आइये याद करें पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब को
डॉ. बलराम मिश्र
ईद-मिलादुन-नबी अपने मुसलमान बहिनों-भाइयों का सबसे बड़ा त्यौहार मना जाता है, क्योंकि इसी दिन इस्लाम के अंतिम पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब का जन्म हुआ था। मिलाद शब्द अरबी भाषा के मौलिद शब्द से बना, जिसका अर्थ है जन्म। नबी अल्लाह के पैगम्बर को कहा जाता है। इस्लामी कैलेण्डर के अनुसार यह त्यौहार 12 रबी अल अव्वल के तीसरे महीने में आता है। विक्रमी संवत के अनुसार चैत मास, 628 और ईसाई कैलेण्डर के अनुसार 12 अप्रैल, 571 को। हर वर्ष यह पर्व श्रद्धा, उत्साह एवं आनंद के साथ मनाया जाता है। उपवास, सामूहिक नमाज, धार्मिक गायन, घरों और वातावरण की सफाई तथा भोजन वितरण आदि इस पर्व की कुछ विशेषताएं है।
आजकल कुछ इस्लामी देशों में रक्तपात और अशांति की खबरें सुन कर ऐसा लगता है कि पैगम्बर के जीवन की उच्च कोटि की घटनाओं से मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग परिचित ही नहीं है। इस्लामी साहित्य बताता है कि हजरत बाल्यकाल से ही शान्त स्वभाव के थे। वे एकांत वास, ध्यान धारणा, सादगी, क्षमाशीलता एवं नैतिक मूल्यों के धनी थे। शायद इसीलिए परमात्मा ने इंसानी कौम को अपना शांति और समृद्धि का सन्देश देने के लिए उन्हें चुना था और वह सन्देश ही इस्लाम के नाम से जाना गया।
निसंदेह पैगम्बर कोई देवता नहीं थे, किन्तु उनके अनेक देवी गुणों के कारण ही लोग उन्हें किसी देवता से कम नहीं मानते। इस्लामी साहित्य में, और विशेष रूप से डॉ. मुहम्मद अब्दुल हई के द्वारा लिखी पुस्तक `सर्वश्रेष्ठ रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैह वसल्लम का आदर्श जीवन' (प्रकाशक नासिर बुक डिपो, अजीजा बिल्डिंग बस्ती हजरत निजामुद्दीन, नई दिल्ली) में हजरत मोहम्मद साहब के जीवन की जो घटनाएं वर्णित की गयी हैं उनसे यह जानकारी मिलती है कि हजरत मोहम्मद साहब के उत्कृष्ट व्यवहार, सहिष्णुता, क्षमा-भाव, धैर्य, दृढ़ संकल्प, शांत स्वभाव, विनम्रता, सत्य-निष्ठा, प्रतिज्ञा और संकल्प पूरा करने के गुणों, बहादुरी, दानशीलता और पारलौकिक चिंतन के कारण ही जगत नियंता ने उन्हें पैगम्बर बनाया था।
इस सन्दर्भ में एक अन्य पुस्तक, `राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्यमें भारतीय मुस्लिम' (सम्पादक-सुषमा पाचपोर, विराग पाचपोर, शहनाज अफजाल, मोहम्मद अफजाल। प्रकाशक माई हिन्दुस्थान, 670, गली नाल बदान, कश्मीरी गेट, दिल्ली तथा राष्ट्रीय मुस्लिम मंच, हथरोई मार्किट, अजमेर रोड, शॉप नम्बर 17-18,जयपुर) भी उल्लेखनीय है।
यद्यपि यह सही है कि कुरआन शरीफ में, तत्कालीन अरब समाज की अनेक विषम परिस्थितियों के कारण लगभग दो दर्जन आयतों में मुशरिक, काफिर के वध, यातना देने और अपमानित करने आदि का उल्लेख है, जिनको आज का गैर इस्लामी समाज, तत्कालीन सन्दर्भ की अनभिज्ञता के कारण, निंदनीय मानता हैं,किन्तु सही सन्दर्भ की जानकारी एवं सम्यक व्याख्या के अभाव को मजहबी उन्माद का कारण नहीं माना जा सकता,और न ही अवतरित पुस्तकों के मानवीय सन्देश पर शक करने का कोई कारण। यह परमात्मा के मूल सन्देश की पवित्रता बनाए रखने के हित में ही होगा कि उन आयतों की सन्दर्भ सहित विस्तृत एवं युगानुकूल व्याख्या प्रस्तुत की जाए। अधिकतर जो व्याख्याएं उपलब्ध है वे अरबी भाषा में हैं।
यदि कभी देववाणी मानी जाने वाली संस्कृत को जन वाणी बनाया जा सकता है तो अरबी को भी आसान शब्दों में कुछ इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है कि आम आदमी को हजरत मोहम्मद साहब के जीवनादर्शों की जानकारी मिल सके।
उपर्युक्त पुस्तक में छपे लेख क्या कुरआन शरीफ की कुछ आयतों की ससंदर्भ पुनर्व्याख्या आवश्यक है? में लेखक बदरे आलम खान ने अत्यंत सटीक शब्दों में लिखा है कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब तो सहिष्णुता, सहनशक्ति, क्षमा, उदारता एवं मानव प्रेम का व्यावहारिक नमूना थे, अत उनके अनुयायी कभी कठोर, कूर, शांति को भंग करने वाले एवं आतंकवादी नहीं हो सकते। मुसलमानों को मोहम्मद साहब के आचरण, व्यवहार एवं शिक्षा को सच्चे दिल से ग्रहण करते हुए अन्य धर्मों के अनुयायियों को प्यार की सौगात बांटनी चाहिए ताकि उन्हें भी बदले में प्यार का तोहफा मिले।
