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सरदार पटेल किसके : कांग्रेस, भाजपा या भारत के

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:4 Nov 2018 3:12 PM GMT

सरदार पटेल किसके : कांग्रेस, भाजपा या भारत के

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आदित्य नरेंदर

यह किसी भी देश के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो सकती है कि देश की आजादी के लिए एक ही प्लेटफार्म पर संघर्ष करने वाले नेताओं को आजादी के बाद अलग-अलग खांचों में बांटकर राजनीति का मोहरा बनाया जाए। लेकिन इसके साथ यह भी जरूरी है कि उनके योगदान को बिना किसी दूसरे नेता के योगदान को कमतर किए देश की भावी पीढ़ियों के सामने लाया जाए। कांग्रेस विरोधियों को आजादी के बाद से यह एक प्रमुख शिकायत रही है कि वामपंथी इतिहासकारों के प्रभाव के चलते बल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस और डॉ. भीमराव अम्बेडकर को देश के इतिहास में वह स्थान नहीं मिला जिसके वह वास्तव में हकदार थे। उनका यह भी कहना है कि आजादी से पहले और बाद के तीन-तीन दशकों के इतिहास को सिर्फ गांधी-नेहरू से जोड़कर इस तरह बताया गया कि उसमें किसी और के लिए कोई खास स्थान नहीं बचा। जब तक कांग्रेस या कांग्रेसनीत सरकारें केंद्र में मौजूद थीं तब तक यही प्रथा बेरोकटोक लगातार चलती रही। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसमें व्यापक बदलाव आया है। खासतौर पर पिछले चार साल के दौरान जब मोदी सरकार ने कांग्रेस की विरासत माने जाने वाले गांधी-नेहरू जैसे प्रतीकों के मुकाबले पटेल, बोस और अम्बेडकर को भी समान महत्व देने का प्रयास शुरू कर दिया तो कांग्रेस नेताओं ने सरकार पर उनकी विरासत हथियाने का आरोप लगाते हुए भाजपा पर तंज कसा कि उनके नेताओं का आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं रहा है। इसके जवाब में भाजपा का कहना है कि आजादी की लड़ाई के दूसरे बड़े नेताओं को भी भुलाना ठीक नहीं है। उन्हें उनके योगदान के हिसाब से उचित महत्व मिलना चाहिए। अम्बेडकर की याद में बनाए जाने वाले पंचतीर्थ, 1943 में आजाद हिन्द सरकार के गठन की घोषणा के 75 साल पूरे होने पर लाल किला परिसर में आयोजित विशेष कार्यक्रम और पटेल की याद में रन फॉर यूनिटी जैसे कार्यक्रमों को इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम पटेल की याद में गुजरात में विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी' की स्थापना का रहा जिसने कांग्रेस को अंदर से बेहद परेशान किया। चूंकि सरदार पटेल निर्विवाद रूप से कांग्रेसी नेता थे तो कांग्रेस नेता इसका खुलकर विरोध करते भी तो कैसे। उनकी परेशानी दूसरी थी। गांधी-नेहरू की राजनीतिक पूंजी पर सत्ता में आने का सपना देखने वाली कांग्रेस के सामने पटेल की विशालकाय मूर्ति भविष्य में उन पर भारी पड़ सकती है। क्योंकि गांधी-नेहरू और उनके परिवार के नाम पर देश में सैकड़ों इमारतें, संस्थान, सड़कें या कॉलोनियां हो सकती हैं लेकिन वह सब मिलकर भी क्या सरदार पटेल की इस भव्य मूर्ति से मुकाबला कर पाएंगे। देश-विदेश के लोग जितना बोस, अम्बेडकर और सरदार पटेल के बारे में जानेंगे उतना ही कांग्रेस के लिए गांधी-नेहरू का नाम लेकर चुनावों में अपनी बढ़त बनाने की क्षमता सीमित हो जाएगी। 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी' के निर्माण का मोदी को एक लाभ और हुआ है। वह यह है कि बड़े निर्णय करके उसे पूरा करने की उनकी क्षमता एक बार फिर लोगों के सामने पुख्ता हुई है। यहां सरदार पटेल को लेकर कुछ तथ्यों पर गौर किया जाना चाहिए। मूल रूप से कांग्रेसी विचारधारा में यकीन रखने वाले सरदार पटेल आजाद भारत के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे। बताया जाता है कि वह कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं के लिए प्रधानमंत्री पद की पहली पसंद थे लेकिन जब महात्मा गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम आगे बढ़ाया तो वह स्वयं ही पीछे हट गए। उनके विराट व्यक्तित्व का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस के एक बड़े नेता आचार्य कृपलानी का कहना था कि जब वह किसी दुविधा में होते थे और बापू का मार्गदर्शन नहीं मिल पाता था तो वह सरदार पटेल का रुख करते थे। यह तथ्य कांग्रेस में उनकी हैसियत का खुलासा करता है जिसे बाद में शायद नजरंदाज करने का प्रयास किया गया। देश की साढ़े पांच सौ से ज्यादा रियासतों का एकीकरण, कश्मीर और चीन को लेकर उनकी दूरदृष्टि उनकी प्रशासनिक और राजनीतिक काबिलियत को बयान करते हैं। महात्मा गांधी की हत्या के बाद गृहमंत्री के रूप में उन्होंने कार्रवाई करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबंध लगा दिया था। अब संयोग देखिए, आरएसएस की विचारधारा से ही प्रेरित राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की केंद्र सरकार ने स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के निर्माण की परिकल्पना की और चार वर्षों में उसे साकार भी कर दिखाया। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि बोस, अम्बेडकर और पटेल जैसे राष्ट्र नायकों का राजनीतिकरण करने की बजाय भावी पीढ़ियों को उनके बारे में सही और तथ्यपरक जानकारी दी जाए ताकि हम इतिहास को उसी रूप में वैसा ही समझ सकें जैसा वह उस समय था। क्योंकि ऐसे राष्ट्र नायक किसी एक राजनीतिक दल के नहीं अपितु पूरे देश की धरोहर होते हैं।

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