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एक बार फिर राजनीति की बिसात पर है राम मंदिर मुद्दा

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:25 Nov 2018 3:43 PM GMT

एक बार फिर राजनीति की बिसात पर है राम मंदिर मुद्दा

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आदित्य नरेन्द्र

पिछले लगभग तीन दशकों से भी ज्यादा समय से राम मंदिर का मुद्दा किसी न किसी रूप में भारतीय राजनीति के केंद्र में रहा है। इसी मुद्दे के सहारे भारतीय जनता पार्टी लोकसभा की दो से 84 सीटों पर पहुंची और फिर कुछ साल बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में उसने मिलीजुली सरकार बनाई। इसकी परिणति उस समय हुई जब 2014 में उस समय के भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला और फिर मोदी प्रधानमंत्री बने। इसी के साथ राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा का समर्थन करने वालों को उम्मीद जगी कि अब जहां श्रीराम लला टेंट में रह रहे हैं वहां जल्द ही एक भव्य मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजनीति के केंद्र से यह मुद्दा लगभग साढ़े चार साल तक गायब रहने के बाद एक बार फिर सुर्खियों में है। अभी तक इस मुद्दे पर अपना एकाधिकार जताने वाली भाजपा को एक ओर जहां शिवसेना चुनौती देने के मूड में दिखाई देती है वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व का कार्ड खेलकर भाजपा की मुश्किलों में इजाफा कर दिया है।

दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केंद्र में शासन के शुरू के तीन सालों में यह मुद्दा कहीं नेपथ्य में चला-सा गया लगता था। इसी बीच मोदी के लगातार बढ़ते कद से परेशान विपक्षी पार्टियों ने महागठबंधन का एक ऐसा फार्मूला निकाला जिसके सहारे उन्हें उम्मीद थी कि वो मोदी को पराजित कर सकेंगे। उन्होंने बिहार और उत्तर प्रदेश में इसकी सफलता को आजमा कर भी देख लिया। इसके बाद देशभर में टुकड़ों में बंटी विपक्षी की राजनीति अपना अस्तित्व बचाने के लिए सहयोग की राजनीति में बदलने लगी। इस राजनीति को कांग्रेस का समर्थन भाजपा और उसके सहयोगी दलों के लिए खतरे की घंटी की तरह था। यह एक हकीकत है कि आज की तारीख में देश में दो ही राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस ऐसे हैं जिनका देश के अधिकांश हिस्से पर थोड़ा या बहुत प्रभाव है। आधे से ज्यादा राज्यों में ऐसे मजबूत क्षेत्रीय दल हैं जो क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह क्षेत्रीय दल या तो क्षेत्र पर आधारित मुद्दों को लेकर राजनीति करते हैं या अगड़े-पिछड़े की। ऐसे में आने वाले समय में देश की राजनीति में व्यापक बदलाव की संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा तथा आंध्र प्रदेश में टीडीपी और कांग्रेस के बीच बढ़ता हुआ सहयोग इसकी मिसाल है। इन दलों की जातिवादी और क्षेत्रीय राजनीति की काट के लिए भाजपा के पास भी हिन्दुत्व के नाम का एक ब्रह्मस्त्र है। लेकिन यह ब्रह्मस्त्र कितना कारगर होगा यह एक अलग सवाल है। क्योंकि अब परिस्थितियों में काफी बदलाव आ चुका है। पिछले साढ़े चार साल से भाजपा सत्ता में है। आज कांग्रेस सहित दूसरे दल सवाल कर रहे हैं कि भाजपा ने इस दौरान इसे लेकर कोई सार्थक पहल क्यों नहीं की। भाजपा के रणनीतिकार भी वक्त की नजाकत पहचान रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार मिलीजुली सरकार थी। उस समय सरकार गिरने का खतरा दिखाकर समर्थकों को समझा दिया गया था लेकिन अब भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में है। इसलिए जवाबदेही से बचना आसान नहीं होगा। मौका देखकर शिवसेना ने भी ताल ठोंक दी है। उद्धव ठाकरे दल-बल सहित अयोध्या पहुंच गए हैं। पिछले महीने यदि सुप्रीम कोर्ट नियमित सुनवाई शुरू कर देता तो हालात अलग होते। लगता है कि भाजपा को इस संकट से निकालने का बीड़ा संघ और वीएचपी ने उठा लिया है। संघ प्रमुख द्वारा जल्द मंदिर निर्माण की बात कहे जाने और वीएचपी द्वारा अयोध्या में किए जाने वाले संत सम्मेलन से इसकी पुष्टि होती है। उधर राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा द्वारा राम मंदिर पर प्राइवेट मेम्बर बिल लाने की घोषणा से भी भाजपा को मदद मिलने की उम्मीद है। हालांकि केंद्र और राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करने की बात कही जा रही है। जनता राजनीति की बारीकियों को नहीं समझती। वो सिर्प इतना जानती है कि भाजपा ने राम मंदिर बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत मांगा था और वह उसे मिल गया। भाजपा के आलोचक कहते हैं कि राम मंदिर भाजपा के लिए वोटों की फसल उगाने वाला राजनीतिक मुद्दा है। भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि राम मंदिर बनाकर यह मुद्दा हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाए। आज के दौर में सोशल मीडिया और अन्य प्रचार माध्यमों के चलते चुनावी मुद्दों में बदलाव आना कोई बड़ी बात नहीं। जहां तक राम मंदिर के मुद्दे का सवाल है तो जिस तरह रबड़ को ज्यादा खींचने से उसके टूटने का खतरा पैदा हो जाता है उसी तरह यदि जल्द ही राम मंदिर का मुद्दा सुलझाया नहीं गया तो आने वाले वर्षों में यह मुद्दा भाजपा के हाथ से निकल सकता है जिसका असर भाजपा और उसके नेताओं की विश्वसनीयता पर पड़े बिना नहीं रहेगा।

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