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हालात कितने भी अच्छे या बुरे हों खेल तो मन का है

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:6 Oct 2018 4:00 PM GMT
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उम्र, डीलडौल या लियाकत में आपकी बराबरी के कुछ लोग जरूर होंगे जिन्हें आप खुशनसीब समझते होंगे। दूसरी तरफ ऐसे भी हैं जो दुआ करते हैं, काश वे आपकी तरह किस्मत वाले होते तो उनका जीवन धन्य हो जाता। सब मन का खेल है। इंसानी फितरत बड़ी अजीबोगरीब है। दूर का नजारा सुनहरा लगता है। नजदीक पहुंचो तो बालू का ढेर। जिस किराये के मकान में मैं रहता था उस मकान मालिक का बेटा कहता था, पापा ने ऐसी बेकार जगह मकान बनवाया, पीछे कच्ची कॉलोनी है। डिफेंस कालोनी, सुंदर नगर जैसी कॉलोनी में रहते तो बेहतर रहता। एक दिन फुर्सत में उस लड़के को बुला कर क्लास ली। तुम नौकरी में हो। इस मकान का एक कमरा किराये पर लेने की औकात नहीं है तुम्हारी, समूची तनख्वाह कम पड़ जाएगी। उस बाप को कोसते रहते हो जिसने छोटी तनख्वाह में तुम तीनों औलादों को पढ़ाने-लिखाने के बावजूद जैसे तैसे इस शानदार कॉलोनी में यह बढ़िया घर बनवाया। उसने मुझसे रामारामी बंद कर डाली। अपनी लियाकत और हुनर बढ़ाने के बदले वह दिमाग में फितूर लिए था कि उसका दरजा नामी कॉलोनियों में रहने वालों से नीचा है। दिक्कत यह है कि बढ़ती उम्र में भी एकबारगी बन गए नजरिये में बदलाव सहज नहीं आता। ओहदे, रुपए या उच्च पारिवारिक पृष्ठभूमि के पैमाने पर खुद को हीन समझने वाले अमूनन तनाव में रहते हैं और मानसिक बीमारियों की लपेट में जल्द आते हैं। मन को बीमार बनाने वाला अन्य पमुख कारण हैं, `लोग क्या कहेंगे' वाली सोच में चिंताकुल रहना। उनका समूचा ध्यान अपने स्वास्थ्य, अपनी हकीकत पर कम, बाहरी छवि पर ज्यादा रहता है, उसे सजाने, संवारने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उनके गले यह बात नहीं उतरती कि इत्र से कपड़ों को महकाना बड़ी बात नहीं, मजा तब है जब खुशबू आपके किरदार से आए। अंजाम वही होना हैöतनावग्रस्त हो जाएंगे। तनाव के अलावा डिप्रेशन, एंग्जाइटी, सीजोफ्रेनिया आदि बीमारियों में समूची दुनिया में तेजी से इजाफा हो रहा है। जानकार सूत्रों के अनुसार वर्ष 2050 तक दुनिया की तमाम बीमारियों में से आधी मानसिक होंगी, अभी तकरीबन एक-चौथाई हैं (शेष 75 प्रतिशत शारीरिक हैं)। सरकारी तौर पर मानसिक बीमारियों के समाधान में दो पमुख बाधाएं हैं। पहला मर्ज को छिपाना, इसी वजह मानसिक विकृतियों के दो-तिहाई मामले पकड़ में ही नहीं आते जबकि बहुतों का सस्ता इलाज सुलभ है। हमारे समाज में दिमागी बीमारियों को कलंक समझा जाता रहा है। दूसरा है डाक्टरों की भारी कमी। एक अनुमान के अनुसार इस विशाल देश में मनोचिकित्सकों की संख्या मात्र पांच हजार और मनोवैज्ञानिक कौंसलरों की संख्या दो हजार है। हमारी मान्यता है कि ज्यादातर मानसिक विकारों और व्याधियों का उपचार सोच में उचित बदलाव और योग, ध्यान जैसी देसी पद्धतियों से संभव है। अपने सरोकार शेयर न करना भी मन को बीमार बनाता है। पिछले दिनों मिला एक मैसेज है। अस्पताल में हृदय के ऑपरेशन रूम के दरवाजे पर टंगी पर तख्ती में लिखा था, `यदि संगी-साथियों के सामने दिल पहले खोल दिया होता तो आज औजारों से इसे खोलने की नौबत नहीं आती।' जिस आईने से हम स्थितियों-परिस्थितियों को देखते हैं दुनिया वैसी ही नजर आने लगती है।

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