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राम मंदिर पर भागवत वचन के निहितार्थ

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:27 Oct 2018 5:18 PM GMT
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डॉ. आशीष वशिष्ठ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्थापना दिवस विजयदशमी को होता है। प्रति वर्ष इस अवसर पर नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में एक भव्य कार्पाम आयोजित होता है। जिसे संघ प्रमुख संबोधित करते हैं। इस अवसर पर किसी बाहरी हस्ती को बतौर अतिथि बुलाया जाता है। इस वर्ष नोबेल पुरस्कार से अलंकृत कैलाश सत्यार्थी आमंत्रित थे। इसी परंपरा का निभाते हुए आएसएस प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने अपने उद्बोधन में सुरक्षा संबंधी आत्मनिर्भरता और केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश जैसे चर्चित विषयों पर विचार तो रखे ही लेकिन उनके भाषण में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण हेतु कानून बनाने की बात कहे जाने से पूरा ध्यान उसी पर केंद्रित हो गया। वैसे अब तक संघ और डॉ. भागवत दोनों ये कहते आए थे कि इस विवाद का हल अदालत के निर्णय से होना चाहिए। लेकिन इस वर्ष के विजयादशमी समारोह में संघ प्रमुख ने पूरी तरह आक्रामक होते हुए कह दिया कि अयोध्या में राम मंदिर होने के पूरे प्रमाण हैं।

भागवत के बयान के बाद तमाम सवाल उठ रहे हैं। तमाम सवालों में बड़ा सवाल यह है कि आखिर भागवत इस साल इतने अधीर और बेचैन क्यों महसूस हो रहे हैं? वह ऐसा संकेत भी दे रहे हैं कि राम मंदिर ही 2019 के आम चुनाव का बुनियादी आधार तय हो सकता है। संघ-प्रमुख के इस निर्देश में 'साम, दाम, दंड, भेद' का एहसास भी है। पिछली बार उनका दावा था कि कोई भी राजनीतिक दल प्रत्यक्ष तौर पर राम मंदिर निर्माण का विरोध नहीं करेगा। कांग्रेस प्रमुख विपक्षी पार्टी है। उसके अध्यक्ष राहुल गांधी तो इतने शिवमय, राममय, हिंदूमय होते जा रहे हैं कि कांग्रेस विरोध कर ही नहीं सकती! बेशक शशि थरूर जैसे कांग्रेसी सांसद बयान देते रहे हैं कि कोई भी हिंदूवादी नहीं चाहेगा कि एक विवादित धर्मस्थल को ढहाकर राम मंदिर बनाया जाए! यह नक्कारखाने में तूती की आवाज है।

यह भी सच्चाई है कि कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम चेहरों को छोड़ दें, तो ज्यादातर मुसलमान भी राम मंदिर को बनाने के पक्षधर हैं, लेकिन राम तो इस देश के 'लोकनायक' माने जाते हैं। समाज और देश में विभाजन की स्थिति पैदा कर उन्हें एक और मंदिर में 'प्रतिष्ठापित' कैसे किया जा सकता है? महाकवि, आदिकवि वाल्मीकि का महाकाव्य 'रामायण' भी दरअसल राम के लोकनायकत्व स्वरूप की तलाश का सृजनात्मक प्रयास था। वह स्वरूप गायब है, लिहाजा कांग्रेस के बड़े नेता गुलाम नबी आजाद को कहना पड़ा है कि पहले 95 फीसदी हिंदू उन्हें प्रचार के लिए बुलाते थे, लेकिन बीते चार सालों के दौरान यह औसत घटकर 20 फीसदी रह गई है। हिंदुत्व पर यह गुलाम नबी की गंभीर पीड़ा और लाचारी की ही अभिव्यक्ति है।

संघ प्रमुख ने अदालती प्रक्रिया में हो रही देरी पर कहा कि कुछ शक्तियां कट्टरपंथी और सांप्रदायिक राजनीति को उभारकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रही हैं। ऐसा कहते समय उनका इशारा कांग्रेस द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में अयोध्या विवाद पर सुनवाई को टलवाने के लिए अपने वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल को खड़ा करने पर था। उल्लेखनीय है श्री सिब्बल ने मामले की सुनवाई कर रही पीठ से अनुरोध किया था कि अयोध्या विवाद चूंकि राजनीतिक रंग में रंगा होने से चुनाव को प्रभावित करता है इसलिए इस पर सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हो। यद्यपि अदालत ने उनकी बात को नहीं माना किन्तु ये भी सही है कि अदालती अड़ंगेबाजी की वजह से मंदिर विवाद संबंधी फैसला हाल ही में सेवानिवृत्त हुए प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल में नहीं हो सका।

