उस समय स्थानीयता की संकीर्ण भावना ने जनता में प्रवेश नहीं किया था। आजकल कोई बड़ा नेता जब अपनी जाति के बाहुल्य वाले क्षेत्र से खड़ा होता है तो इससे जातीयता को शह मिलनी स्वाभाविक हो जाती है। भारतीय लोकतंत्र की दूसरी सबसे विकृति है चुनावों के दौरान पानी की तरह पैसा बहाना। चुनाव के दौरान किए खर्च एवं चुनाव आयोग को बताए गए खर्च में जमीन और आसमान का फर्प होता है क्योंकि पत्याशियों द्वारा चुनाव अधिकारी के सामने पस्तुत किए गए हिसाब लगभग फर्जी ही होते हैं। इस आलोक में आज के दिन तो किसी गरीब जिसका कोई गॉड फादर न हो उसके लिए लोकसभा का चुनाव लड़ना लगभग असंभव-सा दिखने लगा है। पूंजीपति एवं बड़े-बड़े कारपोरेट घराने अपने मनपसंद पत्याशियों को भारी-भरकम चंदे देकर चुनाव जीतवाने में मदद करते हैं जिसके आभार से दबकर जीतने के बाद जनपतिनिधि उनके हित साधन में लग जाते हैं। राष्ट्रीय दलों की टिकटें लेकर लड़ने वाले पत्याशियों को भी अपनी औकात से बढ़कर खर्च करना पड़ रहा है। अब तो पंचायतों के मुखिया का चुनाव लड़ने वाले लोग भी लाखों में खर्चा करने को विवश हैं। जब पंचायत की स्थिति यह है तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए कितने धन की जरूरत पड़ेगी? यही कारण है कि भारत के चुनावों में कालेधन का खुलकर पयोग हो रहा है। आज का सत्ताधारी दल भले ही नोटबंदी को कालेधन को खत्म करने का एक सक्षम उपक्रम मानता हो लेकिन हकीकत इससे सर्वथा भिन्न है। नोटबंदी से कालेधन पर रंच मात्र भी असर नहीं पड़ा है क्योंकि रिजर्व बैंक द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक नोटबंदी के बाद हजार और पांच सौ के पचलित नोटों का 93 पतिशत रूपया सरकारी खजाने में जमा हो चुका है। इन आंकड़ों के जारी होने के बाद देश की जनता पूछ रही है कि कालाधन गया तो कहां गया? भारत में कोलधन का पयोग या तो शादी-विवाहों में किया जाता है या फिर चुनावों में। विधानसभा एवं लोकसभा के चुनावों में धनबल का पभाव यदि इसी तरह बढ़ता गया तो शायद लोकतंत्र के मायने ही बदल जाएंगे। सत्ता में आई मोदी सरकार को सबसे पहला काम चुनावों में सुधार लाने का करना चाहिए था क्योंकि स्वच्छ चुनाव लोकतंत्र के मूलाधार माने जाते हैं। महात्मा गांधी कहा करते थे कि जब तक साधन पवित्र नहीं हेंगे साध्य कभी पवित्र नहीं होगा। इस पृष्ठभूमि में यदि जीतने वाले पतिनिधि जाति, धर्म, धनबल एवं भुजबल के सहारे जीत कर जाएंगे तो शुद्ध शासन पणाली की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पधानमंत्री जी ने पिछले सवा चार वर्षों में सौ से अधिक विकास योजनाओं की घोषणा की होगी लेकिन चुनाव सुधारों की दिशा में वे एक छोटा-सा कदम भी नहीं उ"ा सके।

स्वर्गीय राजीव गांधी जी के पधानमंत्रित्व काल में दल-बदल को रोकने के लिए संविधान में संशोधन किया गया था जिसको संविधान की दसवीं अनुसूची के नाम से जाना जाता है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि 10वीं अनुसूची के पावधान के बावजूद दल-बदल का गौरखधंधा आज भी यथावत जारी है। इसका मुख्य कारण है कि संवैधानिक पदों पर बै"s महानुभावों द्वारा भी 10वीं अनुसूची का अनुसरण न किया जाना। राज्यसभा में श्री शरद यादव की सदस्यता जदयू के अध्यक्ष के एक पत्र की पाप्ति के बाद तुरंत छीन ली जाती है लेकिन थोक भाव में दल-बदल करने वाले जनपतिनिधि पांच सालों तक अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार दल-बदल करने वाले सदस्यों का मामला सबसे पहले विधानसभा या लोकसभा के अध्यक्ष के पास दायर किया जाता है लेकिन अमूमन यही देखा जा रहा है कि अध्यक्ष फैसला देने में इतना विलंब कर देते हैं कि अगला चुनाव दस्तक देने लगता है। इस पद्धति में भी परिवर्तन किया जाना चाहिए क्योंकि दल-बदल के मामलों को अगले चुनाव तक टाले रखना अब हास्यास्पद लगने लगा है। दल-बदल के कानून में यह शर्त अनिवार्य रूप से जोड़ी जानी चाहिए कि लोकसभा या विधानसभाओं के अध्यक्ष दल-बदल के मामलों के फैसले एक वर्ष की अवधि के अंदर अवश्य कर दें ताकि विरोधी पक्ष न्यायालय की शरण में जा सकें। हमारे लोकतंत्र का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में प्रवेश कर गई विकृतियों को दूर कर लिया जाए। जिस तेज गति से देश का सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न हो रहा है उससे यही सिद्ध होता है कि भारत की चुनाव पणाली में कतिपय मौलिक परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)

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