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न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:3 Nov 2018 4:05 PM GMT
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इन्दर सिंह नामधारा

स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त ने जब `जयद्रथ वध' नामक अपनी पुस्तक में उपरोक्त शीर्षक वाली पंक्ति लिखी होगी तो उनके मस्तिष्क में न्याय के महत्व का भाव जरूर कुलाचे मार रहा होगा। अमेरिका के सुपीम कोर्ट के सिंह द्वार पर स्पष्ट शब्दों में लिखा हुआ है कि `फियेट जस्टीसिया रूवेट कॉलम' जिसका हिन्दी अनुवाद होगा `न्याय किसी भी सूरत में होना चाहिए चाहे आसमान ही क्यों न गिर पड़े?' यही कारण है कि लोकसभा एवं न्यायालयों में एक तस्वीर लगी रहती है जिस तस्वीर में एक महिला के हाथ में तराजू एवं आंखों में पट्टी बंधी रहती है। इस तस्वीर के पीछे संदेश यही छिपा है कि किसी न्यायाधीश को न्याय करते समय अपनी आंखें बंद रखनी चाहिए ताकि न्याय की तुला सबके लिए एक जैसी रहे। यही कारण है कि उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालयों में गंभीर एवं संवैधानिक मसलों पर फैसला करते समय तीन या पांच जजों की एक पी" बै"ाई जाती है ताकि न्याय करने में कोई त्रुटि न रह जाए। संवैधानिक मामलों पर न्यायादेश देते समय कम से कम पांच जजों की एक पी" का ग"न किया जाता है तथा जजों में मतभिन्नता होने पर फैसला बहुमत के आधार पर होता है। गत तीन-चार महीनों में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दो महत्वपूर्ण मसलों पर फैसले किए हैं जिनको लेकर देश का राजनीतिक पारा चढ़ा हुआ है। पहला मामला था केरल राज्यान्तर्गत सबरीमाला मंदिर का जिसमें संवैधानिक न्यायपी" का एकमत फैसला था `सदियों से दस वर्ष एवं पच्चास वर्ष के बीच की आयु की महिलाओं के प्रवेश पर चली आ रही पाबंदी को समाप्त करना' तथा दूसरा फैसला कुछ माह पूर्व हुआ था जिसमें मुस्लिम मर्दों द्वारा मुंहजबानी तीन तलाक कहकर अपनी पत्नियों को तलाक दे दिया जाता था। यह ज्ञातव्य है कि तीन तलाक की पथा मुस्लिम संप्रदाय में सदियों से चली आ रही थी जिसके चलते मुस्लिम महिलाओं को भयंकर परेशानियों से गुजरना पड़ता था। उपरोक्त दोनों ही मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने औरतों के अधिकारों एवं समानता की रक्षा के लिए फैसले दिए थे।

इसे विडंबना ही कहेंगे कि सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पी" द्वारा सबरीमाला मंदिर में एक विशेष आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी को समाप्त करने के निर्णय पर भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने सर्वोच्च न्यायालय तक को आगाह कर दिया है कि वह वैसे मामलों में हस्तक्षेप न किया करें जिसमें जनता की आस्था का मामला निहित हो। इतना ही नहीं भाजपाध्यक्ष ने महिलाओं के मंदिर में प्रवेश करने के विरोधियों को भरोसा दिलाया कि वे अपने आंदोलन पर डटें रहें तथा भाजपा उनका पूर्ण समर्थन करेगी। वास्तव में अमित शाह जी का उपरोक्त बयान सर्वोच्च न्यायालय की सीधी अवमानना है लेकिन `समरथ को नहीं दोष गोसाईं' की पुरानी कहावत के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय उनकी बातों पर मौन धारण किए हुए है। यही बातें अगर किसी दूसरे व्यक्ति ने की होती तो अभी तक उस पर न्यायालय की अवमानना का मामला दर्ज कर दिया गया होता। हकीकत यह है कि केरल में भाजपा ने पिछले सात दशकों में एक भी लोकसभा की सीट नहीं जीती थी तथा पहली बार बड़ी मुश्किल से केरल में भाजपा का एक विधायक जीत पाया था। अपने दल के साथ-साथ श्री शाह को यह भी याद रखना चाहिए कि वे उसी सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना कर रहे हैं जिसकी गरिमा को बचाना सत्ताधारी पार्टी का मौलिक कर्तव्य बनता है।