ऐसा लगता है संघ प्रमुख द्वारा राम मंदिर पर अदालती फैसले को स्वीकार करने के पूर्व आश्वासन से हटकर केंद्र सरकार पर कानून बनाकर मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ करने का जो दबाव विजयादशमी उत्सव के जरिये बनाया गया उसका मुख्य कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस विवाद की सुनवाई में हो रहा विलंब ही है। इसका एक और कारण साधु-संतों द्वारा मंदिर निर्माण में हो रहे विलंब पर नाराजगी व्यक्त करते हुए अयोध्या में आंदोलन शुरू करने की धमकी भी है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से संघ ने साधु-संतों को मंदिर मुद्दे पर एकत्र कर अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था किंतु अब वही संत समाज खुलकर कहने लगा है कि जब अदालती फैसले से ही अयोध्या विवाद सुलझाना है तब भाजपा और नरेंद्र मोदी के समर्थन से क्या लाभ? हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा सौम्य हिंदुत्व की लाइन पकड़कर मंदिरों और मठों में जाकर मत्था टेकने के कारण भी संघ चैकन्ना हो गया। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे द्वारा 25 नवंबर को अयोध्या जाने के ऐलान ने भी संघ को इस संवेदनशील विषय पर आगे बढ़कर नेतृत्व अपने हाथ में लेने के लिए उद्वेलित किया। हाल ही में एससी-एसटी एक्ट कानून में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये गए बदलाव को बेअसर करते हुए केंद्र सरकर ने जिस तेजी से नया कानून बनाने की पहल की और तीन तलाक पर रोक लगाने संबंधी कानून के राज्यसभा में अटक जाने पर अध्यादेश का सहारा लिया उससे भाजपा के परंपरागत समर्थक सवर्ण मतदाताओं में जो देशव्यापी नाराजगी फैल गई उसने भी संघ को चिंता में डाल दिया जो डॉ. आंबेडकर को महिमामंडित करते हुए बीते काफी समय से सामाजिक समरसता का अभियान चला रहा है।

दरअसल हिन्दू समाज में ये भावना तेजी से फैलने लगी कि जब अन्य विषयों पर हिंदूवादी मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उलट-पलट करने में संकोच नहीं करती तथा संसद की स्वीकृति में विलंब होने पर अध्यादेश लाने में आगे-आगे होती है तब अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए सर्वोच्च न्यायालय का बहाना क्यों बनाती है? अयोध्या आंदोलन का नेतृत्व कर रहे विश्व हिन्दू परिषद नामक संघ के अनुषांगिक संगठन ने ही हाल ही में मोदी सरकार को उसकी उदासीनता के लिए लताड़ा था। इन्हीं सबका परिणाम संघ प्रमुख के ताजा वक्तव्य में झलका जिसमें उन्होंने मंदिर समर्थक सभी पक्षों की नाराजगी और अपेक्षाओं को शब्द देते हुए केंद्र सरकार से साफ कह दिया कि धैर्य की सीमा भी टूटने को आ गई है इसलिए अब वह कानून बनाकर अयोध्या में राम मंदिर बनाने के मार्ग में उत्पन्न अवरोध दूर कर दे। उन्होंने साफतौर पर मोदी सरकार को निर्देश दिया है कि बेशक कानून (अध्यादेश) बनाया जाए, लेकिन अब अयोध्या में राम मंदिर बनाने में विलंब नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा मौका दोबारा नहीं मिलेगा। बीते एक माह के दौरान संघ-प्रमुख तीन बार राम मंदिर बनाने का मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठा चुके हैं।

अब सवाल ये है कि मोदी सरकार और भाजपा अपने पितृ संगठन की बात को महज सन्देश के तौर पर एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देगी या फिर उसे आदेश मानकर हिन्दू मतदाताओं को आगामी चुनावी मुकाबलों के लिए गोलबंद करने के लिए साहसिक कदम उठाएगी? ये प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो गया है क्योंकि तीनों परंपरागत महत्वपूर्ण मुद्दों पर वह अपने प्रतिबद्ध समर्थक वर्ग की अपेक्षाओं पर पूरी तरह तो दूर आंशिक तौर पर भी खरी नहीं उतर सकी।

राम मंदिर को पूरी भारतीयता व्यापक मानसिकता के साथ स्वीकारे। राम के साथ भाजपा-संघ की ही आस्था न जुड़ी हो, बल्कि सभी भारतीय श्रद्धा से स्वीकारें कि अयोध्या में मंदिर बनना ही चाहिए। बेहतर होगा कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भी देख-सुन लिया जाए, क्योंकि सरसंघचालक पहले से ही ऐसा मानते आए हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय अपने निर्णय में दूध का दूध, पानी का पानी कर चुका है। अब 2019 के चुनाव के मद्देनजर संघ प्रमुख को अपनी सोच नहीं बदलनी चाहिए। इसी में राष्ट्र व राष्ट्रवासियों का कल्याण निहित है।

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