हिन्दी को शुरू से नेहरू की नजर लगी
श्याम कुमार
हिन्दी पूरे देश में अपने आप फैली तथा पल्लवित-पुश्पित हुई। कभी पूरे देश में संस्कृत भाषा की एकछत्र व्यापकता थी। कश्मीर तो हिन्दू संस्कृति एवं संस्कृत भाषा व साहित्य का सबसे बड़ा गढ़ था। हमारे देश के स्वातंत्र्य में संग्राम में हिन्दी की बहुत बड़ी भूमिका थी। जमीनी स्तर पर उस स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी ने नींव का काम किया था। हिन्दी के पचार व पसार में सबसे बड़ा योगदान गैर-हिन्दी भाषियों का हुआ। गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि गैर-हिन्दीभाषी क्षेत्रों में हिन्दी की पुख्ता इमारत गैर-हिन्दीभाषियों द्वारा ही खड़ी की गई। हिन्दी पत्रकारिता का सम्पूर्ण ढांचा बंगभाषियों द्वारा बनाया गया। संविधान सभा में हिन्दी को देश की राजभाषा के रूप में सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था, जिसमें मुख्य योगदान गैर-हिन्दीभाषियों का था। संविधान सभा में जब देश की राजभाषा का पश्न आया तो बड़ी संख्या उन लोगों की थी, जो संस्कृत को राजभाषा बनाना चाहते थे। उस समय संस्कृत के पक्ष में मुख्य रूप से यह तर्प दिया गया था कि चूंकि पायः समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत है तथा देश की सभी भाषाओं में संस्कृत के शब्द भरे पड़े हैं, इसलिए यहां के सभी क्षेत्रों के लोगों को संस्कृत में सहूलियत होगी।
इसके विपरीत हिन्दी का पक्ष लेने वालों का कहना था कि हिन्दी देश के विशाल क्षेत्र में नीचे तक इतनी फैल चुकी है कि उसने जनभाषा का रूप ले लिया है। इसके अलावा अन्य भाषाई क्षेत्रों में भी हिन्दी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा समझी जाती है। पूरे देश में तीर्थयात्राओं के समय लोगों का काम हिन्दी में आसानी से चल जाता है। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन-जैसी अतिमहान हस्ती भी हिन्दी का झंडा बुलंद किए हुए थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तो हिन्दी के बिना देश की आजादी को अधूरी मानते थे। इसलिए हिन्दी का पलड़ा बहुत भारी था और बिना किसी क"िनाई के उसका देश की राजभाषा बन जाना सुनिश्चित था। लेकिन तभी खलनायक की तरह जवाहर लाल नेहरू कूद पड़े।
जवाहर लाल नेहरू अपने खानदानी पभाव के कारण पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में पूरी तरह डूबे हुए थे। उन्होंने स्वयं कहा था कि वह भले ही हिन्दू घर में पैदा हो गए, लेकिन उनके आचार-विचार पूरी तरह मुसलमान एवं ईसाई हैं। उन्हें जिस पकार हिन्दू धर्म एवं पाचीन भारतीय संस्कृति से घृणा थी, उसी पकार उन्हें हिन्दी से भी नफरत थी।
जवाहर लाल नेहरू ने अपनी कुटिल चालें चलनी शुरू कर दीं और पयासरत हो गए कि संविधान सभा में देश की राजभाषा अंगेजी स्वीकार कर ली जाए। लेकिन नेहरू के उस पस्ताव का बहुत कड़ा विरोध हुआ। जब नेहरू ने देखा कि इस मामले में वह अकेले पड़ गए हैं तो उन्होंने दूसरी चाल चली। उन्होंने कहा कि हिन्दी की लिपि के रूप में देवनागरी के बजाय रोमन अर्थात अंगेजी लिपि अंगीकार कर ली जाए। उनकी इस मांग का भी बहुत तगड़ा विरोध हुआ और अकेले पड़ जाने के कारण नेहरू को चुप हो जाना पड़ा। संविधान सभा में 14 सितम्बर को सर्वसम्मति से हिन्दी को देश की राजभाषा तथा उसकी लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को स्वीकार कर लिया गया। सुविधा के लिए यह पावधान कर दिया गया कि अगले 15 वर्षों के लिए हिन्दी के साथ वैकल्पिक भाषा के रूप में अंगेजी भी चलती रहेगी, ताकि उन 15 वर्षों में देश के सभी लोग हिन्दी सीख लें। गृह विभाग के अंतर्गत एक संसदीय समित का भी पावधान किया गया, जिसे यह जिम्मेदारी दी गई कि वह हिन्दी के कार्यान्वय पर नजर रखेगी तथा हर पांच वर्ष के बाद हिन्दी की पगति के संबंध में अपना पतिवेदन सौंपेगी।
