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व्यक्तिगत पसंद के नाम पर संस्कृति का पतन

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:10 Oct 2018 5:53 PM GMT
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बसंत कुमार

अभी कुछ दिन पूर्व देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अडल्टरी कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया है यानि अब कोई शादीशुदा महिला अगर किसी गैर मर्द से संबंध बनाती है तो महिला का पति उस गैर मर्द के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं करा सकता। इसके पूर्व भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में अडल्टरी कानून के तहत प्रावधान था कि यदि कोई पुरुष किसी शादीशुदा महिला से शारीरिक संबंध बनाता है तो उस व्यक्ति के खिलाफ अडल्टरी का मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। ऐसे मामले में यदि शारीरिक संबंध में महिला की सहमति न हो तो मामला सीधे बलात्कार का बनता है। लेकिन कानूनी पेच वहां है जहां महिला की सहमति हो यानि शादीशुदा महिला की सहमति से अगर कोई गैर मर्द उससे शारीरिक संबंध बनाता है तो ऐसे मामले में महिला का पति ही शिकायती हो सकता है। गौर करने वाली बात यह है कि अडल्टरी मामले में शिकायती सिर्प पति ही हो सकता है परन्तु इसमें शामिल मर्द की पत्नी शिकायती नहीं हो सकती। यद्यपि इस तरह की हरकत किए जाने पर महिला अपने पति से तलाक तो ले सकती है परन्तु इस मामले में अपराधी मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता। पहले इस मामले में यदि आरोपी दोषी पाया जाता था तो उसे पांच साल तक की सजा हो सकती थी। यह मामला जमानती था और अगर शिकायती और आरोपी के बीच समझौता हो जाए तो केस वापस लिया जा सकता था। इस फैसले के कारण अब पति-पत्नी में बेवफाई के आधार पर पति-पत्नी अदालत का दरवाजा खटखटा कर तलाक तो ले सकते हैं लेकिन यह मामला आपराधिक न रहकर दीवानी मामला बनकर रह गया है। आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक घोषित करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार की दलीलों को भी अनसुना कर दिया। केंद्र सरकार ने अपनी दलील में कहा कि इस कानून अर्थात धारा 497 के तहत जो प्रावधान हैं वह शादी जैसे संस्था को सुरक्षित रखने हेतु आवश्यक हैं। केंद्र का तर्प था कि कानून भारतीय समाज, भारतीय संस्कृति और भारतीय समाज के ताने-बाने को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इसको जेंडर न्यूट्रल बनाते हुए अगर महिलाओं पर अडल्टरी का केस चलाया जाएगा तो शादी के बंधन कमजोर होंगे। अपने तर्प के समर्थन में सरकार ने मालिभथ कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें यह कहा गया कि मुख्य उद्देश्य शादी जैसी संस्था को बचाना है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 497 को असंवैधानिक करार देते हुए इसे खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि अडल्टरी कानून महिला को पति का गुलाम और सम्पत्ति की तरह बनाता है। मौजूदा कानून महिलाओं को अपनी पसंद के अधिकार से वंचित करता है।

इसके पूर्व व्यक्तिगत पसंद के नाम पर सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों से संबंधित धारा 377 को असंवैधानिक करार कर दिया। लेस्वियन, होमोसेक्सुअल्स को अधिकार देने का मामला न्यायालय में उठा और माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लेस्वियन और होमोसेक्सुअल्स का अधिकार बहाल किया और समलैंगिक संबंधों में धारा 377 में निहित अपराध एवं उसकी सजा को समाप्त कर दिया। इस संबंध में माननीय न्यायालय ने यह कहा कि समलैंगिक संबंध व्यक्ति की पसंद का मामला है और एक प्रकार से धारा 497 में अपने फैसले से यह साबित कर दिया कि शारीरिक संबंध हमारी व्यक्तिगत पसंद का मामला है और वैवाहिक होने या न होने से स्थिति पर कोई फर्प नहीं पड़ता। इसी कारण ]िलव इन रिलेशंस में रहने वालों को शादी जैसे अधिकार दे दिए गए हैं वह दिन दूर नहीं जब समाज में दो समलैंगिकों को पति-पत्नी के रूप में शादी करने और साथ रहने की इजाजत दे दी जाएगी। आज पाश्चात्य व आधुनिकता के अंधाधुंध प्रभाव में शादी जैसे पवित्र रिश्तों में स्थायित्व नहीं रह गया है। पहले हमारे सनातन धर्म में विवाह को सात जन्मों का पवित्र बंधन माना जाता था परन्तु आधुनिक भारत के लोग एक ही जन्म में सात-सात रिश्तों की ओर बढ़ रहे हैं। आज विवाहेत्तर संबंधों में बाढ़ सी आ गई है।