इसके "ाrक विपरीत जब सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम समाज में चल रही तीन तलाक की पुरानी पथा को असंवैधानिक बताते हुए समाप्त किया और सरकार को निर्देश दिया कि वह तीन तलाक की पथा को समाप्त करने के लिए संसद में एक कानून पास करे। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को सरकार ने स्वीकार करते हुए लोकसभा में तो इस बिल को पारित भी करवा दिया है यद्यपि बहुमत न होने के कारण तीन तलाक का मामला राज्यसभा में जाकर अधर में लटक गया है। सरकारी सूत्रों के अनुसार तीन तलाक के लिए केंद्रीय सरकार एक अध्यादेश लाने पर विचार कर रही है जिस पर बाद में जाकर संसद की स्वीकृति पाप्त कर ली जाएगी। यक्ष प्रश्न यह उ"ता है कि जब भाजपा एवं उसके अध्यक्ष मुस्लिम समाज की तीन तलाक वाली तथाकथित आस्था को समाप्त करने के लिए कानून बनाने में उत्साह दिखाते हैं लेकिन हिन्दू समाज की महिलाओं को नीचा दिखाने वाली सबरीमाला मंदिर में चल रही सदियों पुरानी पथा को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समाप्त किए जाने पर न्यायालय की कटु आलोचना क्यों कर रहे हैं? इस दोहरे मापदंड को अपनाकर केंद्र में बै"ाr आज की मोदी सरकार जनता को आखिर कौन-सा संदेश देना चाहती है।

भारत की जनता भूली नहीं होगी जब इसी वर्ष के जनवरी माह में सर्वोच्च न्यायालय के चार वरीय जजों ने एक खुली पेस कांफ्रेंस करके जनता को आगाह किया था कि वह भारत के लोकतंत्र को बचाने के लिए सजग रहें। पेस कांफ्रेंस के समय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा थे जो अब अवकाश पाप्त कर चुके हैं तथा उनके स्थान पर जस्टिस रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश बने हैं। सर्वविदित है कि श्री गोगोई भी उन चार जजों में शामिल थे जिन्होंने एक खुली पेस कांफ्रेंस करके जनता को देश की गिरती लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाने का आग्रह किया था। इसे महज संयोग ही कहेंगे कि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली एक संवैधानिक खंडपी" ने पिछले दिनों अयोध्या में चल रहे राम मंदिर के निर्माण की सुनवाई को वर्ष 2019 के जनवरी माह तक टाल दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से भी भाजपा एवं आरएसएस के नेता लाल-पीले हो रहे हैं तथा केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई सदस्यों ने भी अपने आक्रोश को नहीं छिपाया है। केंद्रीय कैबिनेट में राज्यमंत्री श्री गिरिराज सिंह ने तो सर्वोच्च न्यायालय की ओर इशारा करते हुए यहां तक कह दिया है कि वह हिन्दुओं की भावनाओं के साथ खिलवाड़ न करे। यदि बारीकी से देखा जाए तो मंत्रियों के बयानों का सीधा निशाना सर्वोच्च न्यायालय की ओर ही जाता है। भारतीय संविधान तीन स्तंभों पर खड़ा है तथा तीनों स्तम्भ अपने-अपने दायरे में काम करते हैं। संसद जहां कानून बनाती है वहीं कार्यपालिका उन कानूनों को कार्यान्वित करती है तथा न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या करती है। यही कारण है कि कभी-कभी संसद द्वारा पारित किए गए कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय असंवैधानिक कहकर खारिज कर देता है तो वहीं संसद भी कभी-कभी सर्वोच्च न्यायालय से पारित कई आदेशों को निष्पभावी करने के लिए संसद में नये कानून बना देती है। स्वर्गीय राजीव गांधी के पधानमंत्रित्व काल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जब शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया गया था तो संसद ने कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को निष्पभावी कर दिया था। इस आलोक में सत्ताधारी दल को चाहिए कि वह सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना एवं अवमानना करने के बजाय संसद में नया कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निष्पभावी कर दे। इस पृष्ठभूमि में तीनों संवैधानिक इदारों को एक दूसरे की आलोचना न कर देश के संविधान की मर्यादा को कायम रखना चाहिए।

(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)

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