खेल व्यवसाय के क्षेत्र में असहाय होता खेल
सुधाकर दुबे
भारत में क्रिकेट आईपीएल की सफलता और उसकी चकाचौंध ने बाकी अन्य खेलों को भी व्यावसायिक होने का रास्ता दिखा दिया है। इससे बुनियादी सवाल खड़े हो गए हैं। वह यह कि खेल में व्यवसाय तो चल सकता है, लेकिन व्यवसाय से खेल का विकास नहीं हो सकता। वजह यह है कि खेल के इस व्यवसाय में खेल ही असहाय है।
खेल में व्यवसाय तो चल सकता है, लेकिन व्यवसाय भर से खेल फल-फूल नहीं सकता है। खेल में बढ़ते व्यवसाय से क्या खेल के प्रति व्यवहार भी बदला है? व्यवसाय में खेल होता है, मगर खेल में व्यवसाय की नैतिक सीमाएं होती हैं। खेलों में लगातार बढ़ते व्यवसाय से क्या खेलों की लोकप्रियता और उनको खेलने की लगन बढ़ी है? व्यवसाय और खेल सृष्टि की शुरुआत से चले आ रहे हैं, लेकिन क्या अपन खेल व्यवसाय और खेल व्यवहार का सही समन्वय बना पाएं है?
महान ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिलाड़ी और बाद में महानतम सिद्धहस्त कुशल कमंट्रेटर रिचि बेनो से एक खेल पत्रकार ने पूछा कि `खेलों पर किसका स्वामित्व होना चाहिए?' बेनो ने बिना पलक झपके कहा था `खेलों काआयोजन करने वाले ही खेलों के मालिक होते हैं।' खेलों का प्रेमपूर्वक व निष्ठापूर्ण आयोजन ही खेलों को लोकप्रिय बनाते हुए खेलने के लिए प्रोत्साहित करता है। प्रतिस्पर्धा के आयोजन के लिए आर्थिक अनुदान आवश्यक होते हैं। इसी से सरकार की मनोइच्छा और मनसा का इम्तिहान लिया जा सकता है। अगर सरकारें खेलों में रुचि न रखती हों तो आर्थिक तंगी में खेल के प्रति प्रोत्साहन प्रभावित होता है। सरकारी नाकामी में खेल और व्यवसाय की जुगलबंदी एक आसान रास्ता है। क्रिकेट के बाद हॉकी, बैडमिंटन, कबड्डी, टेबल-टैनिस और फुटबॉल की लीग चल निकली है। इन सभी खेलों की लीग को उपभोक्तावादी बनाने के लिए मालिकों के सामने खिलाड़ियों की नीलामी होती है। नीलामी में खिलाड़ियों की बोली लगती है और वे ज्यादा से ज्यादा धन के लिए किसी भी टीम मालिक को बिक जाते हैं। खिलाड़ियों को वस्तु मानने की यह प्रथा भारत में ही शुरू की गई। और इस मंडीनुमा नीलामी का टीवी पर सीधा प्रसारण होता है। यह प्रथा खेल और खिलाड़ी भावना दोनों के साथ धोखा के समान है।
आजकल भारत में खेलों को व्यवसाय से जोड़ा जा रहा है। यह जुगत महज जुगाड़ भर है। भारतीय आबादी को ध्यान में रखते हुए खेलों के जरिये व्यवसाय से मुनाफा कमाने की व्यवस्था चलाई जा रही है। खेलों के जरिये मुनाफा कमाने की इस व्यवस्था से खेलों के प्रति नया माहौल जरूर बना है। खेलों की लोकप्रियता भी बड़ी है, लेकिन खेलों को खेलने की लगन और प्रेम से खेल चलाने की निष्ठा का अभी भी इंतजार है।
देश में खेल का व्यवसाय तो बढ़ना चाहिए, लेकिन खेल में व्यवसाय ही केवल ध्येय नहीं रहना चाहिए। खेल के लिए व्यवसाय तो हो, लेकिन व्यवसाय के लिए खेल नहीं होना चाहिए। भारत में खेल के लघु संस्करणों की बाढ़-सी आ गई है। आईपीएल की सफलता और उसकी चमकीली चकाचौंध ने बाकी खेलों में भी ऐसी ही लीग चलाने की व्यवसायी व्यवस्था चलाई है। इस लोक-लुभावन लघु खेल संस्करणों में बेशक टीम मालिकों ने मुनाफा न कमाया हो, लेकिन खेलों को लोकप्रिय बनाने और खिलाडियों को धन दिलाने में जरूर योगदान दिया है। खिलाड़ियों को लगातार मिलते स्टारडम और धन के कारण बच्चों को संगठित खेल खेलने के लिए आकर्षित व प्रोत्साहित किया है। खेलों को गंभीरता से लेने और कर्मठता से खेलने की पहल भी हो रही है। अचानक भारतीय खेल का भविष्य खेलमय लग रहा है। क्रिकेट आईपीएल टीम मालिक मान भी रहे थे कि दो-तीन साल बाद ही कमाई शुरू हो पाएगी। लेकिन अनाप-शनाप खर्चों के कारण सात साल बाद भी उनकी कमाई नहीं हो पा रही है। लेकिन फिर भी उनने अपने अन्य व्यवसायी मुनाफे से आईपीएल टीम को चलाए रखा है। आईपीएल से जुड़ी चकाचौंध, चमक और लोकप्रिय अस्तित्व ने टीम मालिकों को अन्य मनभावन संभावनाओं में लगने, शामिल होने का मौका दिया है। टीम मालिकों को आईपीएल में खेल के अलावा भी मजा आने लगा है। टीम मालिकों के निजी व प्रायोजित धन को खिलाडियों में बांटा जाना खेल को चलाए रखने के लिए जरूरी था।
