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समरस समाज : महर्षि वाल्मीकि की संकल्पना

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:23 Oct 2018 4:03 PM GMT
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सुरेश हिन्दुस्थानी

भारत जब विश्व गुरु के सिंहासन पर आरुढ़ था, उस समय भारतीय चिंतन की अवधारणा पूरे विश्व में कल्याण की भावना को प्रवाहित कर रही थी। समस्त विश्व के लिए वंदनीय और त्याग तपस्या की भूमि भारत में यह भावना कैसे विकसित हुई, इसका अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इसमें भारत के श्रेष्ठ संत मनीषियों ने विश्व को एक बड़ा परिवार मानकर अपनी श्रेष्ठ उदात्त भावना युक्त चिंतन करते हुए वसुधैव कुटुम्बकम को पूर्ण रूप से अंगीकार किया। भारत की महान संत परंपरा में अग्रणी कतार में शामिल होने वाले पूजनीय संत महर्षि वाल्मीकि के जीवन का अध्ययन किया जाए तो उन्होंने समस्त विश्व को अद्भुत चिंतन के द्वारा सामाजिक समरसता का संदेश दिया। उनके द्वारा रचित की गई अत्यंत श्रेष्ठ कालजयी रचनाओं ने सम्पूर्ण समाज के उत्थान का दिशादर्शन किया है। महर्षि वाल्मीकि की रचना रामायण में भी सामाजिक समरसता का ही बीजारोपण किया है। उनकी यह रचना सम्पूर्ण विश्व के मानवों के लिए आज भी पथ प्रशस्त कर रही है। वर्तमान में हमारे देश में कुछ तथाकथित समाज में भेद पैदा करने वाले व्यक्तियों द्वारा समाज में महर्षि वाल्मीकि के चिंतन के विपरीत कार्य किया जा रहा है। ऐसे लोग निश्चित रूप से समाज में भेदभाव पैदा करने वाली बातों का भ्रम फैलाकर समाज की समरसता को छिन्न-भिन्न करने का कार्य भी कर रहे हैं।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसे भ्रम उत्पन्न करने वाली संस्थाओं के तार कथित रूप से विदेश से भी जुड़े हुए पाए जाते हैं, जो सीधे तौर पर भारत की समरसता वाली भावना को तोड़ने का कार्य कर रहे हैं। हम जानते हैं कि अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर यह भ्रम फैलाने का कार्य किया गया, जिसमें कहा गया था कि भारत सरकार सरकार ने आरक्षण को समाप्त कर दिया है। जिससे आरक्षण की सुविधा प्राप्त करने वाला समाज उद्वेलित हुआ और षड्यंत्रकारियों के मंसूबों को सफल होने दिया।