राजभाषा से संबंधित उपर्युक्त संसदीय समिति ने अपना पतिवेदन 1960 में गृह विभाग को दिया, ताकि उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जा सके। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत संसदीय समिति की उस रिपोर्ट को लेकर पधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास स्वयं गए। राजभाषा के मामले में संविधान सभा में नेहरू की नहीं चली थी।
इसलिए उनके सीने में हिन्दी के विरुद्ध ज्वालामुखी धधक रहा था। वह क्रोध से तमतमा उ"s और उन्होंने गोविंद वल्लभ पंत द्वारा लाई गई हिन्दी से संबंधित संसदीय समिति की रिपोर्ट वाली उस फाइल को नानसेंस कहते हुए जमीन पर फेंक दिया। गोविंद वल्लभ पंत नेहरू के उस दुर्व्यवहार से हतपभ रह गए और उन्हें गहरा सदमा पहुंचा। उन्हें दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल में उनका 7 मार्च, 1961 को निधन हो गया। इस पकार हिन्दी को लेकर गोविंद वल्लभ पंत के पाणों की आहुति का कारण नेहरू बने।
संविधान सभा में अपनी हार को नेहरू भूले नहीं और हिन्दी के विरुद्ध उन्होंने पधानमंत्री पद का दुरुपयोग शुरू किया। उन्होंने अंगेजों वाली `बांटों और राज करो' की नीति अपना ली। उन्होंने गैर हिन्दीभाषी क्षेत्रों में अपने भाषणों में यह कहना शुरू किया कि उनकी भाषा हिन्दी से अधिक उन्नत एवं समृद्ध है तथा उन पर हिन्दी हरगिज नहीं थोपी जाएगी। नेहरू ने यह कह कर गैर हिन्दीभाषी क्षेत्रों में हिन्दी के विरुद्ध ऐसा जहर भरा कि वहां धीरे-धीरे हिन्दी-विरोधी माहौल बनने लगा। दक्षिण में जिन तत्वों द्वारा उत्तर भारत के विरुद्ध विषाक्त वातावरण बनाया जा रहा था, उन्होंने नेहरू का यह हिन्दी-विरोध लपक लिया। हिन्दी के विरुद्ध नेहरू के अभियान व षड्यंत्र का यह नतीजा हुआ कि ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि जब तक देश का एक भी छोटे से छोटा राज्य चाहेगा, अंगेजी अनंत काल तक पूरे देश पर लदी रहेगी। यानि देश की भाषाई किस्मत न्यूनतम जनसंख्या वाले एक बहुत छोटे राज्य के हाथ में बंधक होकर रह गई। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय देश में राष्ट्रवाद की जो जबरदस्त भावना व्याप्त थी, नेहरू ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए उसका दमन कर डाला।
आज का वातावरण देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती है कि हमारे देश में कभी राष्ट्रवाद की भीषण लहर व्याप्त थी। महात्मा गांधी ही नहीं, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, लौहपुरुष सरदार पटेल आदि देश की अतिमहान विभूतियों ने हिन्दी का जो अलख देश में जगाया था, उसका नेहरू ने हर पकार से उन्मूलन किया।
महात्मा गांधी के तीन सर्वाधिक पिय विषय थेöस्वदेशी, हिन्दी एवं गाय। नेहरू ने गांधी जी के इन तीनों परमपिय विषयों की हत्या कर दी। वह चुनाव में अपना व अपनी पार्टी को लाभ पहुंचाने के लिए अपने को गांधीवादी घोषित करते रहे, लेकिन उन्होंने रूसी मॉडल अपनाकर गांधीवाद की निर्मम हत्या कर दी। इसीलिए कहा जाता है कि नाथूराम गोडसे ने गांधी जी के शरीर की हत्या की, किन्तु उनकी वास्तविक हत्या जवाहर लाल नेहरू ने की। नेहरू की स्वार्थपरता एवं कुटिलता का ही दुष्परिणाम है कि अंगेजी अनंतकाल के लिए हमारे देश की महारानी बन गई है तथा हिन्दी मात्र नौकरानी होकर रह गई है।