आज आईपीएल अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण का केंद्र बन चुका है। लेकिन क्या इन प्रायोजित कॉरपोरेट निर्धारित खेलों की लीग से राष्ट्रीय खेलों में सुधार आया है? हाल के भारतीय क्रिकेट के प्रदर्शन को देखते हुए यह सवाल उठाना बेमानी है। आखिर व्यवसाय खेल को कितना समृद्ध बना सकता है? इपीएल (इंग्लिश प्रीमियर लीग) की तर्ज पर आईपीएल की शुरुआत हुई थी। क्या इपीएल से इंग्लैंड की फुटबॉल सुधर पाई यह प्रश्न सामने है? क्रिकेट के बाद हॉकी, बैडमिंटन, कबड्डी और अब फुटबॉल की लीग चल निकली है। इन सभी खेलों की लीग को उपभोक्तावादी बनाने के लिए मालिकों के सामने खिलाडियों की नीलामी होती है। नीलामी में खिलाड़ियों की बोली लगती है और वे ज्यादा से ज्यादा धन के लिए किसी भी टीम मालिक को बिक जाते हैं। खिलाड़ियों को वस्तु मानने की यह प्रथा भारत में ही शुरू की गई। और इस मंडीनुमा नीलामी का टीवी पर सीधा प्रसारण होता है। यह प्रथा खेल और खिलाड़ी भावना दोनों के साथ धोखा है। सभी जानते हैं कि नीलामी में वस्तु की सही कीमत कभी नहीं लगती है। व्यवसाय में सही कीमत आंकने और मांगने की नैतिक जिम्मेदारी भी होती है। वह इस खेल व्यवसाय से नदारद है। हॉकी का सबसे महंगा खिलाड़ी क्रिकेट का सबसे सस्ता खिलाड़ी होकर रह गया है। खेलों की लोकप्रियता के ही कारण खिलाड़ियों के साथ यह दुर्व्यवहार होता आ रहा है। यह खिलाड़ी खुद भी नहीं जानते हैं।
सम्पूर्ण विश्व में यदि किसी देश ने पिछले कुछ सालों में बहुमुखी विकास किया है तो वह चीन है। चीन ने अपनी आर्थिक व्यवस्था की ही तरह खेलों को भी कॉरपोरेट के भरोसे नहीं छोड़ा। आज खेल और आर्थिक स्थिति दोनों में चीन अव्वल है। पिछले तीस सालों में चीन ने जो आर्थिक तरक्की और खेलों में सफलता पाई है, वह गिने-चुने कॉरपोरेट घरानों की मिल्कियत, नीलामी के वातावरण और चकाचौंध के भुलावे में कतई नहीं मिली है। इसका कारण चीन की खेलों के प्रति साफ सरकारी मंशा, उनके लोगों की कमरतोड़ मेहनत और राष्ट्रीय संस्कारों के प्रति आदर है। क्योंकि कॉरपोरेट की रुचि देश के दूर-दराज इलाकों में जाकर प्रतिभा को तलाशने-तराशने में नहीं बल्कि बड़े शहरों में अपनी वस्तु के प्रचार और उसकी बिक्री से आने वाले मुनाफे में होती है। निजी टीम और पालतू खिलाड़ियों पर सवार टीम मालिक अपने को खेलों का माई-बाप समझने लगते हैं। खेल उनके नाज़-नखरों का मोहताज होकर रह जाता है। वे खेल के जरिये खिलाड़ियों का इस्तेमाल अपनी वस्तु बेचने और मुनाफा कमाने में करते हैं। इससे खिलाड़ियों की आर्थिक उन्नति तो होती है, लेकिन खेल और खिलाड़ी के सम्मान का विकास नहीं होता है। खेल का व्यवसाय तो चल रहा है, लेकिन खेल का विकास थम गया है। अमीर उद्योग घरानों के भरोसे और निजी मालिकों की मनमर्जी पर खेलों को चलने देना कतई `गुड गवर्नेंस' नहीं है। खेलों के सुनियोजित आयोजन की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए। चीन की सरकार ने 1994 से 2001 तक के सात सालों में अपना खेल बजट पांच गुणा कर दिया था। इसी का नतीजा था कि 2008 के बीजिंग ओलंपिक में चीन सबसे ज्यादा पदक जीत कर पहले स्थान पर काबिज हुआ। देश की सरकार ही जनता के धन को निस्वार्थ सर्वहित कल्याण में लगा सकती है। खेल में व्यवसाय तो फिर भी चलता रह सकता है, लेकिन खेल को अंधाधुंध व्यवसाय से बचाया जा सकता है। राष्ट्रीयता को खेलों का सार-तत्व माना गया है। सार्थक विकास और राष्ट्र-निर्माण के लिए आर्थिक समन्वय जरूरी होता है। आधुनिक वैश्विक समाज में शांति और भाई-चारा बनाए रखने के लिए खेल एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है। इसलिए असहाय खेलों को व्यवसायी एकाधिकार से मुक्त करना होगा। यही खेलों में मिनिमम गवर्नमेंटöमैक्सीमम गवर्नेंस होगा।
(लेखक केंद्रीय विद्यालय नम्बर 2 दिल्ली छावनी में शारीरिक शिक्षा के शिक्षक हैं।)