यदि वैदिककालीन परंपराओं का अध्ययन करें तो निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय परंपरा एवं संस्कृति के संवादक वेदों में पत्नी को पति के तुल्य माना गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि वस्तुत `पत्नी ही घर है' (जायेदस्तम् ऋग्वेद 3.5.3.4। अर्थवेद में पत्नी को पति के घर की साम्राज्ञी माना गया है (एवा त्वं सम्रज्योधि वन्युरस्त परेत्यच), स्त्राr पति के घर में दासी नहीं है, पति की दृष्टि में ही नहीं बल्कि सास, ससुर, देवर, ननद, ज्येष्ठ सभी की दृष्टि में वह साम्राज्ञी है। वैदिक काल में पत्नी को धर्म पत्नी कहा गया है। इसी कारण समाज में कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के बिना सम्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए पत्नी को धर्म पत्नी, सहधर्मिणी या सह-धर्मचारिणी कहा गया है। इसी कारण वैदिककाल से पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी कहा जाता है। यही कारण है कि पत्नी के बिना पुरुष को अपूर्ण माना गया है। पति और पत्नी दोनों अविभक्त ईकाई के समान जीवन के समस्त भागों के लिए निर्मित है चाहे वह धार्मिक है या आध्यात्मिक। वास्तव में पति-पत्नी दोनों ही जीवन की गाड़ी के दो पहिये हैं और दोनों को बराबर रहने पर ही जीवन की गाड़ी सुचारू रूप से चल सकती है और गृहस्थ जीवन की समस्याओं को सुमीत व सहमति से सुलझा सकती है। अर्थात वैदिक परंपरा में दाम्पत्य जीवन में सुख का आधार परस्पर प्रेम, सहयोग और सम्मान की भावना है। आपसी सामंजस्य से ही पति-पत्नी अपनी और परिवार की उन्नति में सहायक हो सकते हैं। हिन्दू संस्कृति में स्त्राr व पुरुष की प्रधानता को स्वीकार किया गया है। यह माना जाता है कि स्त्राr शक्ति के महत्व के बिना ईश्वरीय शक्ति सम्पूर्ण नहीं रह सकती और इसी कारण भारतीय समाज में स्त्राr-पुरुष देवत्व को मान्यता दी गई है। जैसे राधा-कृष्ण, उमा महेश, सीता-राम और लक्ष्मी-नारायण। वेदों में चार स्त्रियों की विद्वता का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में घोष, लोपमुद्रा, मैत्रेयी और गार्गी की विद्वता को विस्तृत रूप में वर्णित किया गया है। ऐसे पवित्र बंधन के बीच पति-पत्नी को व्यक्तिगत पसंद और जेंडर इfिक्वलिटी का मामला बनाकर विवाहेत्तर शारीरिक संबंधों को व्यभिचार अनैतिक, अपराध की श्रेणी से निकाल कर मात्र तलाक का आधार बना देता। यह हमारी संस्कृति व सभ्यता के लिए घातक है। आधुनिकता के नाम पर दो आत्माओं के पवित्र बंधन जिसको हम शादी कहते हैं अब संविदा बनाकर रख दिया गया है और व्यक्तिगत पसंद के नाम पर संस्कृति का और कितना पतन होगा कोई नहीं जानता।

शारीरिक संबंध दो लोगों के बीच व्यक्तिगत पसंद का मामला है आधुनिकता के नाम पर यह कहने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है। लेकिन क्या कोई हिन्दुस्तानी मां-बाप यह सुनने को तैयार होंगे कि उनकी बेटी या बेटे ने शादी से पहले शारीरिक संबंध बनाए हैं। उसी प्रकार कोई भी पत्नी-पति यह मानने को तैयार होगा कि उसके जीवनसाथी ने शादी के पश्चात किसी अन्य स्त्राr या पुरुष से शारीरिक संबंध बनाया हो, ऐसे में जब हमारा समाज, हमारा मन मस्तिष्क यह मानने को तैयार नहीं हैं तो न्यायालय व सरकार दोनों को ऐसे संवदेनशील मामलों में फैसला देने से बचना चाहिए अन्यथा शादी जैसा पवित्र बंधन व परिवार सभी बर्बाद हो जाएंगे। शादी आस्था प्रेम और एक-दूसरे पर अटूट विश्वास के स्थान पर दो लोगों के बीच ऐसा समझौता न बन जाएगी जिसे जब चाहे तोड़ दिया जाए।

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