महर्षि वाल्मीकि की संहिताओं का पालन करने वाला समाज पहले भी समाज का अभिन्न हिस्सा रहा। उन्होंने हिन्दू समाज को प्रधानता भी दी थी, आज भी सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत कर रही है। मुगलों के शासन के समय में जब वाल्मीकि समाज के लोगों को मतांतरित करने का प्रयास किया गया, तब वाल्मीकि समाज ने स्पष्ट तौर पर मुगलों को चेतावनी देते कहा कि हम कोई भी कष्ट सह लेंगे, लेकिन हिन्दू धर्म को नहीं छोड़ेंगे। आज देश में जितने मुसलमान दिखाई देते हैं, उनके पूर्वज हिन्दू रहे हैं। ऐसा आज मुसलमान भी स्वीकार करने लगे हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो ये लोग धर्म परिवर्तन करके ही मुसलमान बने, लेकिन देश के वाल्मीकि समाज ने मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके। इनका यह साहसिक कार्य ही इनको वंदनीय भूमिका में स्थापित करता है। अपनी आन दे दी, लेकिन शान नहीं दी। महर्षि वाल्मीकि की सामाजिक समरसता वाली नीतियों का अनुसरण करने वाले भारतीय समाज में आज भी वही हिन्दू भाव जीवित है, लेकिन एक षड्यंत्र के अंतर्गत उन्हें हिन्दू समाज से अलग करने का राजनीतिक प्रयास किया जा रहा है। इसमें कथित रूप से विदेशी शक्तियां भी शामिल हैं, क्योंकि वह अच्छी प्रकार से जानती हैं कि भारतीय समाज में फूट डाले बिना वे सफल नहीं हो सकते। ये शक्तियां समाज में भेद पैदा करने के लिए भारतीय संस्थाओं को पूरा सहयोग करती हैं। हमें इनकी भूमिकाओं का सजगता से चिंतन करने की आवश्यकता है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के माध्यम से समस्त समाज को भगवान श्रीराम की मर्यादाओं से परिचय कराकर ब्रह्म के समान हो गए। उन्होंने भगवान श्रीराम को सामाजिक समरसता का ही पर्याय माना है। उनकी रचित रामायण में कहा गया है कि रामायण के नायक श्री राम का स्वभाव ही समरसता के भाव से भरा है, उनका हृदय वनवासी, गिरिवासी, भील, मल्लाह समाज में सभी के प्रति प्रेम भाव से भरा है। इसी प्रकार महर्षि वाल्मीकि भारत की ऋषि परंपरा में सामाजिक समरसता के सेतु हैं। कथित रूप से जिन वर्गों को अस्पृश्य, वंचित या त्याज्य माना जाता रहा वहां से उठ कर कोई अपने ज्ञान, साधना और तप से शीर्ष पर पहुंच कर यदि ऋषियों की पांत में वंदनीय हो जाये, तो जाति-भेद, ऊंच-नीच का कुत्सित भाव अर्थहीन हो जाता है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना करके सम्पूर्ण समाज का हित किया है। उनकी कालजयी रचनों समस्त समाज के लिए उद्धारक का काम कर रही हैं। इसलिए महर्षि वाल्मीकि को सामाजिक समरसता का संदेश देने वाला संत कहा जाए तो ठीक ही होगा।

भारत की सांस्कृतिक चेतना के ऐसे ही शिखर पुरुष वाल्मीकि ने ही सर्वप्रथम विश्व को भगवान राम के आदर्श जीवन से कथा रूप में परिचित कराया। उन्होंने महर्षि नारद से श्रीराम का आख्यान सुनकर उनके निर्देश पर ही श्रीराम के श्रेष्ठ मानवीय गुणों को जन-जन तक पहुंचाने का संकल्प पूरा किया। वाल्मीकि रचित रामायण को संस्कृत का पहला महाकाव्य माना जाता है, जिसमें पहली बार उन्होंने संस्कृत काव्य में श्लोक की भी रचना की। उल्लेख है कि तमसा नदी के तट पर नारद जी से श्रीराम का गुणगान सुन कर जनकल्याण के लिए उसे कथा रूप में प्रस्तुत करने का संकल्प लियाöवृंत कथय धीरस्य यथा ते नारदात् श्रुतम। उन्हें लगा कि श्रीराम से बड़ा मानवीय जीवन का नायक दूसरा कोई नहीं हो सकता। राम को वाल्मीकि ने रामो विग्रहवान धर्मः कहा है यानि मनुष्य रूप में श्रीराम धर्म का प्रतिरूप हैं, राम साक्षात धर्म हैं।

मनुष्य जीवन के जो आदर्श राम ने प्रस्तुत किए, मानवीय संबंधों की जो परिभाषा दी, एक राजा के रूप में जो प्रजावत्सलता, धर्मप्रधानता और कर्तव्यनिष्ठा उनकी शासन व्यवस्था का अंग बनी और आसुरी शक्तियों का संहार कर धर्म, न्याय व सत्य की स्थापना के लिए उन्होंने राजसी सुख-वैभव को त्याग कर सहर्ष वनगमन स्वीकार किया, इसी से वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए।

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