इसी पुस्तक में प्रकाशित लेख इस्लाम और अमन में लेखक डॉ. एमए फारुखी लिखते है कि जो लोग कुरआन को खुदा की किताब मानते हैं वे कुरआन के वास्तविक रूप से मोमिन तब माने जाएंगे जब कुरआन की शिक्षा की पैरवी करते हुए सम्पूर्ण रूप से अमनपसंद बन जाएं, वे किसी भी हाल में दहशत गर्दी या तशद्दुद (आतंक) का रवैया अख्तियार न करें।
यह भी जरूरी है कि लोगों को चाहिए कि वे इस्लाम और मुसलमान के दरमियान अंतर करें। वे मुसलमानों के आचरण को इस्लाम की शिक्षा का नाम न दें। वास्तविकता यह है मुसलामानों के आचरण को इस्लाम के पैमाने पर परखा जाता है। मुसलमान उसी वक्त तक मुसलमान है जब वह इस्लामी शिक्षा पर आचरण करे।
इस्लाम की युगानुकूल व्याख्या हो, इस शीर्षक से छपे लेख के लेखक कुप्प.सी. सुदर्शन लिखते हैं, न्यायमूर्ति सैयद अमीर अली ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक दि स्पिरिट आफ इस्लाम में एक हदीस का उल्लेख किया है, जिसमें हजरत मोहम्मद साहब को यह कहते हुए बताया गया है कि आज मैं जो कुछ बता रहा हूं उसका दसवां हिस्सा भी छोड़ दोगे तो तुम नष्ट हो जाओगे,किन्तु एक समय ऐसा आएगा जब दसवां हिस्सा भी बचाकर रखेंगे तो निहाल हो जाओगे। स्पष्ट है कि हजरत मोहम्मद साहब यह जानते थे कि छठी शताब्दी में जो बातें बताई जा रही हैं वे 21वीं शताब्दी में भी सब की सब सुसंगत ही होंगी, ऐसा नहीं है। इसीलिए उन्होंने उस दसवें हिस्से को बचाकर रखने की बात कही थी जो महत्त्वपूर्ण है।
पैगम्बर साहब, करोड़ों विदेशियों की तरह, करोड़ों धर्मभीरु भारतीयों के लिए भी अत्यंत श्रद्धा के पात्र हैं। कहते है कि भारत की तरफ से जाने वाली शीतल, त्रिविध वायु के वे प्रशंसक थे। लेकिन भारत के अधिकांश लोग उनके जीवन के उदात्त मूल्यों से कम ही परिचित हैं। आज जब दुनिया भारत से शांति, समृद्धि और वैभव संपन्न जीवन जीने की उत्कृष्ट पद्धति सीखने के लिए आतुर लगती है तो भारत और विशेष रूप से भारत के इस्लामी विद्वानों का यह कर्तव्य बनता है कि प्रचलित आसान भारतीय भाषाओं में पैगम्बर साहब का शांति सन्देश और जीवन चरित्र सर्वसाधारण को उपलब्ध कराया जाए। विभिन्न भाषाओं में हजरत मोहम्मद शोध संस्थान खोले जाएं। इससे समाज में शांति व्यवस्था स्थापित करने में सहायता मिलेगी।
यह एक विडम्बना है कि हजारों मत-पंथों का पालना बने भारत में यद्यपि सामाजिक समरसता और साम्प्रदायिक सद्भाव एवं सर्वधर्म समभाव की चर्चाएं तो बहुत होती रही हैं, किन्तु विभिन्न मतों-पंथों के आराध्य देव तुल्य महापुरुषों के महान जीवनादर्शों की चर्चा करने और उन पर आचरण करने में सामान्यतया कृपणता बरती जाती रही है। क्या बारावफात के पावन पर्व पर मुसलमान यह संकल्प ले सकते हैं कि वे इस्लाम की छवि की रक्षा करने के लिए पैगम्बर साहब के जीवनादर्शों पर आचरण कर के अशांत विश्व का मार्ग दर्शन करेंगे?
कई वर्षों पूर्व शारजा की सुप्रसिद्ध फैजल मस्जिद में एक वयोवृद्ध अरबी के विद्वान अब्बादी साहब ने बताया था कि मजहबे इस्लाम को राजनीति ने बड़ा नुक्सान पहुंचाया। उसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने सूरते हाल यह बना दिया है कि उच्चकोटि के मानवीय गुणों से परिपूर्ण पैगम्बर साहब के नाम को बदनाम करते हुए वे इंसानियत पर हमला कर रहे हैं। कुछ साल पहले जब मैंने बारावफात वाले दिन एक दरगाह में एक मुल्लाजी से कहा कि वे मेहरबानी कर के पैगम्बर साहब के बारे में कम से कम दो बातें बताएं तो उन का सख्त लहजे में जवाब था, जनाब, मजहबी बातों में दखलंदाजी ठीक नहीं। वे महोदय भड़क न जाएं और चिल्लाने न लगें कि इस्लाम खतरे में हैं, इस आशंका से मैंने यह नहीं पूछा कि मेरी इस जिज्ञासा को मजहबी मामलों में दखलंदाजी कैसे कहा जा सकता है। मैं समझ गया था कि हजरत मोहम्मद साहब के नाम पर आंसू और खून की बाढ़ लाना बहुत आसान है, किन्तु उनके शांति मूलक जीवनादर्शों के बारे में किसी को कुछ बताना और ईमानदारी से आचरण करना आसान नहीं।
शायद इसीलिए यह कहा गया है कि शिव बनकर ही शिव की आराधना करनी चाहिए। शायद इसीलिए राष्ट्र कवि दिनकर जी ने लिखा कि वे जपें नाम, तुम बनकर राम जियो रे।
(यह विचार लेखक के हैं।)